Thursday 15 October 2015

ये  दोगले लेखक  एवार्ड लौटकर सुर्खियों में आना चाहते है 
..इन दोगलो की आत्मा और जमीर तब क्यों नही जागी जब केरल में एक प्रोफेसर का दोनों हाथ मुस्लिमो ने काट डाला था ...तब इन का जमीर क्यों नही जागा था जब दिल्ली में बीस हजार सिखों का कत्लेआम हुआ था ?
 जब उत्तराखंड राज्य की मांग करने वाली महिलाये जब रैली लेकर लखनऊ जा रही थी तब रामपुर तिराहे पर चालीस महिलाओ के साथ पुलिसवालो ने सामूहिक बलात्कार किया था और आठ लोगो को गोलियों से भुन डाला था ..
इन  का जमीर तब क्यों नही जागा जब जयपुर लिटरेचर फेस्ट में सेटेनिक वर्सेज के चंद वाक्यों को बोलने के कारण आठ साहित्कारो की मुस्लिमो ने पिटाई की थी ...
 जमीर तब कहाँ था जब बम्पर बहुमत के दम पर राजीव गाँधी ने शाहबानो केस में सुप्रीमकोर्ट के फैसले को बदल दिया .. उस केस में बहस के लिए लगातार पांच दिनों तक रातदिन लगातार संसद चलकर एक विश्व रिकार्ड बनाया था ..
इन दोगलो का जमीर तब कहाँ था जब रजा अकेडमी के द्वारा मुंबई में एक लाख मुस्लिमो को बुलाकर दंगाइयों ने नंगा नाच किया था .. शहीद स्मारक तक को तोड़ दिया था और सैकड़ो गाडियों को फूंक दिया था ...
असल में ये साहित्कार नही बल्कि वामपंथी  है जिन्हें कांग्रेस ने हिंदुत्व के खिलाफ लिखने के लिए पुरस्कार नही बल्कि ईनाम दिया था ..ये पुरस्कार इनको दलाली करने के लिए ही मिले थे।
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विश्व के चालीस देशो में सरकार द्वारा प्रदत्त सम्मान, एवार्ड लौटना राजद्रोह माना जाता है ..सऊदी अरब, ईरान, में मौत की सजा दी जाती है .. और कुछ देशो में आठ साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा दी जाती है ..
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अकादेमी अध्यक्ष की गुगली- ...
 देश के सारे टूटपूंजिये और पाकिस्तान व मुसलमान परस्त साहित्यकार साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटा रहे हैं वहीँ दूसरी तरह कुछ ऐसे साहित्यकार भी हैं जो इन ढकोसले बाजों से जम कर मोर्चा ले रहे हैं। 
इसी मुद्दे पर पढ़िए  'दैनिक हिन्दुस्तान' में सुधीश पचौरी जी का धारदार व्यंग्य.
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मैं अकादमी के अध्यक्ष जी की प्रतिभा का अब जाकर कायल हुआ हूं- उन्होंने अकादमी के पक्ष में अंगद की तरह पांव जमा दिए हैं। कह दिया है कि अकादमी के नाम पर लेखकों को विरोध की अवसरवादी कबड्डी नहीं खेलने दूंगा। कैसे दिन आ गए कि अकादमी छाप लेखक ही अकादमी का दुश्मन हुआ जा रहा है।... उनको इनाम दिए, उनके चमचों को इनाम दिए,.. इतनी कमेटियों में रखा, अखिल भारतीय बनवाकर अंतरराष्ट्रीय बनवाया, वही आज आंखें दिखा रहे हैं। लेखक 'एहसान फरामोश' प्राणी है। उसके लिए अकादमी प्राप्त करना एक अवसर है, लौटाना उससे भी बड़ा अवसर। पहले अकादमी लो, नाम कमाओ, फिर 3-10 साल बाद उसे लौटाओ और हीरो बन जाओ। 
हे पाठक..! जिसने कल तक अकादमी में हजार पैरवी करके सम्मान लिया, वही वीरता का पुंज बना अकादमी को ललकार रहा है कि ले, मैं तेरा दिया हुआ सम्मान तुझे लौटाता हूं।
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इस प्वॉइंट पर अध्यक्ष जी ने अपनी पोजीशन जिस तरह से साफ की है, मैं उसका मुरीद हो गया हूं। उनकी गुगली देखकर 'वापसवादी लेखक' समझ नहीं पा रहे कि इसे कैसे हिट करें? पहले तो हीरोइक्स में आकर ऐलान कर दिया कि अकादमी वापस कर रहे हैं, अब परेशान हैं कि कैसे वापस करें कि झूठे साबित न हों।
 अकादमी को लात लगाते ही लेखक का करियर बन जाता है। चैनल उनको बुलाने लगते हैं, पैनलिस्ट बनाने लगते हैं। पूछने लगते हैं कि आपने क्यों लौटाया? और लेखक अपनी गरदन अकड़ाकर खराब-सी अंग्रेजी में कहने लगता है कि जनतंत्र पर खतरा है, इसलिए लौटा रहा हूं।.. जो अंग्रेजी के अखबार इनाम मिलने के वक्त एक लाइन दिए थे, वही लौटाने की खबर को आधा पेज दे रहे हैं। जो हिंदी वालों को कभी पूछते न थे, अब पूछे ही जा रहे हैं। जिसने सबसे पहले लौटाया, वह सबसे बड़ा हीरो, जो उसके बाद में आया वह नंबर दो पर अटका है। जो प्रेरित नहीं हुए, वे हीनताबोध से पीड़ित हैं।
