Tuesday, 27 February 2018


कसाब को फांसी की सजा दिलवाने वाली गवाह बच्ची की हालत सुनकर भीग जाएंगी आपकी आंखें

देविका रोटवानी उस बहादुर लड़की का नाम है, जिसने नौ साल की उम्र में ही आतंकवाद के खिलाफ एक अलग तरह की बहादुरी की मिसाल कायम कर दी थीं लेकिन आज मुंबई में 10वीं क्लास में पढ़ रही उस लड़की के पास पहनने के लिए सिर्फ एक स्कूल ड्रेस और दो पेंट, दो टीशर्ट हैं। पिछले दिनो तपोवन प्रन्यास के अध्यक्ष महेश पेड़ीवाल ने जब उसकी बहादुरी सलाम करते हुए उसे दो लाख रुपए की बख्शीश दी तो खुशी से उसकी आंखें भीग गईं।देविका मूलतः राजस्थान के जिला श्रीगंगानगर की रहने वाली है। वह अपने बीमार अपाहिज भाई जयेश और पिता नटवरलाल के साथ मुंबई की झुग्गी बस्ती में रह रही है। देविका की बहादुरी किसी भी देशवासी को रोमांच से भर देती है। उसने मुंबई हमले के बाद पकड़े गए पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी अजमल कसाब को फाँसी की सजा दिलवाने में चश्मदीद गवाह बनी थी। उसी की गवाही पर कोर्ट ने कसाब को फांसी की सजा सुनाई थी।

देविका रो-रोकर बताती है कि उस वक्त तो उसे बहादुरी के तमगे मिले। उसके सामने नेताओं लंबे-लंबे भाषण बांचे लेकिन बाद में उसे सब-के-सब भूल गए। अब तो लगता है, जैसा पूरा देश ही उसे भूल गया। उसे स्कूल में एडमिशन तक नहीं मिला। मारे डर के लोग उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं आतंकवादी उन पर भी हमला न कर दें। पिछले एक साल से तो वह टीबी की मरीज है। वह कहती है कि उसकी बहादुरी उसी के लिए मुसीबत बन गई। उसे भी भविष्य का खतरा सताने लगाजब वह पांचवीं क्लास में दाखिला लेने के लिए बांद्रा के एक स्कूल पहुंची तो उसे ये कहकर मना कर दिया गया कि उसे एडमिशन देने से स्कूल की सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है। उससे बाकी छात्रों की भी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। स्कूल प्रशासन के उस रवैये से उसका परिवार सकते में आ गया। उसके पिता ने सवाल किया कि जब देविका ने बिना किसी डर के कसाब को उसके अंजाम तक पहुंचा दिया तो फिर स्कूल वाले उसे एडमिशन देने में क्यों इतना डर रहे हैं। वह एडमिशन के लिए प्रवेश परीक्षा देने पर भी तैयार हो गई लेकिन स्कूल वालों ने उसकी एक नहीं सुनी, न उसकी मदद को कोई आगे आया।

देविका बताती है कि कसाब के पकड़े जाने के बाद जब पुलिस की गवाह बनी, उसके घर पिता के मोबाइल फोन पर कभी पाकिस्तान तो कभी हैदराबाद से धमकियां आने लगी थीं। पहले तो उसके परिवार को धमकाया जाता रहा। उनकी एक न सुनने पर गवाही से मुकर जाने के लिए उसे एक करोड़ रुपए तक ऑफर दिया गया। उन दिनो वह बस एक सावधानी बरतती रही कि हर धमकी और लालच से पुलिस को आगाह करती थी। आज जबकि देश में इतना भ्रष्टाचार है, अपनी तंगहाली से मुक्त होने के लिए वह भी इतनी बड़ी रकम के आगे झुक सकती थी लेकिन नहीं, उसके लिए देश पहले था, बाकी कुछ भी बाद में।उसने सोचा कि गरीबी तो आज है, कल नहीं भी रह सकती है, लेकिन उसके माथे पर अगर एक बार कलंक का टीका लग गया तो वह जीवन भर नहीं मिटेगा। वह झुक गई तो अपने जमीर को भी क्या जवाब देगी। कोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने जब उससे पूछा कि क्या वह गोली मारने वाले आतंकवादी को पहचान सकती है, उसने बेखौफ- कहा, 'हां'। उस समय अदालत में बारी-बारी से तीन युवकों को पेश किया गया। उसने कसाब को देखते ही पहचान लिया था। 26 नवंबर 2008 जिस रात मुंबई पर आतंकवादी अटैक हुआ था, उस वक्त को याद कर वह आज भी अंदर से थरथरा उठती है।

वह बताती है कि उस रात उसके पिता और भाई सीएसटी टर्मिनल से पुणे जाने वाले थे। जब आतंकवादियों ने रेलवे स्टेशन पर हमला किया तो कसाब ने एक गोली उसके पैर में मारी थी। वह बेहोश हो गई। वहां से उसे अस्पताल ले जाया गया। उसके कई ऑपरेशन कर पैर में रॉड डाली गई। उस समय वह नौ साल की थी। अब 18 की हो चुकी है।

देविका के सोचने में कमी भी क्या है। हमारे देश में तो लोग उन शहीद स्थलों तक को भूल चुके हैं, जहां उनको फांसी पर चढ़ाया गया था। स्वतंत्रता संग्राम की शाहदतें जिनके लिए कोई मायने न रखती हों, उनके लिए देविका की गवाही भला क्या महत्व रखती है। अभी इसी साल का ऐसा ही एक छोटा सा वाकया उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर का है। 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा'... शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की ये पंक्तियां युवाओं में आज भी जोश पैदा करती हैं।

यहां फीना में बेलबाबा चौराहे पर बना शहीद स्मारक जरूर कारगिल के शहीद नायक अशोक कुमार की याद दिलाता है, लेकिन कारगिल विजय दिवस पर प्रशासन का कोई भी अधिकारी उन्हें श्रद्घांजलि देने नहीं पहुंचा। इसी तरह इस साल नागपुर में पिछली 23 मार्च को जीरोमाइल चौक पर बने शहीद स्मारक को भुला दिया गया। याद करना तो दूर, उसकी साफ-सफाई तक नहीं की गई। शहीदों की यादें सिर्फ सोशल मीडिया पर रह गई हैं।

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