Monday 18 April 2016


gurukul-01भारत में गणित व विज्ञान की प्राचीन परंपरा  

गणित समूचे विज्ञान का मूल आधार, गणित का जन्म और विकास भारत में। अंकों की शक्ति और शून्य का विकास भी भारत में
हृदयनारायण दीक्षित।
प्रकृति में कार्य और कारण की श्रंखला है इसीलिए वह विज्ञान प्रकृति का अध्ययन है।  कार्य के आधार पर कारण का शोध वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। प्रकृति के असीम कार्य-व्यापार के लिए किसी अदृश्य सत्ता को जिम्मेदार मानना विज्ञान का भाग नहीं है। ऐसी अदृश्य सत्ता या परमात्मा को भी जांच और विश्लेषण के दायरे में लेना वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही होगा। दर्शन और विज्ञान अनुभव और प्रयोग की जमीन पर विकसित होते हैं। अनुभव व्यक्तिगत भी होते हैं, उन्हें सार्वजनिक प्रयोगों द्वारा दोहराना विज्ञान कहा जाएगा। सभी अनुभव दोहराए नहीं जा सकते। सार्वजनिक रूप में प्रयोगों द्वारा दोहराए न जा सकने वाले व्यक्तिगत अनुभव विज्ञान का भाग नहीं हो सकते। भारतीय चिन्तन में प्रकृति के 5 तत्व जाने गए थे। प्राचीन यूनानी दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु 5 तत्व ही थे। वे आकाश को शून्य मानते थे। पाइथागोरस के चिंतन में आकाश नथिंग के साथ समथिंग भी था। पाइथागोरस के समर्थक चिंतक शून्य का अस्तित्व मानते थे। उनके अनुसार शून्य ही सभी पदार्थो को एक दूसरे से अलग करता है। इस तरह शून्य के अस्तित्व को मानने से आकाश तत्व का स्वीकार माना जा सकता है। वैदिक चिन्तन में आकाश का अस्तित्व है। यहां आकाश भी निर्गुण नहीं बल्कि सगुण सत्ता है। आकाश का गुण शब्द या ध्वनि है। ऋग्वेद के ऋषियों ने मंत्रों का निवास परमव्योम में बताया है।
the earth-01विज्ञान और दर्शन की शुरूआत भारतभूमि में ही हुई थी। कार्लमाक्र्स ने भारत को “अपनी भाषाओं और पंथो- निजीजन्स का स्रोत- दि सोर्सेज ऑफ आवर लैंगुएज, आवर रिजलीजन्स’ लिखा 1/418531/2 था। यहां ‘आवर’ शब्द ध्यान देने योग्य है। मार्क्स अपने भूक्षेत्र की बात ही बता रहे थे। यूरोपीय दृष्टि के इतिहास विभाजन के नियम भारत पर लागू नहीं होते। वे यूरोपीय क्षेत्र के मध्यकाल जैसा अज्ञान अंधकार भारत में भी लागू करते हैं। यूरोप के विशाल भूखण्ड में जब मध्यकालीन अंधकार था तब भारत में भक्तिदर्शन की अनुगूंज थी। इसके बहुत पहले उपनिषद् गाए जा चुके थे, वैदिक दर्शन संपूर्ण ब्रह्माण्ड का केन्द्र जांच रहा था– पृच्छामि त्वां भुवनस्य नाभिः। वैदिक समाज का दृष्टिकोण वैज्ञानिक जिज्ञासा से समृद्ध था। वेदों में विज्ञान के अनेक सूत्र मंत्र हैं। वेद ज्ञान की दृष्टि वैज्ञानिक है। लेकिन कुछ यूरोपीय विद्वानों द्वारा इन्हें अंधविश्वासी धर्मग्रंथ बताया गया था। उन्होंने वेदों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण की उपेक्षा की। लेकिन धीरे-धीरे ऐसे षड़यंत्रों की परतें खुल रही हैं। अब ऋग्वेद को दुनिया के सबसे प्राचीन ज्ञान के रूप में स्वीकारा जा चुका है। ऋग्वेद में योग की चर्चा है। योग को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिल चुकी है। योग का उद्भव वैदिक काल के भी पहले हुआ था।
गणित समूचे विज्ञान का मूल आधार है। गणित का जन्म और विकास भारत में हुआ। अंकों की शक्ति और शून्य का विकास भी भारत में हुआ था। यूनेस्को के अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय पर शून्य की व्यापक चर्चा हाल में हुई है। शून्य की शक्ति भारतीय मेधा का चमत्कार है। मार्क्सवादी चिन्तक डॉ रामविलास शर्मा ने लिखा है, “विज्ञान के विकास के लिए गणित का महत्व सर्वमान्य है। भारत में गणित का विकास विद्वानों की विश्लेषक प्रतिभा का उत्कृष्ट प्रमाण है। दशमलव पद्धति विश्व संस्कृति को भारत की देन है। इससे सम्बद्ध शून्य का आविष्कार, स्थान के अनुसार शून्य के प्रयोग द्वारा अंक की मूल्य वृद्धि भी भारतीय प्रतिभा का चमत्कार ऋग्वेद में ढेर सारे संख्यावाची मंत्र हैं। कुछेक विद्वान ऋग्वेद के संख्यावाची शब्दों पर गौर नहीं करते। ऋग्वैदिक काल के पूर्वजों ने अनेक अवसरों पर 10 या 10 के गुणांक शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया है। सबसे मजेदार है पुरूष सूक्त का पुरूष। यह “सहस्त्र 1/4हजार1/2 सिर, सहस्त्र पैर, सहस्त्र आखों वाला है और 10 अंगुल में संसार को आवृत्त करता है।” जान पड़ता है कि ऋषियों को 10 की संख्या अतिप्रिय है। सोम वैदिक ऋषियों का प्रिय पेय है। कहते हैं “सोम पीसने के लिए 10 अंगुलियों से सिलबट्टा पकड़ते हैं।” एक ऋषि कहते हैं कि हम सोमरस के 10 पात्र तैयार करते हैं।
