Thursday, 10 December 2015

 प्रधानमंत्री को अपमानित करने, उनकी अन्तराष्ट्रीय ख्याती को कलंकित करने, देश में विदेशी निवेश को रोकने और भाजपा सरकार को जनविरोधी सरकार बताने का एक कुत्सित प्रयास है। पिछले कुछ महीनों से एक सम्प्रदाय के मन में भ्रान्तियां पैदा कर, प्रचार माध्यमों से पूरे देश का वातावरण विषाक्त करने का प्रयास किया जा रहा है। बिहार विजय को भारत विजय का प्रमाण पत्र मान, जनता द्वारा चुनी गर्इ एक लोकतांत्रिक सरकार के विधायी कार्यों में जानबूझ कर व्यवधान उपस्थित कर यह साबित किया जा रहा है कि हमारे लिए राष्ट्रीय हितो से बढ़ कर अपने राजनीतिक स्वार्थ है।
जो लोग वर्षों तक सत्ता में रहे, सता के नज़दीक रहे, वे सभी इन दिनों सत्ता के बिना तड़फ रहे हैं। उनकी हालत ऐसे शराबी की तरह हो गर्इ है, जो शराब की तलब पूरी करने के लिए बहक जाता है।  उसे इस बात का भी भान नहीं रहता कि उन्माद  में वह जो कुछ  कह रहा है, क्या सही है ? सत्ता पुन: पाने की तड़फ है, किन्तु जनता को भ्रमित करने, सरकार के विरुद्ध षड़यंत्र रचने, बिना किसी ठोस आधार के संसद में हंगामा करने और सत्ता पक्ष पर आरोप लगा कर उसका उत्तर ही नहीं सुनना, कौन सी सहिष्णुता है। क्या ऐसे ही प्रायोजित उपद्रव से सत्ता मिल जायेगी ?  लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही सत्ता हांसिल की जा सकती है। ओछे और अभद्र हथकंड़े अपनाने से यदि जनता कुपित हो गर्इ, तो सदा के लिए सत्ता पाने की हसरते अधुरी रह जायेगी। सत्ता की ओर  सिवाय ललचार्इ दृष्टि से टुकर-टुकर देखने के अलावा कोर्इ चारा ही नहीं बचेगा।
राजनीतिक षड़यंत्रो से पुन: सत्ता पाने को आतुर राजनेता यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि दिल्ली की जनता ने जिन लोगों को सत्ता सौंपी है, उसकी करतूतो से अब वह चिढ़ रही है। उसे अहसास हो गया है कि वह झूठें लोगों के हाथों ठगी गर्इ है।  ऐसे धूर्त और फरेबी लोगों का वर्तमान चमकदार हो सकता है, किन्तु भविष्य भी ऐसा ही सुनहरा होगा, इसकी क्या गारंटी है ? बिहार में लालू और नीतीश का हाथ मिलाने को बहुत बड़ी सफलता मानने वाले इस हकीकत  को क्यों झूठला रहे हैं कि लालू ने अपने पारिवारिक कुनबे को राजनीतिक में स्थापित करने के लिए बहुत बड़ी कीमत वसूली है।
नीतीश अपने भ्रष्ट, अहंकारी और अराजक साथी के सहयोग से राज्य को कैसा सुशासन दें पायेंगे, यह तो भविष्य ही बताएगा, परन्तु इस जीत  के अति उत्साह में बावले हो,  भारतीय जनता द्वारा चुनी गर्इ एक लोकतांत्रिक सरकार को ललकारने का उन्हें क्या संवैधानिक अधिकार है, जिन्हें जनता ने लोकसभा चुनावों में पूर्णतया ठुकरा दिया था ?    लोकतंत्र में जीत और हार एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जीत से प्रफुल्लित नहीं होते, वरन जनादेश का सम्मान कर पूरे मनोयोग से जनसेवा में लग जाते हैं, जबकि हार से आक्रोशित नहीं होते, वरन अपनी पराजय के कारणों का मंथन करते हैं।
