Monday, 30 April 2018

प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं
सच होने के बावजूद यह तथ्य बहुत-से लोगों को चौंका सकता है कि प्राचीन भारत औद्योगिक विकास के मामले में शेष विश्व के बहुत से देशों से कहीं अधिक आगे था। रामायण और महाभारत काल से पहले ही भारतीय व्यापारिक संगठन न केवल दूर-देशों तक व्यापार करते थे, बल्कि वे आर्थिकरूप से इतने मजबूत एवं सामाजिक रूप से इतने सक्षम संगठित और शक्तिशाली थे कि उनकी उपेक्षा कर पाना तत्कालीन राज्याध्यक्षों के लिए भी असंभव था। रामायण के एक उल्लेख के अनुसार राम जब चौदह वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या वापस लौटते हैं तो उनके स्वागत के लिए आए प्रजाजनों में श्रेणि प्रमुख भी होते हैं।
प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था। उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर अरब और यूनान के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे। उनके पास अपने अपने कानून होते थे। संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था। सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था। महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था। गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी। ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था।
भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है। उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं। सामूहिक हितों के लिए संगठित व्यापार को अपनाकर उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया था। इसी कारण वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी समृद्ध भी थीं। आचार्य पांडुरंग वामन काणे ने उस समय के विभिन्न व्यावसायिक संगठनों की विशेषताओं का अलग-अलग वर्णन किया है। कात्यायन ने श्रेणि, पूग, गण, व्रात, निगम तथा संघ आदि को वर्ग अथवा समूह माना है। 1 लेकिन आचार्य काणे उनकी इस व्याख्या से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार ये सभी शब्द पुराने हैं। यहां तक कि वैदिक साहित्य में भी ये प्रयुक्त हुए हैं। यद्यपि वहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा वर्ग ही है। 2 इसी प्रकार कौषीतकिब्राह्मण उपनिषद् में पूग को रुद्र की उपमा दी गई है। 3 आपस्तंब धर्मसूत्र में संघ को पारिभाषित करते हुए उसकी कार्यविधि और भविष्य को देखने हुए, अन्य संगठनों के संदर्भ में उसके अंतर को समझा जा सकता है। 4
पाणिनिकाल तक संघ, व्रात, गण, पूग, निगम आदि नामों के विशिष्ट अर्थ ध्वनित होने लगे थे। उन्होंने श्रेणि के पर्यायवाची अथवा विभिन्न रूप माने जाने वाले उपर्युक्त नामों की व्युत्पत्ति आदि की विस्तृत चर्चा की है। इस तथ्य का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि श्रेणियों की पहुंच केवल आर्थिक कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उनकी व्याप्ति धार्मिक, राजनीति और सामाजिक सभी क्षेत्रों में थी। इसलिए कार्यक्षेत्र को देखते हुए उन्हें विभिन्न संबोधनों से पुकारा जाना भी स्वाभाविक ही था। दूसरी ओर यह भी सच है कि पूग, व्रात्य, निगम, श्रेणि इत्यादि विभिन्न नामों से पुकारे जाने के बावजूद सहयोगाधारित संगठनों के बीच उनके कार्यकलापों अथवा श्रेणिधर्म के आधार पर कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं थी। दूसरे शब्दों में ये नाम विशिष्ट परिस्थितियों में कार्यशैली एवं कार्यक्षेत्र के अनुसार अपनाए तो जाते थे, परंतु उनके बीच स्पष्ट कार्य-विभाजन का अभाव था। संगठन के विभिन्न नामों के कारण उनके बीच अनौपचारिक-से भेद एवं उनसे ध्वनित होने प्रचलित अर्थ को आगे के अनुच्छेदों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-