दिशाएं पहले चार रही होंगी। इसीलिए आज भी चतुर व्यक्ति के लिए कहते हैं कि वह चारों ओर देखता है। ऋग्वेद में शांति की प्रार्थना है कि “सूर्य, जल आदि शांति दें, चारों दिशाएं भी शांति दें।” अग्निदेव को चार आंखों वाला कहा गया है। बाद में 10 का चलन बढ़ा। दस के प्रेम में दिशाएं भी 10 कही गईं। एक मंत्र में ‘वे अश्वरूप दस दिशाएं संसार को घेरती हैं। शून्य का स्थानगत महत्व है। संख्या 1 के बाद आया शून्य 10 की शक्ति देता है। दस के बाद आया शून्य 100 हो जाता है। ऋषि 100 शरद जीने के इच्छुक हैं। जीवेम शरदं शतम्। 10, 100 या 1000 आदि के बोध वाले तमाम मंत्र हैं। तो क्या ऋषि अन्य संख्याओं से कम परिचित थे?
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दिशाएं पहले चार रही होंगी। इसीलिए आज भी चतुर व्यक्ति के लिए कहते हैं कि वह चारों ओर देखता है। ऋग्वेद में शांति की प्रार्थना है कि “सूर्य, जल आदि शांति दें, चारों दिशाएं भी शांति दें।” अग्निदेव को चार आंखों वाला कहा गया है। बाद में 10 का चलन बढ़ा। दस के प्रेम में दिशाएं भी 10 कही गईं। एक मंत्र में ‘वे अश्वरूप दस दिशाएं संसार को घेरती हैं। शून्य का स्थानगत महत्व है। संख्या 1 के बाद आया शून्य 10 की शक्ति देता है। दस के बाद आया शून्य 100 हो जाता है। ऋषि 100 शरद जीने के इच्छुक हैं। जीवेम शरदं शतम्। 10, 100 या 1000 आदि के बोध वाले तमाम मंत्र हैं। तो क्या ऋषि अन्य संख्याओं से कम परिचित थे?
ऋग्वेद के पहले मण्डल 1⁄41­164­481⁄2 में कालचक्र है। इस चक्र में 360 खूटियां हैं। ये 360 खूटियां एक वर्ष के दिन हैं। स्पष्ट है कि ऋग्वेद का समाज संख्याबोध से लैस था। संख्या में हरेक अंक का स्थानगत महत्व है। हम कोई भी संख्या ले सकते हैं जैसे 9999- नौ हजार नौ सौ निन्यानबे। पहला 9 बाद के तीन 9 के कारण ही हजार हुआ है। अंतिम 9 ने पहले 9 की शक्ति बढ़ाई है। उसे हटा दें तो पहला 9 केवल 900 की ही शक्ति का बचेगा। 9999 में हरेक संख्या की अकेली शक्ति 9 है। स्थानगत महत्व के कारण सबकी शक्ति भिन्न-भिन्न हो गई है। आधुनिक गणित अतिविकसित हो चुकी है। हम गणित के जन्म और विकास के पहले की स्थिति पर ध्यान नहीं देते। अंको की अपनी शक्ति है। शून्य की अकेली कोई शक्ति नहीं। लेकिन यही शून्य किसी भी संख्या के बाद आकर उसे 10 गुना कर देता है। 10 गुना ही क्यों? इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं मिलता। कल्पना ही की जा सकती है। मनुष्य के कर्म का आधार हाथ है। हाथ ही भाग्य के निर्माता हैं। यह स्थापना भी ऋग्वेद में है -अयं में हस्तो भगवानः। हमारे हाथ भाग्य हैं, भगवान है। दोनो हांथो में 10 अंगुलिया हैं। ये कर्म श्रम का आधार हैं। एक के बाद शून्य लगाकर सीधे 10 पर पहुंचने का कोई कारण तो होगा।
भारतीय चिन्तन दर्शन का ब्रह्म अणु से छोटा है और विराट से भी बड़ा। वह संपूर्ण है, शून्य भी है। वह सत् है, असत् भी है। गणित का आविष्कार भारत की दार्शनिक मेधा का ही चमत्कार है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका 1/4खण्ड 11/2 में सूचना है “शून्य के अंक का आविष्कार संभवतः हिन्दुओं ने किया था। 1 से 10 तक अंकों के प्रतीक अधिकतर भारत में उत्पन्न हुए और अरबों ने उनका व्यापक प्रयोग किया – उन्हें हिन्दू अरबी अंक कहा जाता है।” आधुनिक विश्व के पास अनेक महत्वपूर्ण प्रयोगशालाएं हैं और हजारों उपकरण। भारतीय अंक विद्या के उदय के समय सारी दुनिया में पंथिक आस्थाओं का अंधकार था। कार्य कारण आधारित प्रकृति के नियमों पर तर्क की भी अनुमति नहीं थी। उसके भी बहुत पहले भारत के विद्वान नदियों के तट पर गहन वन प्रान्तर में तमाम वैज्ञानिक शोध कार्य में संलग्न थे। क्या हम उनके प्रति गौरवबोध में हो सकते हैं? क्या हम उनसे प्रेरित हो सकते हैं? क्या हम विश्व के समक्ष उस समय किया गया कार्य पूरे स्वाभिमान के साथ रख सकते हैं? यूनेस्को में ऐसा ही किया जा रहा है। भारत की प्रतिष्ठा में वृद्धि राष्ट्रीय आनंद का ही विषय है।

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