जनता द्वारा चुनी गर्इ एक लोकतंत्री सरकार के मुखिया के प्रति अत्यधिक घृणा का प्रदर्शन, यह दर्शाता है कि उन्हें जनता का आदेश स्वीकार्य नहीं है। यह उस व्यक्ति का अपमान नहीं हैं, वरन पूरे देश की जनता का अपमान है, जिसने उन्हें प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी है।  नरेन्द्र मोदी ने सत्ता छीनी नहीं, उन्हें जनता ने सत्ता सौंपी हैं। सरकार की नीतियों का तार्किक विरोध संसदीय परम्परा में आता है, किन्तु राजनीतिक षड़यंत्र रच कर सरकार को अपराधी घोषित करने का प्रयास असंसदीय परम्परा में आता है। जो लोग ऐसी असंसदीय परम्पराओं के प्रणेता है, उनकी भारत के संविधान और लोकतंत्र में आस्था नहीं है। सियासी षड़यंत्र कर सत्ता हथियाने का काम राजतंत्र में होता है, लोकतंत्र में नहीं। लोकतंत्र में सत्ता सौंपने और छीनने का अधिकार जनता के पास ही है।
मोदी सरकार ने ऐसा क्या अनर्थ कर दिया, जिसके कारण उसे बात-बात पर अपमानित किया जा रहा है ? इतने बड़े देश में घटित चार पांच घटनाओं का आधार बना पूरी सरकार को एक सम्प्रदाय विशेष के प्रति असहिष्णु बताया जा रहा है ?  असहिष्णुता को खूब उछाला। संसद में इसी मामले को ले कर सरकार को घेरने की कोशिश की गर्इ। परन्तु जब संसद में सरकार ने करारे जवाब  दिये, तब जवाब सुने बिना ही असहिष्णु हो, सदन छोड़ कर चले गये। क्या उन्हें इस बात का जरा भी अफसोस नहीं है कि असहिष्णुता के प्रश्न को ले कर पिछले कुछ महीनों से देश का माहौल जानबूझ कर खराब किया जा रहा है।
जनता को असहिष्णुता की हकीकत जानने की उत्कंठा है। उन्हें इस बात का तनिक भी अफसोस नही है कि  यदि उनके षड़यंत्रों की पोल खुल गर्इ, तब वे क्या करेंगे ? भारत की  जनता की समझ में यह बात आ रही है कि अपने राजनीतिक स्वार्थ को साधने के लिए  मोदी सरकार को कटघरें में खड़ा कर अपमानित किया जा रहा है। प्रश्न उठता है कि जब  सरकार ने असहिष्णुता पर अपना पक्ष रखा, तब नग्न सच्चार्इ सुन कर बौखला क्यों गये ? निश्चय ही असहिष्णुता पर बहस में टिक नहीं पाये थे। बहस में पराजित हो गये, पर ऐंठ के कारण पराजय स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। परन्तु पूरे देश ने सरकार का सटीक जवाब सुना और जनता समझ गर्इ कि अल्पसंख्यक समुदाय को भाजपा से दूर करने और उन्हें भ्रमित कर उनके थोक वोटों का जुगाड़ करने के लिए असहिष्णुता के प्रायोजित नाटक का मंचन किया जा रहा है। पर उन्हें जरा सी भी राजनीतिक समझ नहीं है कि अल्पसंख्यक समुदाय के वोटों के प्रति इतनी सहिष्णुता दिखाना और बहुसंख्यक वोटों के प्रति असहिष्णुता दिखाने का यदि उलटा असर हो गया, तब वे क्या करेंगे ? अल्पसंख्यक समुदाय की तरह यदि बहुसंख्यक भी चिढ़ कर किसी एक पार्टी के पक्ष में थोक वोट देने लग गये, तो भारत की कर्इ धर्मनिरपेक्ष पार्टियां समाप्त हो जायेगी। कर्इ राजनेताओं का राजनीतिक जीवन  अंधकारमय हो जायेगा।
जिस पार्टी में अपने नेता से प्रश्न पूछने की परम्परा नहीं है। जहां सिर्फ अपनी कही जाती है और दूसरों के विचारों को सुना ही नहीं जाता, ऐसी अलोकतांत्रिक पार्टी के सांसदों से श्रेष्ठ संसदीय आचरण की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती,  परन्तु संसद को उद्दण्ड़ और शरारती छात्रों की क्लास समझने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि जो सांसद वहां बैठे हैं, देश की करोड़ो जनता के प्रतिनिधि हैं। जो सदन का नेता है, उसे यह अधिकार जनता ने दिया है। अत: उस नेता और उसकी सरकार का अपमान पूरे देश का अपमान हैं, जो देशद्रोह की श्रेणी में आता है। यदि भारत की जनता ऐसे उद्दण्ड़ सांसदो के असंसदीय आचरण से कुपित हो गर्इ, तो सम्भव हैं उनके लिए संसद के द्वारा सदा के लिए बंद हो जायेंगे।

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