दस वायु वर्णन :-
हमारे शरीर में दस वायु होती हैं जोकि इस प्रकार हैं -
1. प्राण
2. अपान
3. समान
4. उदान
5. व्यान
6. नाग
7. कूर्म
8. कृकल
9. देवदत्त
10. धनंजय
ये दस वायु हैं।
प्राणवायु👉 हृदय में रहकर श्वास बाहर-भीतर निकालता है तथा अन्न पानादिकों का परिपाक करता है।
अपानवायु👉 मूलाधार में मल-मूत्र निकालने का कार्य करता है।
समान वायु👉 नाभि में शरीर को यथास्थान रखने का काम करता है।
उदान वायु👉 कंठ में रहकर शरीर कि वृद्धि करता है।
व्यान वायु👉 सर्व शरीर में लेना छोड़ना आदि अंग धर्म करता है।
वायुशास्त्र के मत से मुख, नासिका, हृदय, नाभि में, कुण्डलिनी के चारों ओर तथा पदाँगुष्ठ में सर्वदा *प्राणवायु* रहता है।
गुह्य, लिंग, उरु, जानु, उदर, पेड़ू, कटि, नाभि इनमें *अपानवायु* रहता है।
कर्ण, नेत्र, कंठ, नाक, मुख, कपोल, मणिबँध में *व्यानवायु* रहता।
सर्वसंधि तथा हाथ-पैरों में *उदान वायु* रहता है।
उदाराग्नि के कला को लेकर सर्वांग में *समान वायु* रहता है।
इस कारण से प्राण आदि पाँच वायु प्रधान है। नागादि पाँच वायु जो चरम एवं हड्डी में रहकर कर्म करते हैं, इनका वर्णन आगे है।
डकार निकालना नाग वायु का कर्म है।
नेत्रों के पलक लगाना खोलना कूर्मवायु का कर्म है।
छींक करना कृकल वायु का कर्म है।
जम्हाई लेना देवदत्त वायु का कर्म है।
और धनंजय वायु सर्व शरीर में व्याप्त रहता है। मृतशरीर में भी चार घंटे तक रहता है। इस प्रकार यह दस वायु आप ही जीव के अभ्यास से कल्पित होकर सुख दुःख का सम्बन्ध जीव को कराते हैं। मैं सुखी हूँ अथवा मैं दुःखी हूँ इत्यादि व्यवहारमय जीव की उपाधि लिंग शरीर में होने से आप ही जीव रूप होकर समस्त नाड़ीयों में फिरता रहता है ।
जैसे गेंद हाथ से भूमि पर तारण करने से स्वतः उछलता है वैसे ही प्राण वायु के स्थान पर अपान वायु तथा अपान के स्थान पर प्राण वायु के प्राप्त होने में अपान वायु जीव को आकर्षण करके एकत्र स्थिति नहीं रहने देता।
जीव कारण से जीवात्मा प्राण, अपान के अधीन है। इसी कारण से ईड़ा-पिंगला नाड़ी के द्वारा गिर के नीचे मूलाधार पर्यन्त और ऊपर नासिका छिद्र पर्यन्त फिरता ही रहता है। इसके अति चंचल होने से प्राण व अपान वायु के साधन बिना वायु नहीं जीता जाता और इसके जीते बिना हृदय कमल में ध्यान नहीं होता। जैसे बाज के पैर में डोरी बाँधकर छोड़ देने पर वह उड़ जाता है एवं खींचने पर फिर हाथ में आ जाता है, ऐसे ही माया के अंश सत्व - रज - तमोगुण की वासना से बँधा हुआ जीव बुद्धि में लीन होने से उपाधि रहित शुद्ध ब्रह्म हो गया हो तो भी प्राणापना वायु द्वारा खींचा जाता है। जागृत अवस्था में फिर प्रबुद्ध हुये की वृत्ति से विषय में जीव भाव को प्राप्त किया जाता है।
