Thursday, 1 February 2018

क्या आप भीलू राणा को जानते हैं?
इतिहास में उल्लेख है कि राणा पूंजा भील का जन्म मेरपुर के मुखिया दूदा होलंकी के परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम केहरी बाई था, उनके पिता का देहांत होने के पश्चात 15 वर्ष की अल्पायु में उन्हें मेरपुर का मुखिया बना दिया गया।
यह उनकी योग्यता की पहली परीक्षा थी, इस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर वे जल्दी ही ‘भोमट के राजा’ बन गए। अपनी संगठन शक्ति और जनता के प्रति प्यार-दुलार के चलते वे वीर भील नायक बन गए, उनकी ख्याति संपूर्ण मेवाड़ में फैल गई।
इस दौरान 1576 ई. में मेवाड़ में मुगलों का संकट उभरा। इस संकट के काल में महाराणा प्रताप ने भील राणा पूंजा का सहयोग मांगा। ऐसे समय में भील मां के वीर पुत्र राणा पूँजा ने मुगलों से मुकाबला करने के लिए मेवाड़ के साथ अपने दल के साथ खड़े रहने का निर्णय किया। महाराणा को वचन दिया कि राणा पूंजा और मेवाड़ के सभी भील भाई मेवाड़ की रक्षा करने को तत्पर है। इस घोषणा के लिए महाराणा ने पूंजा भील को गले लगाया और अपना भाई कहा। 1576 ई. के हल्दीघाटी युद्ध में पूँजा भील ने अपनी सारी ताकत देश की रक्षा के लिए झोंक दी।
हल्दीघाटी के युद्ध के अनिर्णित रहने में गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का ही करिश्मा था जिसे पूंजा भील के नेतृत्व में काम में लिया गया। इस युद्ध के बाद कई वर्षों तक मुगलों के आक्रमण को विफल करने में भीलों की शक्ति का अविस्मरणीय योगदान रहा है तथा उनके वंश में जन्मे वीर नायक पूंजा भील के इस युगों-युगों तक याद रखने योग्य शौर्य के संदर्भ में ही मेवाड़ के राजचिन्ह में एक ओर राजपूत तथा एक दूसरी तरफ भील प्रतीक अपनाया गया है। यही नहीं इस भील वंशज सरदार की उपलब्धियों और योगदान की प्रमाणिकता के रहने उन्हें ‘राणा’ की पदवी महाराणा द्वारा दी गई। अब हमारा राजा पूंजा भील ‘राणा पूंजा भील’ कहलाकर जाने लगे।
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साभार
DesiCNN
संथाल जनजाति बिहार, झारखंड के अलावा बंगाल में भी होती है | बीरभूम जिले के सुलंगा गाँव में इनके करीब सौ घर होंगे | छोटा सा गाँव है, संथालों की आबादी भी वही 500-700 जैसी होगी | इतने मामूली से गाँव का जिक्र क्यों ? क्योंकि बरसों पहले यहाँ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका गया था | जैसा कि बाकी भारत में हुआ था यहाँ भी विद्रोह की मुख्य वजह धार्मिक और आर्थिक ही थी |
ये वो दौर था जब बिहार और बंगाल अलग अलग सूबे नहीं थे | एक ही बंगाल हुआ करता था और लोग भाषाई आधार पर सीमायें मानते थे | 1907 के उस दौर में बिहार के एक करपा साहेब को बुला कर यहाँ का जमींदार बना दिया गया और वो लगे किसानों से लगान वसूलने | इस लगान की दो शर्ते थी, या तो सीधे तरीके से लगान दो, या इसाई हो जाओ तो लगान माफ़ किया जायेगा |
विरोध करने वालों को या तो मार दिया गया था या पकड़ कर असम में कुली बना कर भेजा गया था | इस नाजायज और जबरन वसूली ऊपर से धर्म परिवर्तन के खिलाफ मुर्मू लोग विद्रोह पर उतर आये | जैसा कि बाकी के भारत में होता है और तिलक ने भी किया था वैसे ही यहाँ भी लोगों ने एकजुट होने के लिए त्योहारों का ही सहारा लिया | दुर्गा पूजा की नवमी को बलि प्रदान के दिन जब सब इकठ्ठा होते वहीँ से विद्रोह की शुरुआत हुई थी | विद्रोह के नेता थे बोर्जो मुर्मू और उनके भाई |
