विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरूप
*यथार्थता तो स्वीकारनी ही पड़ेगी*-3/3
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विरोध के मुख्य तथ्य यही हैं, विरोध चल पड़ने पर कटु प्रहार एवं दोषारोपण के अनेकों प्रसंग आते हैं और परस्पर गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग होने लगता है। मन्तव्यों को मिथ्या ही नहीं, निहित स्वार्थों से प्रेरित तक कहा जाने लगता है। आस्तिक-नास्तिक स्तर का यही मल्लयुद्ध खून-खराबे तक पहुंचता रहा है। विज्ञान के सम्बन्ध में अध्यात्म पक्ष द्वारा कहा जाता है कि उसके द्वारा प्रकृति का असाधारण दोहन किये जाने पर भविष्य के लिए कुछ न बचेगा। प्रदूषण फैलने की विषाक्तता प्राणघातक होगी, लोग काहिल बनेंगे—इसके करण समस्त सत्ता सम्पदा सिमट कर कुछ ही हाथों में सीमित हो जायेगी। नीति-मर्यादाओं का कोई मूल्य न रहेगा आदि-आदि।
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विरोध के मुख्य तथ्य यही हैं, विरोध चल पड़ने पर कटु प्रहार एवं दोषारोपण के अनेकों प्रसंग आते हैं और परस्पर गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग होने लगता है। मन्तव्यों को मिथ्या ही नहीं, निहित स्वार्थों से प्रेरित तक कहा जाने लगता है। आस्तिक-नास्तिक स्तर का यही मल्लयुद्ध खून-खराबे तक पहुंचता रहा है। विज्ञान के सम्बन्ध में अध्यात्म पक्ष द्वारा कहा जाता है कि उसके द्वारा प्रकृति का असाधारण दोहन किये जाने पर भविष्य के लिए कुछ न बचेगा। प्रदूषण फैलने की विषाक्तता प्राणघातक होगी, लोग काहिल बनेंगे—इसके करण समस्त सत्ता सम्पदा सिमट कर कुछ ही हाथों में सीमित हो जायेगी। नीति-मर्यादाओं का कोई मूल्य न रहेगा आदि-आदि।
इसी प्रकार विज्ञान ने अध्यात्म को अन्ध-विज्ञान बताया है। धर्म को अफीम की गोली कहा है, आधार रहित कल्पनाओं की उड़ानें बताया है। ईश्वर यदि नियामक है तो वही कर्म अपनी विशेषताओं के कारण प्रकृति क्यों नहीं कर सकती। अध्यात्म परावलम्बन है, वह पराक्रम साहस को काटता और व्यक्ति को दीन-दुर्बल बनाता है। दोनों पक्ष अपने-अपने समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे हैं, दूसरों पर लांछन लगाने में कोई कसर नहीं रहने देते रहे हैं। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि दूसरे पक्ष के प्रतिपादनों और आक्षेपों में क्या कुछ सच्चाई भी है। भ्रान्तियों के निराकरण और उपयोगी प्रतिपादनों को ग्रहण करने की यदि मनोभूमि रही होती तो जो खाई लगातार बढ़ती चली आई है वह घटती। एक, दूसरे के परिश्रम को सराहता और जो ग्रहण योग्य होता— अपनाता। जहां सहमति नहीं बन पड़ रही हो उसे सुलझाने के लिए कभी उचित अवसर आने की प्रतीक्षा करता तो ऐसी स्थिति न बन पड़ती जैसी आज है।
वस्तुतः दोनों ही पक्ष असाधारण शक्ति सम्पन्न हैं, उनके प्रतिदानों में इतनी सच्चाई एवं उपयोगिता भी है जिसे जन साधारण को बताते हुए औचित्य अपनाने की पृष्ठभूमि तैयार की जा सके। विग्रह से शत्रुता उपजती है, आग्रह प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है और अहंकार इस प्रकार आड़े आता है कि तथ्यों के निरीक्षण-परीक्षण की गुंजाइश तक नहीं रहती वरन् विरोध में मजा आता है, दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ती है।
क्रमशः जारी
*पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य*
*पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य*
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