व्रात्य
यह नाम प्राचीन काल से ही संघ अथवा वैकल्पिक सरकार के रूप में प्रचलित रहा है। इसमें आंतरिक लोकतंत्र की भावना प्रधान होती थी। पाणिनी ने अपने महाभाष्य में ऐसे लोगों को व्रात्य माना है, जिनका कोई विशिष्ट व्यवसाय नहीं था, जो अपने तात्कालिक हितों के लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय अपना सकते थे। दूसरे शब्दों में उन्हें कई व्यवसायों का कार्यसाधक ज्ञान होता था। और समय तथा उपयोगिता के अनुसार वे अपना कोई भी व्यवसाय चुन सकते थे। व्रात्य प्रायः अपने शारीरिक बल से ही अपनी जीविका चलाते थे। वे विविध जातियों से आए हुए दक्ष शिल्पकार थे और अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए आपस में संगठित होकर रहना आवश्यक मानते थे। कात्यायन ने व्रात्यों को विचित्र अस्त्रधारी सैनिकों का झुंड माना है। इससे कुछ विभिन्न विक्रमादित्य खन्ना ने किरन कुमार थपल्याल एवं मजुमदार के हवाले से एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले, आर्थिक हितों के लिए प्रयासरत, समूह को व्रात्य एवं पूग की संज्ञा दी है। उनके अनुसार— ‘व्रात्य एवं पूग एक ही नगर अथवा गांव के निवासियों के सामान्यतः एक ही व्यवसाय में लगे, समान आर्थिक हितों के लिए गठित समूह थे।’5 स्पष्ट है कि व्रात्य समानधर्मा लोग थे, जिनको एकाधिक व्यवसायों की जानकारी होती थी। अपने परंपरागत उद्यम में अनुकूल अवसर न देख वे सहयोगी संगठन के गठन की ओर उन्मुख होते थे। उनके संगठन अधिक लोकतांत्रिक और उदार होते थे।
पूग
आचार्य काणे ने अपने वृहद् ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि व्रात्य की भांति पूग भी विभिन्न जातियों से आए हुए लोग थे। वे आवश्यकता पड़ने पर मिस्त्री से लेकर श्रमिक तक, कुछ भी काम कर सकते थे। कशिका के अनुसार वे धनलोलुप और कामी थे, जिनका कोई स्थिर व्यवसाय नहीं था। कात्यायन ने पूग को व्यापारियों का समुदाय स्वीकार किया है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अंतर दर्शाया गया है। उनके अनुसार सौराष्ट्र एवं कांबोज राज्य के सैनिकों की श्रेणियां अलग-अलग वर्गों में विभाजित थीं। उनमें से कुछ आयुध के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाली थीं, तो कुछ की आजीविका का माध्यम कृषि था— पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में हेलाबुकों को प्रत्येक घोड़े के लिए एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है।’6 पूग संभवतः ऐसे व्यक्तियों का संगठन होता था, जिनका पैत्रिक व्यवसाय युद्ध अथवा सेवाकर्म था; अर्थात ऐसे लोग जो वर्ण-विभाजन की दृष्टि से वाणिज्यकर्म के लिए अधिकृत नहीं थे। कृषक एवं सैनिक जातियों के लोग अपने व्यवसाय से हताश होकर, परिवर्तन अथवा अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लाभ के लिए संगठन का निर्माण करते थे। इस बात की भी पर्याप्त संभावना है कि वाणिज्यिक अनुभव की कमी तथा शिल्पकलाओं के ज्ञान के अभाव में शूद्रवर्ग एवं सेना से निकाले गए लोगों के संगठन को पूग माना गया हो. ऐसे लोग युद्धक अथवा गैरव्यावसायिक श्रेणियों के गठन को प्राथमिकता देते थे। इस तरह पूग एवं व्रात्य कहे जाने वाले संगठनों में सैद्धांतिक दृष्टि से कोई खास अंतर नहीं था।
प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थायें : भाग 2
व्रात्य