हमारे शरीर में दस वायु होती हैं जोकि इस प्रकार हैं -
1. प्राण
2. अपान
3. समान
4. उदान
5. व्यान
6. नाग
7. कूर्म
8. कृकल
9. देवदत्त
10. धनंजय
ये दस वायु हैं।
प्राणवायु👉 हृदय में रहकर श्वास बाहर-भीतर निकालता है तथा अन्न पानादिकों का परिपाक करता है।
अपानवायु👉 मूलाधार में मल-मूत्र निकालने का कार्य करता है।
समान वायु👉 नाभि में शरीर को यथास्थान रखने का काम करता है।
उदान वायु👉 कंठ में रहकर शरीर कि वृद्धि करता है।
व्यान वायु👉 सर्व शरीर में लेना छोड़ना आदि अंग धर्म करता है।
वायुशास्त्र के मत से मुख, नासिका, हृदय, नाभि में, कुण्डलिनी के चारों ओर तथा पदाँगुष्ठ में सर्वदा *प्राणवायु* रहता है।
गुह्य, लिंग, उरु, जानु, उदर, पेड़ू, कटि, नाभि इनमें *अपानवायु* रहता है।
कर्ण, नेत्र, कंठ, नाक, मुख, कपोल, मणिबँध में *व्यानवायु* रहता।
सर्वसंधि तथा हाथ-पैरों में *उदान वायु* रहता है।
उदाराग्नि के कला को लेकर सर्वांग में *समान वायु* रहता है।
इस कारण से प्राण आदि पाँच वायु प्रधान है। नागादि पाँच वायु जो चरम एवं हड्डी में रहकर कर्म करते हैं, इनका वर्णन आगे है।
डकार निकालना नाग वायु का कर्म है।
नेत्रों के पलक लगाना खोलना कूर्मवायु का कर्म है।
छींक करना कृकल वायु का कर्म है।
जम्हाई लेना देवदत्त वायु का कर्म है।
और धनंजय वायु सर्व शरीर में व्याप्त रहता है। मृतशरीर में भी चार घंटे तक रहता है। इस प्रकार यह दस वायु आप ही जीव के अभ्यास से कल्पित होकर सुख दुःख का सम्बन्ध जीव को कराते हैं। मैं सुखी हूँ अथवा मैं दुःखी हूँ इत्यादि व्यवहारमय जीव की उपाधि लिंग शरीर में होने से आप ही जीव रूप होकर समस्त नाड़ीयों में फिरता रहता है ।
जैसे गेंद हाथ से भूमि पर तारण करने से स्वतः उछलता है वैसे ही प्राण वायु के स्थान पर अपान वायु तथा अपान के स्थान पर प्राण वायु के प्राप्त होने में अपान वायु जीव को आकर्षण करके एकत्र स्थिति नहीं रहने देता।
जीव कारण से जीवात्मा प्राण, अपान के अधीन है। इसी कारण से ईड़ा-पिंगला नाड़ी के द्वारा गिर के नीचे मूलाधार पर्यन्त और ऊपर नासिका छिद्र पर्यन्त फिरता ही रहता है। इसके अति चंचल होने से प्राण व अपान वायु के साधन बिना वायु नहीं जीता जाता और इसके जीते बिना हृदय कमल में ध्यान नहीं होता। जैसे बाज के पैर में डोरी बाँधकर छोड़ देने पर वह उड़ जाता है एवं खींचने पर फिर हाथ में आ जाता है, ऐसे ही माया के अंश सत्व - रज - तमोगुण की वासना से बँधा हुआ जीव बुद्धि में लीन होने से उपाधि रहित शुद्ध ब्रह्म हो गया हो तो भी प्राणापना वायु द्वारा खींचा जाता है। जागृत अवस्था में फिर प्रबुद्ध हुये की वृत्ति से विषय में जीव भाव को प्राप्त किया जाता है।
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