Mohan Bhagwat ji
"ईश्वर ही किसी भी कर्म का प्रयोजन है और ईश्वर ही किसी भी कर्ता का प्रेरक भी , व्यक्ति केवल निमित मात्र होता है ; जिन्हें न तो ईश्वर का ज्ञान हो और न ही स्वयं का बोध वही मिथ्याभिमान से ग्रसित होते हैं जो अंततः उनके अंत का कारन बनता है।
हमारे जीवन की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए हमें हमारे अस्तित्व के प्रभाव से उसके उत्पत्ति के कारन तक पहुंचना होगा पर यह तभी संभव है जब हम अपनी वास्तविकता को स्पष्ट रूप से पहचानें एवं स्वीकार करें ; जब तक हमारा परिचय भौतिकवाद पर आधारित होगा स्वाभाविक है की हम स्वयं को नश्वर रूप में ही जानेंगे।
जो अपने सीमित दृष्टि से समस्याओं एवं उनके सन्दर्भ को देखते हैं उन्हें लगता है की वर्त्तमान की समस्त समस्याओं का आध्यात्मिकता से कोई सम्बन्ध ही नहीं और न ही उनका समाधान उससे संभव है पर जब तक हम परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न समस्याओं के प्रभाव से विचलित होकर प्रतिक्रिया करते रहेंगे हमारे लिए समस्याओं के मूल तत्व तक पहुँच पाना संभव ही नहीं।
केवल समस्याएं ही नहीं बल्कि समाधान भी एक दुसरे से परस्पर-निर्भर व् आश्रित हैं, ऐसे में, अगर व्यक्ति की सोच ही वर्त्तमान के किसी भी समस्या का कारण है तो स्वाभाविक है की व्यक्ति के विवेक के विकास से ही समाधान की सम्भावना भी संभव है ; वर्त्तमान के परिदृश्य के सन्दर्भ में जीवन के लिए आध्यात्मिकता का यही महत्व है।
विज्ञानं भी मानता है की पहले मनुष्यों के पास भी बंदरों की ही तरह पूछ होती थी. पर प्रकृति द्वारा प्रदत्त जिन अंगों का प्रयोग मनुष्य के लिए आवश्यक न रहा और मनुष्यों ने उसका प्रयोग बंद कर दिया उसे प्रकृति ने वापस ले लिया। हमारे शरीर में ऐसे कई अंग है जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। एक शोध के अनुसार गत २०,००० वर्षों के मानवीय उत्क्रांति की प्रक्रिया के अध्यन में विज्ञानं ने पाया है की मानवीय मस्तिष का आकार भी छोटा हो गया है ; क्या यह पर्याप्त प्रमाण नहीं की हम धीरे धीरे मनुष्य से मशीन बनते जा रहे हैं ?
जीवन निश्चित रूप से अनिश्चित है और मृत्यु अनिश्चित पर निश्चित, ऐसे में, जीवन के लिए महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए ? निश्चित मृत्यु की संतुष्टि या फिर अनिश्चित जीवन के सुख, सुविधा व् संसाधन ? निर्णय के सही होने के लिए निर्णय के आधार का सही होना आवश्यक है और यह तभी संभव है जब हम अपनी वास्तविकता को पहचाने जो आध्यात्म से ही संभव है ;
सफल जीवन हो सकता है की सुखमय हो पर जीवन की सफलता कई कारकों पर आश्रित होती है पर संतुष्ट जीवन और उसकी तृप्ति के लिए संसाधन नहीं बल्कि प्रयोग के माध्यम से जीवन की उपयोगिता निर्णायक होती है ;
आवश्यकता है हमें भौतिकवाद से ऊपर उठकर संवेदनशील बनने की ताकि हम समस्याओं को महसूस कर सकें और समाधान सोच सकें, यही जीवन के उत्क्रांति की आदर्श प्रक्रिया है; और यही समझदारी भी होगी। "
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