दुर्गादास राठौड़
दुर्गादास राठौड़ का नाम इतिहास के उन योद्धाओं में शामिल है, जो कभी मुगलो से पराजित नही हुआ ! दिल्ली से ना केवल इन्होंने टक्कर ली, बल्कि दिल्ली के दांत भी खट्टे कर दिए !!
महाराज जसवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात मारवाड़ को इस्लाम के काले बादलों ने घेर लिया ! महाराज जसवंत सिंहः अपने पीछे 2 विधवा गर्भवती रानीया छोड़ गए थे । सरदारों को उत्तराधिकारी चाहिए था, इसलिए उन रानियों को सती नही होने दिया !! दुस्ट पापी ओरेंगजेब के पास यह समाचार जब पहुंचा , तो उसने इन दोनों उत्तराधिकारियो को मुसलमान बनाने का सोचा, जो अभी गर्भ में ही थे ! इसका तातपर्य यह है, की वह पापी मायावी मुसलमान उन दोनों विधवाओं को भी अपने हरम में घसीटना चाहता था । लेकिन यह हो ना सका ! क्यो की उन उत्तराधिकारियों की रक्षा कर रहा था --- दुर्गादास राठौड़
दुर्गादास राठौड़ का जन्म 1638 ईसवी में हुआ ! उनके पिता जसवंत सिंहः के राज में मंत्री थे ! पारिवारिक झगड़ो के कारण दुर्गादास की माता का उनके पिता ने त्याग कर दिया !! लेकिन उस क्षत्राणी ने कभी अपना क्षात्र धर्म नही भुला ! उन्होंने दुर्गादास के मन मे देशभक्ति , धर्मभक्ति की भावना कूट कूट कर भर दी ! जैसे शिवाजी को उनकी माता जीजाबाई ने बनाया था, वैसे ही दुर्गादास को वीर बनाने का श्रेय उनकी माता को जाता है ।
दुर्गादास अब किशोर अवस्था मे दुसरो के खेतों की निगरानी करते, अपना ओर अपनी माता का भरण पोषण करते । एक दिन उसके खेतो में किसी एक मुस्लिम ने ऊंट छोड़ दिये ! मुसलमान हिन्दुओ को किसी ना किसी तरीके से अपमानित या परेशान करने का कोई मौका नही छोड़ते थे ! जब दुर्गादास ने ऊँटो को बाहर निकाला, तो उस मुस्लिम ने उन्हें बुरा भला कहा, यहां तक तो ठीक था, लेकिन वह मलेच्छ अपनी सीमा को लांघते हुए, जसवंत सिंहः के अपमान तक पहुंच गया, की तुम्हारे राजा के पास तो अपनी छपरी तक नही है !
यह दुर्गादास सुन नही पाया ! और वही उस मुसलमान को मार डाला ! क्यो की अपने राजा के लिए दुर्गादास के मन मे बहुत सम्मान था। उस कबीले के सारे मुसलमान जसवंत सिंहः के पास न्याय मांगने पहुंच गए ! जसवंत सिंह ने जब कारण जाना तो, जसवंत सिंहः अपनी हंसी ओर प्रशन्नता नही रोक पाए ! जसवंत सिंहः के मुख से अवाक ही निकल गया ! यह बालक एक दिन मारवाड़ की रक्षा करेगा ! यह कोई साधारण बालक नही है ! ओर राजा ने अपने दरबार मे ही उन्हें रख लिया ! इस उपकार का बदला दुर्गादास ने उनके पुत्र अजितसिंहः के प्राणों की रक्षा और मारवाड़ की रक्षा करके चुकाया !!
अजीतसिंह को मुसलमान बनाने के लिए सर्वप्रथम ओरेंगजेब ने जोधपुर में अपनी विशाल सेना भेजी ! जोधपुर को पूरी तरह कुचल दिया गया ! कई मंदिर तोड़े, कई अबलाओं का बलात्कार हुआ ! पूरा जोधपुर त्राहिमाम त्राहिमाम कर उठा ! अब जोधपुर पर मुगलो का अधिकार था । जोधपुर तो क्या उसके आसपास के सारे मंदिर तोड़ उन्हें मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया! जिनका उद्धार हिन्दू आज तक नही कर पाए है । जोधपुर के राजपूत जो किसी भी कीमत पर इस्लाम कबूल नही कर सकते थे, वह किशनगढ़ जाकर रहने लगे ! इतिहासकार लिखते है कि जोधपुर की रानिया किले से मर्दाना लिबास पहनकर निकली । जब शाही सेना अजितसिंहः को दूसरे स्थान पर ले जा रही थी, तब मुसलमान उनपर टूट पड़े ! किन्तु उस समय अजितसिंहः दुर्गादास के पास थे, एक हाथ मे तलवार और एक हाथ मे अजीतसिंह, मुँह से घोड़े की लगाम पकड़कर युद्ध करते बुरे दुर्गादास वहां से अजीतसिंह को ले उड़े !
