रानी तपस्विनी अर्थात ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेजका संयोग
मार्च 12, 2014 Comments Offसारिणी
- १. ‘१८५७ के स्वतंत्रता संग्राममें रानी तपस्विनीका विशेष कार्य
- २. अंग्रेजोंके विरोधमें छुपकर लडीं
- ३. अंग्रेजोंके विरोधमें विद्रोह करने हेतु सेनाका प्रबोधन
- ४. विद्रोहका गुप्त कार्य
- ५. वृद्धावस्थामें थकान आनेपर भी बंगालके विभाजन हेतु किए जानेवाले आंदोलनमें रानी तपस्विनीका सहभाग
१. ‘१८५७ के स्वतंत्रता संग्राममें रानी तपस्विनीका विशेष कार्य
रानी तपस्विनी अर्थात झांसीकी रानी लक्ष्मीबाईकी भानजी एवं झांसीके सरदार नारायणरावकी कन्या बाल्यावस्थामें ही वह विधवा हो गई । उनका वास्तविक नाम सुनंदा था । इस विरक्त बालविधवाकी दिनचर्या पूजापाठ, धार्मिक ग्रंथोंका वाचन, देवीकी उपासना इस प्रकारकी थी । जैसे वह संन्यासिनी ही बनी थीं । ऐहिक जीवनमें उन्हें रुचि नहीं थी, तो भी उनकी धार्मिक वृत्ति और विरक्तिके कारण वह प्रजाके आधारका प्रमुख स्रोत बन गयी थीं । गौर वर्णकी, तेजस्वी मुखवाली वे शक्तिकी उपासक ही थीं । वे निरंतर चंडीमाताका नामजप करती रहती थीं । साहस तथा धैर्य वे इन गुणोंकी साक्षात प्रतिमूर्ति थीं । रानी लक्ष्मीबाईके अनुसार ही वे घुडसवारी, अस्त्रशस्त्र चलानेका अभ्यास कर रही थीं । निराशा शब्दके लिए उनके जीवनमें कोई स्थान ही नहीं था । पिताजीकी मृत्युके पश्चात वे उनकी जागीरका (संपत्तिका) कार्यभार उत्तम प्रकारसे संभालने लगीं । उन्होंने पिताजीके दुर्गको दुरुस्त कर दृढ बनाया । नए सैनिकोंकी नियुक्ति की एवं उन्हें सैनिक शिक्षण देना आरंभ किया ।
२. अंग्रेजोंके विरोधमें छुपकर लडीं
अंग्रेजोंके प्रति उनके मनमें अत्यंत तीव्र घृणा थी । इसे कई बार वे अपने वक्तव्यद्वारा प्रकट भी करती थीं । अंग्रेजोंको उनके कार्यकी सूचना मिली थी; अतः उन्होंने उनसे पूछताछ किए बिना नजरबंदीमें रखा । उसकी संन्यासी वृत्ति देखकर अंग्रेज अधिकारियोंको लगा कि यह स्त्री अपने लिए धोकादायक नहीं है; अतएव उन्होंने उसे नजरबंदीसे मुक्त किया । उसके पश्चात नैमिषारण्यमें रहकर वे चंडीमाताकी उपासना एवं साधना करने लगीं । अंग्रेजोंको यह लगा कि वह तो संन्यासिनी ही हो गई हैं; इसलिए वे उनके प्रति निश्चिंत हो गए । नैमिषारण्यमें लोग निरंतर उनके दर्शन करने हेतु जाते थे । वह उन लोगोंको उपदेश देती थीं और चंडीमाताकी उपासना करनेका सुझाव देती थीं । उस समयसे लोग उन्हें ‘माता तपस्विनी’ कहने लगे ।
३. अंग्रेजोंके विरुद्ध विद्रोह करने हेतु सेनाका प्रबोधन करना
रानी तपस्विनीके नैमिषारण्यके आश्रममें आशीर्वाद हेतु निरंतर लोगोंका आना-जाना रहता था । वे उन्हें उपदेश देती थीं । विश्वसनीय भक्तोंको और अंग्रेजोंकी छावनीमें रहनेवाले अपने देशके सैनिकोंको उन्होंने अंग्रेज शासनके विरुद्ध विद्रोह करनेके लिए प्रवृत्त किया । १८५७ के आरंभसे ‘साधु और संन्यासी’ छावनियोंके चक्कर काटने लगे । वे सैनिकोंको बताने लगे, ‘अंग्रेज लोग तुम्हें तुच्छ समझते हैं । ‘काला निगर’ कहकर तुम्हारा अनादर करते हैं । लुटेरे अंग्रेजोंने अपने देशको कंगाल बनाया । वे आपको अल्प और केवल गोरे सैनिकोंको अधिक वेतन देते हैं । तुम्हें और गोरे सैनिकोंको देशकी आयमेंसे ही वेतन दिया जाता है । उनकी आज्ञाके कारण ही तुमने अपने ही राज्यको डुबोनेके लिए उनकी सहायता की है । यह बात तुम्हारे ध्यानमें क्यों नहीं आती ? छावनीके अपने अधिकांश सैनिक विद्रोह करनेके लिए सिद्ध हुए हैं । अंग्रेजोंने अपना देश हडप लिया है । वे अब अपना धर्म डुबोकर हमें ईसाई बनानेके कार्यमें लगे हैं । क्या तुम्हें ईसाई होना पंसद है ? इसलिए सजग रहें । विद्रोह करनेके लिए सिद्ध रहें ।’ अर्थात रानी तपस्विनीने ही इन साधु-संन्यासियोंको यह सब सिखाया था ।
