हिन्दू नाम से छुपे मुस्लिम मानसिकता रोगी पूछते है की राम मंदिर मुद्दा भुला दिया बीजेपी ने तो उनके लिए ...
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारन रुका है बरना इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तो .30 सितंबर, 2010 को अपने एक ऐतिहासिक फैसले में अयोध्या के विवादित स्थल को रामजन्मभूमि घोषित कर दिया। हाईकोर्ट ने बहुमत से फैसला दिया कि विवादित भूमि जिसे रामजन्मभूमि माना जाता रहा है, उसे हिंदुओं के रामजन्मभूमि न्यास को सौंप दिया जाए। वहां से रामलला की प्रतिमा को नहीं हटाया जाएगा। तीन जजों की खंडपीठ ने मुसलमानों के सुन्नी वफ्फ बोर्ड के दावे को खारिज कर दिया। साथ ही अदालत ने यह भी फैसला दिया कि कुछ हिस्सों पर, जिसमें सीता रसोई और राम चबूतरा शामिल हैं, पर निर्मोही अखाड़े का कब्जा रहा है, इसलिए यह हिस्सा निर्मोही अखाड़े के पास ही रहेगा।
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अदालत के दो न्यायधीशों ने यह भी फैसला दिया कि इस विवादित परिसर के कुछ स्थान पर मुसलमान नमाज अदा करते रहे हैं, इसलिए जमीन का एक-तिहाई हिस्सा मुसलमानों को दे दिया जाए।
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अयोध्या खंडपीठ में कुल तीन जज शामिल थे जिन्होंने कुल दस हजार पन्नों का अपना फैसला सुनाया। अदालत ने यह भी स्वीकार किया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण बाबर अथवा उसके आदेश पर उसके सिपहसालार मीर बकी ने उसी स्थल पर किया था, जिसे हिंदू भगवान राम का जन्म स्थल मानते रहे हैं।
अदालत ने यह भी माना कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई में वहां एक विशाल प्राचीन मंदिर के अवशेष मिले हैं, जिसके खंडहर पर मस्जिद बनी। यद्यपि तीनों जजों में इस बात को लेकर मतभेद थे कि मस्जिद बनाते समय पुराना मंदिर तोड़ा गया था।अदालत के फैसले के अनुसार जमीन बंटवारे में सहूलियत के लिए केेंद्र सरकार द्वारा अधिग्रहित 70 एकड़ जमीन को शामिल किया जाएगा।
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अयोध्या में विवादित जमीन के मालिकाना हक के चार मामलों की सुनवाई करने वाली हाईकोर्ट की विशेष पीठ पिछले 21 वर्र्षों में 13 बार बदली गई। खंडपीठ में यह बदलाव जजों के रिटायर होने, पदोन्नति या तबादले की वजह से करने पड़े।
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रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का यह मामला शुरू में फैजाबाद के सिविल कोर्ट में चल रहा था। यह मामला स्थानीय स्तर पर ही चल रहा था। शुरुआती दौर में देश के कम ही लोगों को इसके बारे में जानकारी थी। लेकिन वर्ष 1984 में रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के आंदोलन और 1986 में विवादित परिसर का ताला खुलने के बाद इस मामले ने तूल पकड़ा। फिर 1989 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विश्व हिंदू परिषद ने विवादित जमीन पर राम मंदिर के शिलान्यास की घोषणा करके मामले को काफी गर्मा दिया। इसके बाद राज्य सरकार के अनुरोध पर हाईकोर्ट ने एक जुलाई, 1989 को मामले को फैजाबाद की अदालत से हटाकर अपने पास ले लिया। इसके बाद से ही यह मामला हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में लंबित चल रहा था।
विवादित मस्जिद गिरने के बाद केद्र सरकार ने जनवरी 1993 में अध्यादेश लाकर मालिकाना हक के चारों मामले समाप्त करके सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी कि क्या वहां कोई पुराना मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी।
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वर्ष 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अपनी राय देने से इंकार कर दिया और हाईकोर्ट को फैसला देने को कहा। इसके बाद जजों के हटने का सिलसिला जारी रहा। अंत में इस फैसले को जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस यू. सी. खान व जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने सुनाया।
अयोध्या विवाद प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