यह नाम प्राचीन काल से ही संघ अथवा वैकल्पिक सरकार के रूप में प्रचलित रहा है। इसमें आंतरिक लोकतंत्र की भावना प्रधान होती थी। पाणिनी ने अपने महाभाष्य में ऐसे लोगों को व्रात्य माना है, जिनका कोई विशिष्ट व्यवसाय नहीं था, जो अपने तात्कालिक हितों के लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय अपना सकते थे। दूसरे शब्दों में उन्हें कई व्यवसायों का कार्यसाधक ज्ञान होता था। और समय तथा उपयोगिता के अनुसार वे अपना कोई भी व्यवसाय चुन सकते थे। व्रात्य प्रायः अपने शारीरिक बल से ही अपनी जीविका चलाते थे। वे विविध जातियों से आए हुए दक्ष शिल्पकार थे और अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए आपस में संगठित होकर रहना आवश्यक मानते थे। कात्यायन ने व्रात्यों को विचित्र अस्त्रधारी सैनिकों का झुंड माना है। इससे कुछ विभिन्न विक्रमादित्य खन्ना ने किरन कुमार थपल्याल एवं मजुमदार के हवाले से एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले, आर्थिक हितों के लिए प्रयासरत, समूह को व्रात्य एवं पूग की संज्ञा दी है। उनके अनुसार— ‘व्रात्य एवं पूग एक ही नगर अथवा गांव के निवासियों के सामान्यतः एक ही व्यवसाय में लगे, समान आर्थिक हितों के लिए गठित समूह थे।’5 स्पष्ट है कि व्रात्य समानधर्मा लोग थे, जिनको एकाधिक व्यवसायों की जानकारी होती थी। अपने परंपरागत उद्यम में अनुकूल अवसर न देख वे सहयोगी संगठन के गठन की ओर उन्मुख होते थे। उनके संगठन अधिक लोकतांत्रिक और उदार होते थे।
पूग
आचार्य काणे ने अपने वृहद् ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि व्रात्य की भांति पूग भी विभिन्न जातियों से आए हुए लोग थे। वे आवश्यकता पड़ने पर मिस्त्री से लेकर श्रमिक तक, कुछ भी काम कर सकते थे। कशिका के अनुसार वे धनलोलुप और कामी थे, जिनका कोई स्थिर व्यवसाय नहीं था। कात्यायन ने पूग को व्यापारियों का समुदाय स्वीकार किया है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अंतर दर्शाया गया है। उनके अनुसार सौराष्ट्र एवं कांबोज राज्य के सैनिकों की श्रेणियां अलग-अलग वर्गों में विभाजित थीं। उनमें से कुछ आयुध के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाली थीं, तो कुछ की आजीविका का माध्यम कृषि था— पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में हेलाबुकों को प्रत्येक घोड़े के लिए एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है।’6 पूग संभवतः ऐसे व्यक्तियों का संगठन होता था, जिनका पैत्रिक व्यवसाय युद्ध अथवा सेवाकर्म था; अर्थात ऐसे लोग जो वर्ण-विभाजन की दृष्टि से वाणिज्यकर्म के लिए अधिकृत नहीं थे। कृषक एवं सैनिक जातियों के लोग अपने व्यवसाय से हताश होकर, परिवर्तन अथवा अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लाभ के लिए संगठन का निर्माण करते थे। इस बात की भी पर्याप्त संभावना है कि वाणिज्यिक अनुभव की कमी तथा शिल्पकलाओं के ज्ञान के अभाव में शूद्रवर्ग एवं सेना से निकाले गए लोगों के संगठन को पूग माना गया हो. ऐसे लोग युद्धक अथवा गैरव्यावसायिक श्रेणियों के गठन को प्राथमिकता देते थे। इस तरह पूग एवं व्रात्य कहे जाने वाले संगठनों में सैद्धांतिक दृष्टि से कोई खास अंतर नहीं था।
संघ