 ऐसी लपलपाती अवसरवादी घड़ी में अध्यक्ष जी ने लेखकों का खलनायक बनना कबूल किया और अकादमी गेट पर तख्ती यह लिखकर लटका दी कि 'एक बार दिया गया सामान वापस नहीं लिया जाता।' अब लौटाने वाले परमवीर अध्यक्ष को 'अल-फल' बक रहे हैं, लेकिन मैं कहता हूं कि उनने ठीक ही लिखा है कि यहां वापसी की सुविधा नहीं है। लेकिन इससे भी आगे जो लाख रुपये की बात उनने कही, वह इस प्रकार है कि लेखक अगर वापस कर रहे हैं, तो उस कीर्ति को भी वापस करें, जो अकादमी लेने के बाद उनको मिली है।
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यही वह गुगली है, जिसके हम मुरीद हुए। अब लौटाएं लौटाने वाले। अकादमी देते वक्त एक-एक लेखक पर 20 हजार से एक लाख रुपये तक खर्च होता है। अकादमी के बाद उसकी किताब का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद होता है, जिसकी न्यूनतम कीमत प्रतिभाषा एक लाख रुपये बैठेगी। उसके बाद उसको कमेटियों में रखना, भारत भ्रमण, विदेश गमन कराने आदि पर होने वाला खर्च मिलकर प्रति लेखक कम से कम 20-30 से 50 लाख रुपये तक बैठता है। इस सबसे बनने वाली कीर्ति की कीमत अलग है। कोर्स में लगते हैं, रिसर्च की जाती है। सबका हिसाब लगाएं, तो लौटाने वाले रणबांकुरे के घर व बर्तन तक बिक जाएंगे।
 अध्यक्ष जी ने इतना ही कहा कि लौटाना ही है, तो कीर्ति के दाम समेत लौटाइए। जब से यह कहा है, लौटाने का ऐलान करने वाले सकते में हैं। अकादमी लौटाते हो, तो उससे प्राप्त कीर्ति को भी लौटाओ न।
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सेक्युलर ग्रंथि से पीड़ित असहिष्णु कलमकारों ने लौटाए पुरस्कार:
नयनतारा सहगल समेत 21 लेखकों द्वारा साहित्यिक सम्मान लौटाने की घोषणा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तीखी प्रतिक्रिया दी है।
आरएसएस ने कहा है कि हिंदू धर्म को विकृत करने और भारत को नष्ट करने के प्रयासों में सेक्युलर ग्रंथि से पीड़ित कुछ असहिष्णु कलमकारों ने अपने तमगे लौटा दिए हैं।
संघ ने कहा, 'देश में चाहे जो शासन पसंद हो, इन्हें नेहरू मॉडल से इतर कुछ स्वीकार नहीं। वहीं, नेहरू जिन्होंने 1938 में जिन्ना को लिखे पत्र में गोहत्या करना मुसलमानों का मौलिक अधिकार माना था। कांग्रेसी राज्य रहने पर गोहत्या जारी रखने का वचन दिया था। इतना ही नहीं गो हत्या जारी रखने के लिए प्रधानमंत्री पद तक छोड़ने की घोषणा की थी।'
संघ के मुखपत्र पांचजन्य के 'दिन पलटे, बात उलटी' शीर्षक के संपादकीय में कहा गया कि हिंदू धर्म को विकृत करने वाले ऐसे लेखकों को वही नेहरू मॉडल चाहिए। सिख दंगों के दोषियों के हाथों से सम्मानित होने में ये बुद्धिजीवी आहत नहीं हुए थे। अल्पसंख्यक की सेक्युलर परिभाषा सिर्फ एक वर्ग तक सिमटी है।
पांचजन्य में कहा गया है, 'कश्मीर के विस्थापित हिंदुओं के लिए इनके मुंह से एक बोल न फूटा था, क्योंकि इनके हिसाब से हिंदुओं के मानवाधिकार जैसी कोई चीज होती नहीं है। लेकिन अब राज बदला, कामकाज बदला, पूछ परख कुछ रही नहीं तो बात बर्दाश्त से बाहर हो रही है और असहिष्णु बुद्धिजीवियों ने अपनी कुनमुनाहट उजागर कर दी है।'
पांचजन्य के अनुसार, 'सहिष्णुता और हिंदू धर्म के प्रति अनुराग की नेहरूवादी टेर में विरोधाभास कितना है। जनता सच तलाशने लगी है। बौखलाहट इसलिए है क्योंकि कुर्सी जा चुकी है लेकिन कसक बाकी है।'
 दाभोलकर की जब हत्या हुई तब केंद्र और राज्य दोनों में कांग्रेस की सरकार थी,
तब कोई साहित्यकार पुरस्कार लौटाने नही आया ।।
 कलबुर्गी की भी हत्या कांग्रेस शाषित राज्य में हुई है ।।
 नयनतारा को साहित्य का पुरस्कार 1986 में मिला,
उससे दो साल पहले सिख दंगा हुआ था पर उन्होंने पुरस्कार लिया ।।

