Thursday 15 February 2018

समाज का पोषण करेंगे या नया समाज बनायेंगे
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जब कोई यह बताने लगे कि समाज की सही इकाई क्या हो ,क्या नहीं , तो वह नया समाज बनाने की कोशिश कर रहा होता है .
मुसलमानों ने नया समाज बनाने की कोशिश शुरू की कि एक भी बुतशिकन बचने न देंगे . वीर हिदुओंने यथा शक्ति उनका ही विनाश करना उचित माना
फिर अन्ग्रेजों ने नया समाज बनाने के बड़े प्रयास किये और ९० वर्ष में भागना पड़ा .
फिर Congi & communists ने नया समाज बनाने का अभियान भांति भांति की नौटंकी से ( कहीं scientific Temper का नारा देकर ,कही समतामूलक समाज का झूठ फैलाकर )७० वर्ष चलाया और विलुप्त प्रजाति बनने वाले हैं .
कुछ राष्ट्रवादी ,कुछ समाजवादी ,कुछ शुद्ध आर्य धर्म वादी भी नया समाज बनाने में लगे हैं . कुछ कोई बहुत पुराना ले आने की बात कभी कभी करते हैं
कांग्रस ने नया समाज बनाने में मुस्लिम -ईसाई सहयोग भी खूब साधा और किसम २ के कम्युनिष्टों को भी खूब पाला . सब मिलकर हिन्दू समाज को आधा तो कर ही डाला कांग्रेस ने .
अब और नए नए नया समाज बनाने वाले उपजते रहते हैं .
भारत में , हमारे धर्म शास्त्रों में तो ऐसी कोई कल्पना ही अनुपस्थित है कि कोई एक पिद्दी सा समूह समाजको बदल डाले और नया बनाये यानी मूल समाज का विनाश कर दे . शिक्षा ,संचार और मनोरंजन माध्यम यही प्रेरणा दे रहे हैं : बदल डालो , ख़त्म करो आदि आदि
.
अजीब से जंतु हैं ये .
तुमसे समाज ने कहा है कि आओ हमें बदलो और तुम न बदलो . जिसे तुम नया कहते हो, वह सब १४०० साल पुराने इस्लाम की और लगभग इतने ही पुराने ( ७ वीं शती ईस्वी से पूर्व क्रिश्चियनिटी यूरोप में नाम मात्र को थी ) ख्रिस्त पंथ की जूठन ही तो है .
आओ, तुम्हे ही बदल दिया जाये और नित्य नूतन चिर पुरातन हिन्दू धर्म में तुम्हे दीक्षित किया जाये .
समाज की ईकाई क्या हो ,यह समाज अपने अपने स्तर पर तय करता रहता है
.राज्य का काम सुरक्षा और शांति व्यवस्था है समाज .परिवर्तन नहीं
.कुछ लफंगों की नारेबाजी से कभी कुछ बदलता भी नहीं है .माओ लेनिन स्टॅलिन की जूठन की जुगाली बहुत हो गयी .
जिन्हें अपना दल सम्हालना नहीं आता वे समाज बदलने को व्याकुल हैं .बड़ी मनोरंजक स्थिति है .
जो स्वस्थ हैं ,वे कृपया समाज में शुभ का ,नीति का ,धर्म का पोषण करें , बदलने का कामरेडी धंधा बासी हो गया है यारो
.हमारी इकाई क्या हो यह हम तय करेंगे
.तुम अपने गिरोह या दल या क्लब की इकाई तय कर लो मुन्ना भाई. .

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