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1528: अयोध्या में एक ऐसे स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया जिसे हिंदू भगवान राम का जन्म स्थल मानते थे। ऐसा माना जाता है कि मुगल सम्राट बाबर के सिपाहसालार मीर बकी ने इस मस्जिद का निर्माण करवाया था, जिसे बाबरी मस्जिद का नाम दिया गया था।
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1853: पहली बार इस स्थल को लेकर अयोध्या में सांप्रदायिक दंगे हुए।
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1859: ब्रिटिश शासन ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।
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1949: भगवान राम की मूर्तियां विवादित स्थल पर रखी पाई गईं। मुसलमानों ने इसका विरोध किया और दोनों पक्षों की ओर से अदालत में मुकदमा कायम करवाया गया। सरकार ने इस स्थल को विवादित करार देते हुए ताला लगा दिया।
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1984: विश्व हिंदू परिषद के नेतृत्व में भगवान राम के जन्मस्थल को मुक्त कराने और वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया गया।
1986: जिला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं को पूजा-पाठ करने के लिए विवादित मस्जिद के दरवाजे पर से ताला खोलने का आदेश दिया। मुसलमानों ने इस फैसले का विरोध करते हुए बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया।
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1989: विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक राम मंदिर का शिलान्यास किया।
1992: हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें 2000 से अधिक लोग मारे गए।
फरवरी 2002: विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू करने की घोषणा की। सैकड़ों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या में इकठ्ठा हुए। अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार्यकर्ता जिस ट्रेन में यात्रा कर रहे थे, उसे गोधरा में जला दिया गया जिसमें 58 लोगों की मौत हो गई।
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13 मार्च, 2002: सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अयोध्या में यथास्थिति बरकरार रखी जाएगी और किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन पर शिलापूजन करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। केद्र सरकार ने भी कहा कि अदालत के फैसले का पालन किया जाएगा। बाद में विश्व हिंदू परिषद व केद्र सरकार के बीच समझौता हो गया।
अप्रैल 2003: इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की। खुदाई करने पर रिपोर्ट में मंदिर के अवशेष दबे होने की बात कही गई।
30 जून, 2009: बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की जांच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्र्षों के बाद अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौपी। आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी और मीडिया को दोषी ठहराया और नरसिंह राव को क्लीन चिट दी।
रामजन्मभूमि विवाद कांग्रेस ने ही शुरू किया और पाला-पोसा ...
सच्चाई ये है कि रामजन्मभूमि विवाद को कांग्रेस ने ही शुरू किया और कांग्रेस ने ही पाला-पोसा लेकिन बीजेपी ने आखिरी मौके पर इसे हथिया लिया. यह मामला न तो धार्मिक है.. न ही सांप्रदायिक.. ये पूर्ण रूप से राजनीतिक मामला है.
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ये कांग्रेस पार्टी ही है जिसने सबसे पहले 1948 में हुए फैजाबाद उप चुनाव में राममंदिर का मुद्दा प्रमुखता से उठाया. आचार्य नरेंद्र देव जैसे नेता को कांग्रेस पार्टी ने नास्तिक नास्तिक कह कर चुनाव में पराजित कर दिया. उन्हें हराने के लिए कांग्रेस ने खुलकर राम जन्मभूमि का कार्ड खेला. “कसम राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा” कांग्रेस ने दिया था. विवादित ढांचे के अंदर पूजा पाठ की अनुमति दिलवाने में यूपी के प्रथम मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत का हाथ था. वो भी कांग्रेस ही थी जिसने ताला खोलकर बीजेपी के हाथ में ये मुद्दा थमाया. वो कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव थे जो 6 दिसंबर को दिन भर आराम करते रहे और अयोध्या में मस्जिद को ढहा दिया गया. एक बार मस्जिद ढहा दिया गया तो प्रोफेशनल सेकुलरिस्टो का खेल शुरू हो गया.