इसके बाद भागलपुर दंगे हुए ,
 कश्मीर में पंडितो का कत्लेआम हुआ ,
 93 दंगे और बम विस्फोट हुए ।।

 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में 65 आदमी औरते बच्चों को जिन्दा जला दिया गया ।।

कांग्रेसी चमचे अशोक वाजपेयी से देश जानना चाहता है कि, 3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल गैस कांड को अंजाम देकर 5000 निर्दोष नागरिकों की हत्याओं और साढ़े पांच लाख लोगों को घायल करने के जिम्मेदार एंडरसन को तब का मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जब अपनी सरकारी गाड़ी और विमान देकर भोपाल से फरार करवा रहा था तब इस कांग्रेसी चमचे अशोक वाजपेयी की आत्मा कैसा मुजरा कहां देखने में मस्त थी ...?
 यह अशोक वाजपेयी मप्र का वरिष्ठ और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का इतना चहेता, दुलारा और विश्वसनीय नौकरशाह(IAS) था कि अर्जुन सिंह ने 1982 में भोपाल स्थित सरकारी सम्पत्ति भारत-भवन को ट्रस्ट बनाकर जिन दो लोगों को उसका आजीवन ट्रस्टी बना दिया था उनमे एक नाम खुद अर्जुन सिंह का था दूसरा नाम इस कांग्रेसी चमचे अशोक वाजपेयी का था. लेकिन 1984 में भोपाल में हुए गैस कांड के सामूहिक नरसंहार के हत्यारे को अर्जुन सिंह द्वारा दिए गए आपराधिक संरक्षण, अर्जुन सिंह द्वारा उसकी आपराधिक मदद के विरोध में इस कांग्रेसी चमचे अशोक वाजपेयी ने नौकरी और भारत-भवन ट्रस्टी के मलाईदार पद से इस्तीफा देना तो दूर, बल्कि राजीव गांधी-अर्जुन सिंह की जोड़ी के उस सामूहिक कांग्रेसी कुकर्म के खिलाफ आजतक एक शब्द ना बोला है, ना लिखा है. 
1992 में देश में हुए 35 हज़ार करोड़(आज के हिसाब से 3 लाख करोड़) के शेयर घोटाले से कंगाल होकर देश भर में लगभग 1000 लोगों ने आत्महत्या कर ली थी. लेकिन उस समय भी इस कांग्रेसी चमचे अशोक वाजपेयी की आत्मा पता नहीं कैसा मुजरा कहां देखने में मस्त थी ..?
उसके बाद से देश भर में कई कत्ले आम और आतंकी घटनाए जैसे...
👉 मुम्बई लोकल में बम विस्फोट ,
👉 संकट मोचन मन्दिर पर हमला ,
👉 अक्षरधाम हमला ,
👉 जम्मू के रघुनाथ मन्दिर पर हमला ,
👉 अमरनाथ में हमला ,
👉 मुम्बई में आतंकी हमला हो चूका है
...जिसमे अधिकांस में पीड़ित हिन्दू थे ।।
तब किसी ने पुरस्कार नही लौटाया... क्या तब माहौल खराब नही हुआ था ?
असली बात ये है की ये सब साहित्यकार के भेष में छुपे कांग्रेस के चाटुकार है जिनको कांग्रेस सालो से इसीदिन के लिए पाल कर रखे हुए थे ।। आज ये लोग बस अपने नमक का फर्ज अदा कर रहे है ।।








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