संघ को सामान्यतः विशिष्ट लोगों के संगठन का पर्याय माना गया है। प्राचीन भारत में गणतांत्रिक सत्ता के ध्रुवों को संघ के नाम से पुकारने की परंपरा रही है। संघों के सदस्यों का चयन बहुमत के आधार पर किया जाता था। तथापि वह सीमित गणतंत्र था। उनके सदस्य प्रायः वर्णव्यवस्था में ऊपर के क्रम पर आने वाली जातियों से संबद्ध होते थे, जो अपने आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक हितों की प्राप्ति हेतु संगठन का निर्माण करते थे। लगभग यही आशय गण का भी रहा है। प्रारंभ में इन दोनों के बीच कोई सैद्धांतिक विभाजन था भी नहीं. प्रकारांतर में गण और संघ में भेद अवश्य किया जाने लगा था। लेकिन गण को एकवचन के रूप में भी स्वीकारा जाता रहा है, जबकि संघ की संज्ञा विवेकवान लोगों के समूह के लिए सुरक्षित रही है, जो अपने निर्णय सिद्धांततः आमसहमति के आधार पर लेते हों. विशेषकर बौद्धधर्म के अभ्युध्य के पश्चात ब्राह्मणों ने स्वयं को उनसे अलग दिखाने के लिए, उनके संगठनों को संघ कहना प्रारंभ कर दिया था। मनु ने संघ का प्रयोग संगठित समाज के लिए किया है। जबकि कात्यायन के अनुसार संघ बौद्धों तथा जैनों का समाज है। डा॓. रमेशचंद्र मजुमदार एवं डा॓. किरन कुमार थपल्याल, दोनों ने इसी मत की संस्तुति की है। इन दोनों के हवाले से विक्रमादित्य खन्ना लिखते हैं कि— ‘संघ का संबोधन सामान्यतः राजनीतिक संगठनों के लिए था। यद्यपि कभी-कभी उसका इस शब्द का प्रयोग शैक्षिक एवं धर्मिक गतिविधियों के विकास को समर्पित संगठनों, विशेषकर बौद्ध भिक्षुओं के दल, के लिए भी कर लिया जाता था।’7 इस वर्गीकरण से संघ की आर्थिक विशेषताओं का कोई बोध नहीं होता. यह भी हो सकता है कि बौद्धों के धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक हितों के लिए गठित समूहों को संघ की संज्ञा दी जाती हो. लेकिन लोकपंरपरा में व्यापारियों के समूहों को भी संघ कहने का चलन था।
गण
प्राचीन भारतीय वांङमय में गण शब्द का उल्लेख अनेकार्थी है। गण का सामान्य अभिप्राय सुसंस्कृत नागरिक से भी है। गांवों एवं नगरों में सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए, समाज के जिन विशिष्ट व्यक्तियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, उन्हें ‘गण’ कहा जाता था। कई बार धार्मिक एवं राजनीतिक उद्देश्यों के लिए मनोनीत व्यक्ति भी ‘गण’ की संज्ञा से विभूषित कर दिए जाते थे। कालांतर में इस संज्ञा का उपयोग आर्थिक उद्देश्यों के गठित संगठनों के लिए भी किया जाने लगा. वसिष्ठ धर्मसूत्र में ‘गण’ का उल्लेख संगठित समाज के रूप में किया गया है। कुछ इसी प्रकार का अर्थ मनु ने भी बताया है; यानी पूरा समाज गण अथवा गणसमूह है। कात्यायन ने वर्ण-विभाजन को आधार बनाकर इसे और भी विशेषीकृत करते हुए, ब्राह्मणों के संगठन को गण की संज्ञा दी है। मिताक्षरा के अनुसार गण व्यापारियों के समूह थे, जिनका प्रमुख व्यवसाय हेलाबूक अर्थात घोड़े का व्यवसाय करना था। विक्रमादित्य खन्ना ने गण को धार्मिक एवं राजनीतिक संगठन मानते हुए उसको संघ के समक्ष रखा है। डाॅ. मजुमदार का संदर्भ देते हुए वे लिखते हैं कि— ‘प्रारंभ में गण का अभिप्राय व्यापारियों के समूह से था, मगर कालांतर में उन्हें राजनीतिक एवं धार्मिक संगठन के रूप में भी मान्यता मिलने लगी.’8 सामान्य नागरिकताबोध की प्रस्तुति के लिए भी गण का उपयोग आम नागरिकों के लिए मान्य रहा है। गणतंत्र उसी शब्द की व्युत्पत्ति है। यही अर्थ सहस्राब्दियों तक विद्वानों को मान्य रहा है। लेकिन यह भी सत्य है कि समय के साथ संज्ञाएं एवं उनके संदर्भ बदलते रहते हैं। कई बार स्वार्थी लोग भी शब्दों को उनके मूल संदर्भों से काटकर मनमानी व्याख्याएं करते रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गण का उपयोग प्रारंभ में नागरिक और नागरिक-समूहों के लिए सुरक्षित था। बाद में यही संज्ञा व्यापारी-समूहों को भी दी जाने लगी. लेकिन कालांतर में, बौद्ध धर्म के उद्भव के बाद ब्राह्मणों ने उनके संगठनों को संघ तथा अपने समूहों को गण कहना आरंभ कर दिया था।
क्रमशः.....
(विकिपीडिया से)

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