पराक्रमी, धैर्यशील ‘स्वतंत्रता प्रेमी वीरांगना अवंतिबाई लोधी’
१. ‘स्वतंत्रता प्रेमी वीरांगना अवंतिबाई लोधीका जन्म एवं बचपन
अवंतिबाई लोधी एक पराक्रमी, धैर्यशील एवं प्रत्युत्पन्नमति स्त्री थीं । मध्यप्रदेशके सिवनी नामक जनपदमें राव जुंझारुसिंहके राजमहलमें १६ अगस्त १८३१ के दिन अवंतिबाईका जन्म हुआ । उनका नाम मोहिनी रखा गया था । बचपनसे ही अश्वसंचालन, खड्गसंचालन, तीरंदाजी (धनुर्विद्या), सैनिक शिक्षण इत्यादि वीरता हेतु आवश्यक सभी विद्याओंमें उन्हें अत्यंत रुचि थी ।
२. शौर्यकी प्रतिमा रानी अवंतिबाईद्वारा राज्यकी धुरी संभालते
हुए अपने साहस, धैर्य एवं समाहितत्व जैसी सुयोग्यताका परिचय कर देना
१७ वें वर्षमें मोहिनीका विवाह रायगढके महाराजा लक्ष्मणसिंहके सुपुत्र कुंवर विक्रमादित्यके साथ हुआ । विवाहके पश्चात उनका नाम अवंति रखा गया । महाराजा लक्ष्मणसिंहकी मृत्युके पश्चात विक्रमादित्य रायगढके राजा बने । विक्रमादित्य ईश्वरभक्त, धार्मिक प्रवृत्तिके एवं वेदपठन करनेवाले थे । आगे अवंतिबाईने अमानसिंह और शेरसिंह नामक दो सुंदर एवं मनमोहक पुत्रोंको जन्म दिया । कुछ वर्षके उपरांत राजा विक्रमादित्य अस्वस्थ रहने लगे और उसीमें उनका मानसिक संतुलन भी बिगड गया । ऐसी परिस्थितिमें शौर्यमूर्ति रानी अवंतिबाईने राज्यकी धुरी संभालते हुए अपने साहस, धैर्य एवं समाहितत्व जैसी सुयोग्यताका परिचय दिया ।
३. प्रतिकूल कालमें भी अपने गुणोंके कारण
रानी अवंतिबाईने सफलता पाकर परिस्थितिको मात किया
१८५१ को अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनीने राजा विक्रमादित्यसिंहको पागल घोषित कर, वहां अपना एक सेनादल रखकर, रायगढका राज्य अपने अधिकारमें लेनेकी इच्छा प्रदर्शित की । कंपनी सरकारका यह षडयंत्र ध्यानमें आते ही, वैसी स्थितिमें भी रानी अवंतिबाईने निर्भीकतासे, समाहितत्व रखकर अपने शारीरिक एवं मानसिक रुग्णाईत पति एवं अल्पवयीन उत्तराधिकारी पुत्रोंकी सहायता ली । रायगढ शासनकी धुरी सुयोग्य एवं व्यवस्थित रूपसे संभालनेका प्रयास किया और बडी कुशलताके साथ शासनका कार्यभार संभालकर राज्य अधिकारमें लेनेके अंग्रेज शासनके उद्देश्यको झटका दिया ।
४. पतिकी मृत्युके पश्चात भी प्रजाका मन जीतकर
अपना राज्य अधिकसे अधिक विस्तृत करनेवाली कर्तव्यनिष्ठ स्त्री
१८५७ के मईमें राजा विक्रमादित्यकी मृत्यु हुई; किंतु पतिकी मृत्युके पश्चात भी दुःखसे विचलित होनेकी अपेक्षा रानीने धैर्यसे पूरे राज्यमें भ्रमण किया । जनताके सुखदुःखमें सहभागी होकर प्रजाका मन जीतकर उन्होंने रायगढका अपना राज्य अधिकसे अधिक विस्तृत किया । उसके राज्यका क्षेत्रफल ४००० वर्गमीटर इतना था । उसमें मंडला, हिंडोर, सोहागपुर, अमरकंटक इत्यादि जनपद एवं अन्य भूभाग अंतर्भूत थे ।
भविष्यमें नानासाहेब पेशवाके नेतृत्वतले छेडे गए स्वतंत्रता संग्राममें जिस धैर्य एवं चतुराई जैसे गुणोंद्वारा अपना विस्तृत राज्य कंपनी सरकारके हाथोंसे बचाकर एवं संभालकर कैसे रख सकते हैं, इसके विषयमें उनके गुणोंकी स्तुति करते हुए अंग्रेज सेनापति (कप्तान) वाडिंग्टन कहता है, ‘१८५७ के स्वतंत्रता संग्राममें रायगढके राज्यकी सुरक्षा इतनी सुचारु रूपसे रखी थी कि लंबी अवधितक उसके आसपास सेनाका घेरा डालकर भी हमें उसे जीतना असंभव हुआ था ।’
५. अपने अनुसार आसपासके जागीरदार एवं
देशी नरेशोंको सजग कर प्रेरित करनेवाली धैर्यवान रानी
रानी अवंतिबाईको यह ज्ञात था कि आज नहीं तो कल यह अंग्रेज सरकार अपने ही समाजके देशद्रोही दगाबाजोंकी सहायता लेकर हमें जीविकाकी खोजमें दरदर भिक्षा मांगनेके लिए विवश करेगी अथवा हमारे प्राण लेकर हमारा राज्य अपने अधिकारमें लेगी । ऐसा नहीं हो, अतएव कार्यरत रहना चाहिए, यह जानकर उन्होंने अपने आसपासकी राजभूमि अधिकारियोंको (जागीरदारोंको), छोटे-मोटे राजाओंको अपने हाथोंसे पत्र एवं कंगन भेजकर स्वतंत्रताके लिए सजग रहनेका संदेश दिया । इसके पीछे यह उद्देश्य था कि स्वतंत्रता चिरंतन रहे, ऐसी जिनकी इच्छा नहीं है, वे हाथोंमें यह कंगन पहनकर अंग्रेज सरकारकी दासता स्वीकार करें !