४. विद्रोहका गुप्त कार्य
१८५७ का स्वतंत्रता युद्ध आंरभ होनेसे पूर्व नानासाहेब, बाळासाहेब, तात्या टोपे और अजीमुल्ला खां, रानी तपस्विनीके दर्शनके लिए आए थे । उनके साथ विद्रोहकी चर्चा हुई । अजीमुल्ला खांने साधु सन्यासियोंके माध्यमसे हर छावनीमें विद्रोहके निशान अर्थात लाल कमल भेजनेके लिए सूचित किया । कोई महान आपत्ति आनेवाली है, सेना आनेवाली है, लडाई होनेवाली है, इसकी सूचना गांवगांवमें पहुंचाने हेतु गांवगांवमें रोटियां भेजनेकी प्रथा पहलेसे ही चल रही है । रोटियां भेजकर जनताको विद्रोहके लिए सिद्ध रहनेका संदेश भेजनेका निश्चित हुआ । उसके अनुसार साधु, संन्यासी गांवगांवमें चक्कर काटने लगे । यह कार्य इतनी गुप्त पद्धतिसे चल रहा था कि एक भी अंग्रेज अधिकारीके मनमें इस बातकी आशंका नहीं हुई ।
निश्चित दिनांकसे पूर्व ही विद्रोह हुआ । रानी तपस्विनीके प्रभावके कारण गांवगांवके लोग विद्रोहमें सहभागी हुए । अंग्रेजोंके आधुनिक अस्त्रशस्त्रोंके कारण और देशका कोष (खजाना) भी उनके ही अधिकारमें होनेके कारण उन्होंने यह विद्रोह जोर पकडने नहीं दिया और जनताको अपनी क्रूरताका प्रदर्शन दिखाकर उनमें आतंक फैलाया । रानी तेजस्विनीके ध्यानमें आया था कि अंग्रेजोंके साथ युद्ध करनेसे कोई भी लाभ नहीं होगा । अपने देशके राजा-महाराजा अंग्रेजोंके सामने विवश होकर एवं द्रव्यलोलुपताके कारण विश्वासघात कर रहे हैं; इसलिए युद्ध कर यश प्राप्त करना कठिन है । वह नानासाहबके साथ नेपाल गई । नेपालके राजा जंगबहादुर अंग्रेजोंका मित्र थे । नेपालमें भी प्रवचनद्वारा उन्होंने स्वतंत्रताका महत्त्व समझा दिया । उस विवश राजाके राज्यमें रहना उन्हें अच्छा नहीं लगा । वहांसे वह दरभंगा और कोलकाताकी ओर गर्इं ।
५. वृद्धावस्थाके कारण थकान आनेपर भी बंगालके
विभाजन हेतु किए जानेवाले आंदोलनमें रानी तपस्विनीका सहभाग
रानीने कोलकातामें ‘महाभक्ति पाठशाला’ आरंभ की । लोकमान्य तिलकने वहां रानी तपस्विनीसे भेंट की । ‘केसरी’के उपसंपादक खाडिलकर भी उनके साथ थे । नेपालमें अस्त्र शस्त्रोंका कारखाना गुप्त रीतिसे आरंभ करनेका आयोजन खाडिलकरका था । नेपालके सेनापति समशेरजंगके साथ रानीकी पहचान थी । रानीकी पहचानके कारण नेपालमें बाह्यतः टाईल्स निर्मितिका कारखाना था, परंतु वास्तवमें वहां अस्त्र शस्त्रोंकी निर्मिति होती थी । वे शस्त्र बंगालकी ओर भेजे जाते थे । विश्वासघातके कारण खाडिलकर पकडे गए । बुद्धिमानीसे उन्होंने अपना छुटकारा कर लिया और वे लौटकर महाराष्ट्र आ गए । अपने ही लोगोंकी ओरसे क्रांतिका प्रयास निष्फल किया जा रहा है, यह रानी तपस्विनीको अच्छा नहीं लगा । अपने देशको परमेश्वरका शाप ही है, यह सोचकर वह उदास हुई; तो भी रानी तपस्विनीने वृद्धावस्थाके कारण थकान आनेपर भी बंगालके विभाजन हेतु किए जानेवाले आंदोलनमें सहभाग लिया । अंतमें वर्ष १९०५ में भारतकी इस महान विदुषी एवं क्रांतिकारिनीकी मृत्यु कोलकत्तामें हुई । महाराष्ट्रकी इस महान कन्याको महाराष्ट्र ही विस्मरण कर जाए, इस बातका अत्यंत खेद होता है । उनके जीवनके विषयमें संशोधन करनेकी आवश्यकता है ।’
(संदर्भ : महान भारतीय क्रांतिकारी, प्रथम पर्व १७७० से १९००, लेखक : श्री. स.ध. झांबरे, (महाराष्ट्र राज्य साहित्य एवं संस्कृति मंडल, मुंबई)) (समाचारपत्रिका सनातन प्रभात, ज्येष्ठ अमावास्या, कलियुग वर्ष ५११२ (११.७.२०१०))
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