सबसे खराब रोल देश के फर्जी वामपंथी-इतिहासकारों का रहा.,,
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारन रुका है बरना इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तो .30 सितंबर, 2010 को अपने एक ऐतिहासिक फैसले में अयोध्या के विवादित स्थल को रामजन्मभूमि घोषित कर दिया। हाईकोर्ट ने बहुमत से फैसला दिया कि विवादित भूमि जिसे रामजन्मभूमि माना जाता रहा है, उसे हिंदुओं के रामजन्मभूमि न्यास को सौंप दिया जाए। वहां से रामलला की प्रतिमा को नहीं हटाया जाएगा। तीन जजों की खंडपीठ ने मुसलमानों के सुन्नी वफ्फ बोर्ड के दावे को खारिज कर दिया। साथ ही अदालत ने यह भी फैसला दिया कि कुछ हिस्सों पर, जिसमें सीता रसोई और राम चबूतरा शामिल हैं, पर निर्मोही अखाड़े का कब्जा रहा है, इसलिए यह हिस्सा निर्मोही अखाड़े के पास ही रहेगा।
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अदालत के दो न्यायधीशों ने यह भी फैसला दिया कि इस विवादित परिसर के कुछ स्थान पर मुसलमान नमाज अदा करते रहे हैं, इसलिए जमीन का एक-तिहाई हिस्सा मुसलमानों को दे दिया जाए।
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अयोध्या खंडपीठ में कुल तीन जज शामिल थे जिन्होंने कुल दस हजार पन्नों का अपना फैसला सुनाया। अदालत ने यह भी स्वीकार किया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण बाबर अथवा उसके आदेश पर उसके सिपहसालार मीर बकी ने उसी स्थल पर किया था, जिसे हिंदू भगवान राम का जन्म स्थल मानते रहे हैं।
अदालत ने यह भी माना कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई में वहां एक विशाल प्राचीन मंदिर के अवशेष मिले हैं, जिसके खंडहर पर मस्जिद बनी। यद्यपि तीनों जजों में इस बात को लेकर मतभेद थे कि मस्जिद बनाते समय पुराना मंदिर तोड़ा गया था।अदालत के फैसले के अनुसार जमीन बंटवारे में सहूलियत के लिए केेंद्र सरकार द्वारा अधिग्रहित 70 एकड़ जमीन को शामिल किया जाएगा।
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अयोध्या में विवादित जमीन के मालिकाना हक के चार मामलों की सुनवाई करने वाली हाईकोर्ट की विशेष पीठ पिछले 21 वर्र्षों में 13 बार बदली गई। खंडपीठ में यह बदलाव जजों के रिटायर होने, पदोन्नति या तबादले की वजह से करने पड़े।
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रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का यह मामला शुरू में फैजाबाद के सिविल कोर्ट में चल रहा था। यह मामला स्थानीय स्तर पर ही चल रहा था। शुरुआती दौर में देश के कम ही लोगों को इसके बारे में जानकारी थी। लेकिन वर्ष 1984 में रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के आंदोलन और 1986 में विवादित परिसर का ताला खुलने के बाद इस मामले ने तूल पकड़ा। फिर 1989 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विश्व हिंदू परिषद ने विवादित जमीन पर राम मंदिर के शिलान्यास की घोषणा करके मामले को काफी गर्मा दिया। इसके बाद राज्य सरकार के अनुरोध पर हाईकोर्ट ने एक जुलाई, 1989 को मामले को फैजाबाद की अदालत से हटाकर अपने पास ले लिया। इसके बाद से ही यह मामला हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में लंबित चल रहा था।
विवादित मस्जिद गिरने के बाद केद्र सरकार ने जनवरी 1993 में अध्यादेश लाकर मालिकाना हक के चारों मामले समाप्त करके सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी कि क्या वहां कोई पुराना मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी।
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वर्ष 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अपनी राय देने से इंकार कर दिया और हाईकोर्ट को फैसला देने को कहा। इसके बाद जजों के हटने का सिलसिला जारी रहा। अंत में इस फैसले को जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस यू. सी. खान व जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने सुनाया।
अयोध्या विवाद प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
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1528: अयोध्या में एक ऐसे स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया जिसे हिंदू भगवान राम का जन्म स्थल मानते थे। ऐसा माना जाता है कि मुगल सम्राट बाबर के सिपाहसालार मीर बकी ने इस मस्जिद का निर्माण करवाया था, जिसे बाबरी मस्जिद का नाम दिया गया था।
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1853: पहली बार इस स्थल को लेकर अयोध्या में सांप्रदायिक दंगे हुए।
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1859: ब्रिटिश शासन ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।
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1949: भगवान राम की मूर्तियां विवादित स्थल पर रखी पाई गईं। मुसलमानों ने इसका विरोध किया और दोनों पक्षों की ओर से अदालत में मुकदमा कायम करवाया गया। सरकार ने इस स्थल को विवादित करार देते हुए ताला लगा दिया।
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1984: विश्व हिंदू परिषद के नेतृत्व में भगवान राम के जन्मस्थल को मुक्त कराने और वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया गया।
1986: जिला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं को पूजा-पाठ करने के लिए विवादित मस्जिद के दरवाजे पर से ताला खोलने का आदेश दिया। मुसलमानों ने इस फैसले का विरोध करते हुए बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया।
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1989: विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक राम मंदिर का शिलान्यास किया।
1992: हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें 2000 से अधिक लोग मारे गए।
फरवरी 2002: विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू करने की घोषणा की। सैकड़ों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या में इकठ्ठा हुए। अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार्यकर्ता जिस ट्रेन में यात्रा कर रहे थे, उसे गोधरा में जला दिया गया जिसमें 58 लोगों की मौत हो गई।
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13 मार्च, 2002: सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अयोध्या में यथास्थिति बरकरार रखी जाएगी और किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन पर शिलापूजन करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। केद्र सरकार ने भी कहा कि अदालत के फैसले का पालन किया जाएगा। बाद में विश्व हिंदू परिषद व केद्र सरकार के बीच समझौता हो गया।
अप्रैल 2003: इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की। खुदाई करने पर रिपोर्ट में मंदिर के अवशेष दबे होने की बात कही गई।
30 जून, 2009: बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की जांच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्र्षों के बाद अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौपी। आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी और मीडिया को दोषी ठहराया और नरसिंह राव को क्लीन चिट दी।
रामजन्मभूमि विवाद कांग्रेस ने ही शुरू किया और पाला-पोसा ...