इस लड़ाई के बाद राठोड़ो ने दुर्गादास के नेतृत्व में एक योजना बनाई ! अब छापामार युद्ध करना राजपूतो का दैनिक कर्म बन गया था । मुसलमानो को उन्ही की भाषा मे जवाब देते हुए उन्होंने उनकी रसद लूटनी, उनकी हत्या करनी , यातायात के साधनों ओर मार्गो को बर्बाद करना शुरू कर दिया ! लगातार इससे परेशान हो ओरेंगजेब ने राजपूतो का ओर ज़्यादा दमन करना शुरू कर दिया ! वह आम जनता पर अत्याचार करने लगा ! तब दुर्गादास ने समझा कि बिना कूटनीति के इन मल्लेचों से पार पाना संभव नही है । अतः कई सालों के प्रयासों के बाद उन्होंने मेवाड़ से संधि कर ली । अब मेवाड़ ओर मारवाड़ दोनो ने मिलकर शहजादे अकबर को परेशान करना शुरू कर दिया, जिसको जोधपुर का सुल्तान ओरेंगजेब ने ही बनाया था । इन सब ने शहजादा अकबर परेशान हो गया ! और मारे राजपूतो के डर से उसने मारवाड़ ओर मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ली । राजपूतो ने अकबर को यह भी वचन दे दिया, की तुम्हारी रक्षा करना भी अब हमारा कर्तव्य है । कुछ समय के लिए ही सही, मारवाड़ का संघर्ष अब खत्म हो गया ! इस मौके के फायदा उठाकर दुर्गादास ओर मेवाड़ ने अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाना शुरू कर दिया !
अब समय आ गया था कि अजितसिंहः की पहचान सार्वजनिक की जाए ! अतः 23 मार्च 1687 को पातड़ी गांव में महाराज अजित सिंहः का विधिवत राज्याभिषेक हुआ ! कुछ बातों को लेकर बाद में महाराज अजीतसिंह ओर दुर्गादास के मध्य लगातार मनमुटाव होने लगा, अजितसिंहः मुसलमानो से खुले मैदान में जंग चाहते थे, लेकिन दुर्गादास अपनी वही छापामार नीति से युद्ध करना चाहते थे । चूंकि मारवाड़ ओर मेवाड़ दोनो ही सैनिक शक्ति से इतने सबल नही थे, की दिल्ली की विशाल सेना का सामना कर सके । ओर इन दिनों तो ओरेंगजेब राजपूतो के सर्वनाश में ही लगा हुआ था ।
यहां अब दुर्गादास ने नीति से काम लिया ! उसने ओरेंगजेब की बेटी और बेगम को बंदी बना लिया ! ओर घोषणा कर दी, की अगर मारवाड़ पर आक्रमण हुआ, तो इनका वही हस्र होगा, जो तुम्हारे हरम में हिन्दू महिलाओ का तुम करते आये हो । इन दोनों को आजाद करवाने के लिए ओरेंगजेब को 30000 राजपूत सैनिक मुक्त करने पड़े, जो कि अपने राजा के युद्ध मे हार जाने के कारण ओरेंगजेब के गुलाम हो गए थे ! एक हजार रत्नजड़ित कटार ओर मोतियों की माला, ओर 2 लाख रुपया दुर्गादास को दिया गया, तब जाकर उन्होंने बेगम ओर उसकी बेटी को मुक्त किया !
1707 में जब ओरेंगजेब की दुस्ट आत्मा धरती को छोड़कर नर्कवासी हुई, तो दुर्गादास नद जोधपुर पर आक्रमण कर उसपर भी अपना अधिकार कर लिया !
1707 में जब ओरेंगजेब की दुस्ट आत्मा धरती को छोड़कर नर्कवासी हुई, तो दुर्गादास नद जोधपुर पर आक्रमण कर उसपर भी अपना अधिकार कर लिया !
इसप्रकार मुसलमानो ने यह लड़ाई 1678 में शुरू तो की, लेकिन 1707 में दुर्गादास राठौड़ ने उन्हें बुरी तरह हराकर खत्म की । उसके बाद ओरेंगजेब के बेटे बहादुरशाह की हिम्मत नही हुई कि वो राजपूतो से टकराये, अतः उसने मारवाड़ को स्वतंत्र राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया !
लेकिन अजितसिंहः ओर दुर्गादास के सम्बनध लगातार खराब ही होते जा रहे थे, कारण यह था कि पूरी प्रजा महाराज से ज़्यादा दुर्गादास का सम्मान करती ! यह बात अजितसिंहः को कहां गंवारा थी ! आखिर उसका भी अपना महाराज वाला अहंकार था !
लेकिन दुर्गादास ने कहा, अब में अपना आखिरी युद्ध कर रहा हूँ, अजितसिंहः ने इसका विरोध नही किया, दुर्गादास ने अजमेर के मुस्लिम सुल्तान पर आक्रमण कर उसे वहां बुरी तरह से रौंद डाला ! अजमेर भी अब मारवाड़ में शामिल हो गया !!
अजमेर विजय के बाद दुर्गादास ने अजीतसिंह ने विदाई मांग ली !!
" महाराज , जो कार्य मुझे मेरे स्वामी जसवंत सिंहः ने सौंपा था, वह अब पूर्ण हुआ, आप मुझे आज्ञा दे ! अजितसिंहः ने दुर्गादास को रोका तक नही "
दुर्गादास के जाने के बाद चारो तरफ अजितसिंहः की थू थू होने लगी ! यह बात मेवाड़ के अमरसिंह को जब पता चली, तो शाही रथ लेकर वो खुद दुर्गादास को लेने पहुँच गए , ओर तमाम याचना, विनती कर मेवाड़ ले गए ! वहां उनकी खूब सेवा हुई ! उन्हें 500 रुपया दैनिक भत्ते के रूप में मिलता था !
1778 को लगभग 80 साल की उम्र में कभी पराजित ना होने वाले इस यौद्धा ने स्वर्ग की ओर प्रस्थान कियाप्रस्
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