Saturday 14 April 2018


आंबेडकर एक बड़े नेता थे लेकिन नेहरू ने उन्हें लोकसभा में जाने से एकबार नहीं दो बार रोका। कांग्रेस ने 1952 के आम चुनाव एवं 1953 के उपचुनाव में आंबेडकर के खिलाफ न सिर्फ अपना उम्मीदवार उतारा बल्कि उन्हें हराने के लिए खुला प्रचार किया। आज नेहरू जी होते तो मैं पूछता- नेहरू जी, क्या हो जाता अगर आंबेडकर एकबार लोकसभा में चले जाते ? खैर, दो तथ्य और गौरतलब है। जब बाबा साहेब 1952 में लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे तो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का उस सीट पर क्या रुख था ? गौर तो इसपर भी कर सकते हैं कि जनसंघ का कोई उम्मीदवार उस सीट पर क्यों नहीं लड़ा था ? खैर, बाबा साहेब के प्रति यह कांग्रेस के तिरस्कार का भाव नहीं तो और क्या था कि 1956 में प्रधानमंत्री रहते नेहरू खुद को भारत-रत्न दे दिए मगर उन्हें अंबेडकर याद नहीं आये। इसके बाद 1971 में बेटी इंदिरा ने भी खुद को भारत रत्न दिया, लेकिन उन्हें भी आंबेडकर याद नहीं आये। खुद को खुद ही भारत रत्न देने की बेशर्मी भारत के लोकतंत्र में दूसरे किसी राजनेता ने नहीं की है। इसमें नेहरू-इंदिरा अनोखे हैं। 1984 में राजीव गांधी आये लेकिन उन्हें भी अंबेडकर याद नहीं आये। यह संयोग नहीं बल्कि तिरस्कार की घूँट पी रहे वक्त की प्रतीक्षा का एक प्रतिफल था कि 1989 में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी तो आंबेडकर को भारत रत्न मिला। अब अगर चालीस वर्षों में नेहरू-गांधी परिवार ने अंबेडकर को यह सम्मान दे दिया होता, तो वीपी सिंह दोबारा तो नहीं दे देते न ? खैर, आज आंबेडकर के लिए मोदी जो कर रहे हैं, वही आप कर दिए होते तो मोदी दोबारा नहीं कर देते न ? नेहरू-इंदिरा परिवार ने नहीं किया तभी तो किसी और को आंबेडकर पर काम करने का मौका मिला। अब भला इससे भी दिक्कत!! आपको अच्छा लगता है कि देश की ईंट-ईंट पर नेहरू-इंदिरा-राजीव का नाम हो। कहिये तो भीम राव रामजी आंबेडकर का नाम भी इन्हीं के नाम पर रख दें ? खैर, जनसंघ के नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर की यह तस्वीर लगाकर अपनी बात खत्म कर रहा हूँ।

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