सच्चाई ये है कि रामजन्मभूमि विवाद को कांग्रेस ने ही शुरू किया और कांग्रेस ने ही पाला-पोसा लेकिन बीजेपी ने आखिरी मौके पर इसे हथिया लिया. यह मामला न तो धार्मिक है.. न ही सांप्रदायिक.. ये पूर्ण रूप से राजनीतिक मामला है.
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ये कांग्रेस पार्टी ही है जिसने सबसे पहले 1948 में हुए फैजाबाद उप चुनाव में राममंदिर का मुद्दा प्रमुखता से उठाया. आचार्य नरेंद्र देव जैसे नेता को कांग्रेस पार्टी ने नास्तिक नास्तिक कह कर चुनाव में पराजित कर दिया. उन्हें हराने के लिए कांग्रेस ने खुलकर राम जन्मभूमि का कार्ड खेला. “कसम राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा” कांग्रेस ने दिया था. विवादित ढांचे के अंदर पूजा पाठ की अनुमति दिलवाने में यूपी के प्रथम मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत का हाथ था. वो भी कांग्रेस ही थी जिसने ताला खोलकर बीजेपी के हाथ में ये मुद्दा थमाया. वो कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव थे जो 6 दिसंबर को दिन भर आराम करते रहे और अयोध्या में मस्जिद को ढहा दिया गया. एक बार मस्जिद ढहा दिया गया तो प्रोफेशनल सेकुलरिस्टो का खेल शुरू हो गया.
सबसे खराब रोल देश के फर्जी वामपंथी-इतिहासकारों का रहा.,,
उन्होंने ऐसे ऐसे कुतर्क दिए जिससे बातचीत का रास्ता बंद हो गया. इन्होंने इतिहास के पन्नों से ऐसे ऐसे सबूत को पेश किया जिस पर न तो कोर्ट को भरोसा हुआ और न ही देश की जनता ने उन्हें माना. उन्होंने कहा कि राम मिथक हैं इसलिए जन्म स्थान होने का सवाल ही नहीं उठता. जब इस दलील से बात नहीं बनी तो एक महान इतिहासकार ने फर्जीवाडा की सारी सीमा लांघ दी.
इतिहासकार डी एन झा ने यहां तक दावा किया कि राम और सीता भाई बहन थे. फिर इन महान इतिहासकारों ने यह कहा कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद है वहां कभी कोई मंदिर नहीं था. इतना ही नहीं इन वामपंथी इतिहासकारों ने देश भर में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के साथ कैंपेन किया. सिगनेचर कैंपेन किया. एक्सपर्ट के रूप में इन ठगों ने गवाही भी दी. इस कैपेन का नेतृत्व रोमिला थापर ने किया और आर एस शर्मा, सूरजभान जैसे तमाम इतिहासकारों की सक्रिय भूमिका रही. लेकिन जब क्रास-एग्जामिनेशन किया गया तो इन सभी फर्जी इतिहासकारों का सच सामने आ गया. . हैरानी की बात यह है कि इन
.
जब कोर्ट को लगा कि इन वामपंथी इतिहासकारों की बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता तब कोर्ट को जमीन खोद कर पता लगाने का आदेश देना पड़ा. जब खुदाई हुई और ये पता चल गया कि बाबरी मस्जिद किसी समतल जमीन पर नहीं बनाई गई थी बल्कि किसी भवन को तोड़ कर उसके मलबे पर बनी थी. खुदाई में मंदिर के निशान मिले. दिन के उजाले की तरह यह बात साफ हो गई कि बाबरी मस्जिद मंदिर को तोड़ कर बनाई गई थी. खुदाई के दौरान मिले सबूतों से वामपंथी इतिहासकारों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई. वो बेनकाब हो गए... वामंपथी इतिहासकारों ने कोर्ट के सामने अपनी अज्ञानता और फर्जीवाड़े को स्वीकार भी किया.
