Sunday 17 April 2016


आनंद कुमार 
A brother, a son, a friend, a sketch artist, a lost soul, seeking atonement, barely OWN anything, a data analyst by profession, and a master of bad activities and computer programmer by educational qualification.
For activities - I enjoy reading, writing, discussing and travelling. The best part is that sometimes I get paid for all these !!

Ethical dilemma के बारे में सोचा है क्या कभी ? वही चीज़ जिसे हिंदी में “धर्मसंकट” कहते हैं. जब ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि सही क्या होगा और गलत क्या होगा. जब उचित और अनुचित में फर्क करना मुश्किल हो जाए. जब आपके पास जो विकल्प होते उनमें से कोई भी सही नहीं लग रहा होता है, सबमें कुछ ना कुछ बुराई होती ही है ऐसी स्थितियां आती हैं. कई बार एक का फायदा मतलब दूसरे का नुकसान होता है.
अगर ऐसे समझने में दिक्कत हो रही हो तो एक स्थिति की कल्पना कीजिये. सोचिये कि एक शाम आप ऑफिस से देर से छूटे हैं. रात के करीब नौ दस के बीच का वक्त है और आप पार्किंग से अपनी मोटर साइकिल लेकर सड़क तक पहुंचे ही हैं की सामने ही बस स्टॉप पर आपको तीन लोग नज़र आते हैं. इनमें पहला जो व्यक्ति है वो आपको जाना पहचाना सा दिखता है और आप स्टॉप पर गाड़ी जरा धीमी करते हैं.
आप देखते हैं कि ये व्यक्ति आपका ही एक सहकर्मी है. इसने आपके ऑफिस के कामों में अनगिनत बार आपकी मदद की है, जाने कितनी ही बार कठिनाइयों से बचाया है. अब आप उसे रात गए अकेले बस स्टॉप पर छोड़ कर तो बाइक आगे नहीं बढ़ा सकते ना ? उसे लिफ्ट देना आपको फ़र्ज़ जैसा लगेगा. बीसियों बार की मदद का बदला भी चुकाना है ! उसे छोड़कर आप आगे कैसे जा सकते हैं ? रुकना चाहिए.
लेकिन वहां रुकते ही आपको दिखता है कि स्टॉप पर दूसरी महिला एक वृद्धा है. उनकी स्थिति कुछ ख़ास अच्छी नहीं लग रही. लग रहा है काफ़ी देर से प्रतीक्षा कर रही हैं, अब आपके जैसा भला आदमी उन्हें देर रात परेशान होने कैसे छोड़ सकता है ? उनसे आपकी जान पहचान नहीं है, लेकिन माता जी कहीं छोड़ दूं आपको पूछना तो धर्म है आपका. इतना तो आपको करना ही चाहिए. अब जवान जहान सहकर्मी से पहले तो मदद पर वृद्धा का अधिकार बनता है. अब दोस्त को कैसे बिठाएंगे ?
अब आपका ध्यान जाता है कि तीसरी तो बिलकुल आपके सपनों वाली लड़की है ! बरसों से आप सोचा करते थे कि कहीं ये सचमुच होगी भी की नहीं. आज बिलकुल आँखों के सामने. आपके हेलमेट उतारते उतारते में वो कनखियों से आपकी तरफ़ देख भी लेती है. मतलब, हेल्लो कहने की कोशिश तो की ही जा सकती है. स्टैंड लगाकर आप अबतक बाइक से उतर चुके हैं.
अब आपकी समस्या शुरू होती है. है तो बाइक आपके पास ! मतलब एक ही आदमी को साथ ले सकते हैं. किसे ले जायेंगे साथ ? दोस्त को, जिसने कई बार मदद की है ? बूढी सी माताजी को स्टॉप पर छोड़ जाना भी आपके नेचर के खिलाफ़ होगा. और तीसरी जो लड़की है उसे छोड़ कर जाना तो शुद्ध मूर्खता होगी, बिलकुल नहीं किया जा सकता ऐसा. भला किन्ही अन्य लोगों (वृद्धा और मित्र) के लिए अपना भविष्य कैसे दाँव पर लगाया जाये ? किसी को छोड़ कर वापिस भी आये तो वो लड़की तबतक वहीँ रुकी होगी इसकी क्या गारंटी है ?
अब जरा हिन्दुओं के महाकाव्य महाभारत को याद कीजिये. ये ग्रन्थ बिलकुल Ethical Dilemma का ही ग्रन्थ है. कोई किरदार ना तो पूरा पुण्यात्मा है, ना ही पापी. सबने अच्छे काम किये हैं उतने ही बुरे काम भी किये. भीष्म हो, द्रोणाचार्य हो, कर्ण हो या अर्जुन, कृष्ण हों द्रौपदी हो, कुंती हो या विदुर, शकुनी हो, जरासंध हो, शिशुपाल हो कि रुक्मी ! सबने अपने अपने हिसाब से चुप्पी साधी है, जरुरत पड़ने पर कभी कभी सच के साथ भी दिखे हैं. धर्म संकट कैसा हो सकता है उसके लिए, और कुछ भी पूरा सही या पूरा गलत नहीं होता ये समझने के लिए महाभारत पढ़ना चाहिए.
अगर कहीं आप अभी भी सोच रहे हैं कि बाइक पर किसे लिफ्ट दी जाए तो उसका जवाब आसान है. अपने मित्र / सहकर्मी को अपने बाइक की चाभी दे दीजिये और उसे माताजी को घर छोड़ देने कह दीजिये. अब आप आराम से बस स्टॉप पर अपनी संभावित संगिनी के साथ बस का इंतज़ार कर सकते हैं. दिल्ली में जिस बस का इंतज़ार करो, बस, वो ही बस नहीं आती, इसलिए किस्मत अच्छी हुई तो बस देर से ही आएगी.
बाकी के लिए महाभारत पढ़िए भाई, हर धर्म संकट में हम थोड़ी ना काम आयेंगे!

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