दल हित चिन्तक आज महिषासुर को जब संथाल लोगों का वंशज और झारखण्ड इलाके का वासी बताने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्होंने संथाल इतिहास तो जरूर ही देखा होगा ? अब ये सवाल इसलिए है क्योंकि बोर्जो मुर्मू के भाई का नाम दुर्गा मुर्मू था | जब इतिहास में संथाल विद्रोह दर्ज किया जाता है तो दुर्गा मुर्मू और बोर्जो मुर्मू का नाम साथ ही लिया जाता है | बोर्जो मुर्मू के वंशज अभी भी इसी गाँव में होते हैं | दुर्गा पूजा अभी भी यहाँ होती है, हां संस्कृत वाले मन्त्र नहीं पढ़े जाते, स्थानीय भाषा में बदले हुए मन्त्र होते हैं | तारीख़ वही बाकी भारत की दुर्गा पूजा वाली होती है मूर्तियाँ स्थानीय रंग-ढंग की |
जांच करने के लिए जो जाना चाहेंगे वो गाँव के पुजारी रोबीन टुडू से अष्टमी को गोरा साहिब को दर्शाने के लिए सफ़ेद छागर की बलि की प्रथा जांच सकते हैं | इलाके के वाम मोर्चे के पुराने मुखिया अरुण चौधरी से भी बात कर सकते हैं, दुर्गा पूजा में कम्युनिस्ट भी शामिल होते है | क्या कहा ? रोबिन टुडू नाम क्यों है पुजारी का ? भाई वो क्रिस्चियन वाला Robin नहीं है, “रविन्द्र” का बांग्ला अपभ्रंश है रोबीन ! नहीं भाई, हर बार पुजारी ब्राह्मण हो ये भी जरूरी नहीं होता |
बाकी ऊँचे अपार्टमेंट की तेरहवीं मंजिल (जिसका नाम आपने अज्ञात कारणों से 14th Floor रखा है) पर बंद ए.सी. कमरों से भारत पूरा दिखता भी नहीं जनाब ! नीचे जमीन पे आइये तो बेहतर दिखेगा |
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश से गाजीपुर से दिल्ली के लिए एक ट्रेन शुरू हुई थी | ट्रेन का नाम था राजा सुहेलदेव राजभर एक्सप्रेस | राजा सुहेलदेव राजभर का इतिहास बड़ा अनोखा है | उन्हें भारत पर हमला करने वाले गजनवी के भांजे सालार मसूद को खदेड़ कर मारने के लिए जाना जाता है | आज भारत में गाज़ी सालार मसूद का मकबरा है जहाँ सालाना उर्स भी लगता है |
राजा सुहेलदेव राजभर का नाम बहराइच, उतपत देस के इलाकों के बाहर शायद ही जाना जाता है | इसका कारण है उतपत देस का जातिवादी महामूर्ख समाज | कई लोग इन्हें पासी समुदाय से जुड़ा मानते हैं | उनके हिसाब से राजा सुहेलदेव राजभर के नाम पर केवल दलितों का हक़ है | दूसरी तरफ उतपत देस का छतरी समुदाय मानता है कि राजा सुहेलदेव राजभर राजपूत थे इसलिए वो सिर्फ उनके हैं | इसमें एक छोटी सी समस्या है | अंग्रेजों ने “राजभर” को क्रिमिनल ट्राइब घोषित कर दिया था |
अब जब क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1952 में ख़त्म हुआ तो, राजभर डीनोटीफाइड कास्ट हो गए | वो अब भी सत्तर साल बाद ना तो जनरल हैं, ना एस.सी. / एस.टी. या ओ.बी.सी. | करीब डेढ़ सौ साल तो क्रिमिनल कास्ट बना देने के कारण उन्हें शोषण झेलना पड़ा | अब उनके सामने नाम की समस्या है | किसी ने राजभर समुदाय से पूछा ही नहीं कि डेढ़ सौ साल का शोषण झेलने के एवज में क्या तुम आरक्षण का लाभ लेना चाहोगे ? जाति-जन्म के नाम पर उनका शोषण करने वाले चर्च का शासन नहीं रहा इसलिए आरक्षण का लाभ छोड़ना चाहेंगे राजभर ?
बाकी इन दोनों सवालों से बड़ा सवाल ये भी है कि उतपत देस के घनघोर जातिवादी समाज और उसके समाजवादी शोषकों ने राजभर समुदाय की पहचान की समस्या को सुलझाने के लिए क्या किया ?
✍🏻
आनंद कुमार

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