.
ये अलग बात है कि इन इतिहासकारों से कोई यह नहीं पूछता कि देश को तोड़ने और सांप्रदायिकता को जीवित रखने के लिए इनलोगों ने झूठ क्यों बोला? इन इतिहासकारों को तो देश से माफी मांगनी चाहिए.
.
हाईकोर्ट ने खुदाई करवा कर और सबूतों को जमा कर जिस तरह का फैसला लिखा वो इतिहास के हर विद्य़ार्थी को पढ़ना चाहिए क्योंकि इस फैसले के जरिए कोर्ट ने फर्जी इतिहासकारों का भंडा फोड़ दिया... तथाकथित इतिहासकार ने सख्ती से पूछे जाने पर कोर्ट के अंदर यह माना कि वो कम्यूनिस्ट पार्टी का सदस्य है और रेड-कार्ड होल्डर है..इन इतिहासकारों द्वारा लिखी गई किताबों को फिर से लिखना चाहिए
. इन फर्जी इतिहासकारों ने रामजन्मभूमि विवाद पर माहौल को इतना दूषित कर दिया कि अब इसमें ज्यादा आप्शन नहीं है. बातचीत से मामले को सुलझाने का रास्ता बंद हो चुका है.
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इतिहासकार डी एन झा ने यहां तक दावा किया कि राम और सीता भाई बहन थे. फिर इन महान इतिहासकारों ने यह कहा कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद है वहां कभी कोई मंदिर नहीं था. इतना ही नहीं इन वामपंथी इतिहासकारों ने देश भर में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के साथ कैंपेन किया. सिगनेचर कैंपेन किया. एक्सपर्ट के रूप में इन ठगों ने गवाही भी दी. इस कैपेन का नेतृत्व रोमिला थापर ने किया और आर एस शर्मा, सूरजभान जैसे तमाम इतिहासकारों की सक्रिय भूमिका रही. लेकिन जब क्रास-एग्जामिनेशन किया गया तो इन सभी फर्जी इतिहासकारों का सच सामने आ गया. . हैरानी की बात यह है कि इन
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जब कोर्ट को लगा कि इन वामपंथी इतिहासकारों की बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता तब कोर्ट को जमीन खोद कर पता लगाने का आदेश देना पड़ा. जब खुदाई हुई और ये पता चल गया कि बाबरी मस्जिद किसी समतल जमीन पर नहीं बनाई गई थी बल्कि किसी भवन को तोड़ कर उसके मलबे पर बनी थी. खुदाई में मंदिर के निशान मिले. दिन के उजाले की तरह यह बात साफ हो गई कि बाबरी मस्जिद मंदिर को तोड़ कर बनाई गई थी. खुदाई के दौरान मिले सबूतों से वामपंथी इतिहासकारों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई. वो बेनकाब हो गए... वामंपथी इतिहासकारों ने कोर्ट के सामने अपनी अज्ञानता और फर्जीवाड़े को स्वीकार भी किया.
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ये अलग बात है कि इन इतिहासकारों से कोई यह नहीं पूछता कि देश को तोड़ने और सांप्रदायिकता को जीवित रखने के लिए इनलोगों ने झूठ क्यों बोला? इन इतिहासकारों को तो देश से माफी मांगनी चाहिए.
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हाईकोर्ट ने खुदाई करवा कर और सबूतों को जमा कर जिस तरह का फैसला लिखा वो इतिहास के हर विद्य़ार्थी को पढ़ना चाहिए क्योंकि इस फैसले के जरिए कोर्ट ने फर्जी इतिहासकारों का भंडा फोड़ दिया... तथाकथित इतिहासकार ने सख्ती से पूछे जाने पर कोर्ट के अंदर यह माना कि वो कम्यूनिस्ट पार्टी का सदस्य है और रेड-कार्ड होल्डर है..इन इतिहासकारों द्वारा लिखी गई किताबों को फिर से लिखना चाहिए
. इन फर्जी इतिहासकारों ने रामजन्मभूमि विवाद पर माहौल को इतना दूषित कर दिया कि अब इसमें ज्यादा आप्शन नहीं है. बातचीत से मामले को सुलझाने का रास्ता बंद हो चुका है.
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