६. रानी अवंतिबाईद्वारा समर्थनीय रूपसे क्रांतिका
नेतृत्त्व स्वीकार कर अपने गुणोंके कारण लोकप्रियता प्राप्त करना
नियोजनके अनुसार अंग्रेजोंके विरोधमें स्वतंत्रता संग्राम आरंभ किया गया और वह सफल भी हुआ था; परंतु ‘कुल्हाडीका दस्ता अपने गोतका नाश करता है’ नामक कहावतके अनुसार कुछ शिंदे, होलकर जैसे भारतीय संस्थानोंके अधिपति अंग्रेजोंमें जुड गए, वैसे सफलता प्राप्त करनेवाले इस स्वतंत्रता संग्राममें रुकावट आने लगी । यशके कारण अंग्रेजोंका पल्ला भारी हुआ; किंतु रानी अवंतिबाई हतोत्साहित नहीं हुर्इं । उन्होंने अपने राज्यमेंसे अंग्रेजोंद्वारा नियुक्त ‘कोर्ट ऑफ वार्डस्’के अधिकारियोंको बाहर निकाल दिया और अपने राज्यकी सुरक्षाका उत्तरदायित्व स्वयंके ऊपर लेकर क्रांतिका भी नेतृत्व स्वीकार किया । भारतमाताकी स्वतंत्रताके लिए आसपासके सभी क्षेत्रोंमें रहनेवाली जनताको प्रेरित किया । उन्होंने अपने प्राणोंकी भी चिंता नहीं की । उनकी लोकप्रियता इतनी बढने लगी कि उनकी सुरक्षाके लिए स्वयंके प्राणोंकी आहुति देनेके लिए भी लोग तैयार थे ।
७. अपनी तलवारद्वारा शौर्यकी पराकाष्ठा करनेवाली रानीपर
उनकी ही सेनाके एक धोखेबाजने पीछेसे तलवारका वार कर उन्हें यमपुरी पहुंचाया
उस समय उस क्षेत्रका नेतृत्व जबलपुरकी ५२ वीं पलटनके अधिकारी कैप्टेन वाडिंग्टनके हाथोंमें था । अंग्रेज सेना और स्वतंत्रता प्रिय क्रांतिकारियोंके मध्य मंडला नामक क्षेत्रके पास खैरी गांवके निकट बेधुंद युद्ध आरंभ हुआ । रानी अवंतिबाईकी क्रांतिकारी सेनाके आवेशके सामने अंग्रेज परास्त हुए । वाडिंग्टन २३ नवंबर १८५७ को रणक्षेत्र छोडकर लौट गया; परंतु वह दिवा नरेशकी सहायता एवं प्रचुर सेना लेकर लौट आया । रानीपर उसने आक्रमण किया । घनघोर युद्ध हुआ । शत्रुको परास्त करने हेतु तोपखाना बिखर गया, बंदूकें निस्तेज हो गर्इं और तलवारें दमकने लगी । रानी अवंतिबाई तलवारके साथ वाडिंग्टनपर टूट पडीं; परंतु उनकी ही सेनाके एक धोखेबाजने उनपर पीछेसे तलवारका वार किया । स्वतंत्रता प्राप्तिके लिए स्वकर्तव्य निभाते हुए उन्हें रणांगणमें ही यमपुरी भेजा गया । ऐसेही धोखेबाजोंके कारण इस देशकी स्वतंत्रता मिट्टीमें मिली है, यह बात कभी भी भूलना असंभव है । भारतीय शौर्यसे भरा इतिहास ऐसे ही देशद्रोही धोखेबाजोंके कारण अधूरा रहा, तो देशप्रेमी, स्वतंत्रतावीर, क्रांतिवीर एवं क्रांतिदेवी अवंतिबाई जैसी नारियोंने वह ‘यावश्चंद्र दिवाकरौ’ प्रकाशमान किया ।’
– श्री वसंत अण्णाजी वैद्य, नागपुर (संदर्भ : मासिक ललना, अगस्त २०१०)
– श्री वसंत अण्णाजी वैद्य, नागपुर (संदर्भ : मासिक ललना, अगस्त २०१०)
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