Monday, 18 January 2016

संस्कृत भाषा परिचय :-
        जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे सारे ग्रंथ देवभाषा संस्कृत में हैं, वेद, दर्शन, उपनिषद्, ब्राह्मण, अरण्यक, उपांग, स्मृति, रामायण, महाभारत आदि सभी श्रद्धेय ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही विद्यमान हैं । कारण ये है कि संस्कृत से अधिक परिमार्जित और शुद्ध भाषा पूरे ब्रह्माण्ड में दूसरी नहीं है । ! क्योंकि पूरे अंतरिक्ष में भी संस्कृत के प्राकृत्तिक संकेत यत्र तत्र विद्यमान हैं ।
 
        संस्कृत भाषा मूलतः देवभाषा या वेदभाषा कही जाती जाती है क्योंकि सृष्टि के आदि काल में यही भाषा वेद के द्वारा ही ऋषियों और ऋषिकाओं को परब्रह्म परमेश्वर द्वारा दी गई है । प्राचीनकाल में मनुष्य तीव्र बुद्धि होते थे जिसके कारण सारा व्यवहार श्रवण-भाषण के आधार पर चलता था । किसी ऋषि ने कुछ कहा तो श्रोता ने झट सुनकर उस बात को ग्रहण कर लिया । 
       शास्त्रों में भी अनेकों बार आता है कि ब्रह्मा ने कहा ! शिव ने कहा ! कश्यप ने कहा ! इत्यादि । जिससे कि स्पष्ट है कि प्राचीन काल में लिखने की परम्परा न थी । केवल श्रवण-भाषण के आधार पर गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा ही ज्ञान का प्रेषण होता रहता था । परन्तु बहुत काल पश्चात जब मनुष्यों की आबादी पृथिवी पर बढ़ने लगी और जिसके कारण आलस्य अनाचार फैलने के कारण बुद्धि शुद्र होती गई जिससे कि ज्ञान को सुरक्षित करने के उद्देश्य से ऋषि ब्रह्मा ने ब्राह्मी लिप्पी का आविष्कार किया और संस्कृत भाषा को लिप्पीबद्ध करने की प्रथा चलाई ( इसी ब्राह्मी लिप्पी से ही प्रेरित चीनी, जापानी, कोरियाई लिप्पीयाँ हैं ) । 
       इसी क्रमानुसार ब्राह्मी लिप्पी को सरल कर देवों के द्वारा देवनागरी लिप्पी चलाई गई । अतः संस्कृत भाषा दो लिप्पीयों में लिखी जाने लगी थी , ब्राह्मी और देवनागरी । अब देवनागरी का प्रचार है ।
     संस्कृत भाषा और वेदों की सुक्षा की दृष्टि से ऋषियों ने समय समय पर व्याकरण ग्रंथों का निर्माण भी किया है । व्याकरण शास्त्र एक प्रकार से भाषा की शुद्धि करता है, शब्दों की चिकित्सा करता है जिससे कि किसी शब्द के उच्चारण में दोष उत्पन्न न हो । अन्यथा ऐसा होने पर मनुष्य अपने अभिप्राय को स्पष्ट न कहकर कुछ अन्य ही कह बैठता है । इसी दृष्टि से शब्द चिकित्सा होना अनिवार्य है और व्याकरण का पढ़ना भी अनिवार्य है । अनेकों व्यकरण आचार्य समय समय पर भुगोल में होते रहे हैं जैसे :- ( पराशर, चक्रवर्मन, गर्ग, अत्री, व्याग्रभूति, आपिशल, पाणीनि, व्यड आदि )
 व्याकरण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं :- 
(१) केवल वैदिक शब्दों का अनवाख्यान करने वाले । 
जैसे :- प्रातिशाख्य आदि ।
(२) केवल लौकिक शब्दों का अनव्याख्यान करने वाले ।
 जैसे :- सारस्वत, कानतन्त्र आदि ।
(३) लौकिक और वैदिक दोनों प्रकार के शब्दों का अनव्याख्यान करने वाले । 
जैसे :- आपिशल, पाणीनि आदि ।
         महामुनि पाणीनि का व्याकरण सर्वोत्तम कोटी का है । क्योंकि ये दोनों ही प्रकार के लौकिक और वैदिक शब्दों का ज्ञान कराने में समर्थ है । यदि कहें कि पाणीनि का व्याकरण प्राचीन और आधुनिक भारत के बीच का सेतु ( पुल ) है ।  पाणीनि मुनि के व्याकरण पर चर्चा ...
       पाणीनि मुनि ने अष्टाध्यायी नामक आठ अध्यायों की पुस्तक की रचना की है । जिसमें ४००० के निकट सूत्र हैं । सूत्र क्या होते हैं ? "संक्षिप्त नियमों को सूत्र कहा जाता है" । अष्टाध्यायी को मिलाकर ऋषि पाणीनि के पाँच उपदेश कहे जाते हैं :- ( अष्टाध्यायी, धातुपाठ,गणपाठ,लिंगानुशासन, उणादिकोष ) इन पाँचों पुस्तकों को पाँच उपदेश कहा जाता है । 
पाणीनि मुनि के अष्टाध्यायी के भाष्य ( व्याख्या ) को महाभाष्य कहा जाता है । महाभाष्य पतंजलि मुनि की रचना है । ( नोट :- ये महाभाष्य वाले पतंजलि मुनि योगदर्शन वाले पतंजलि मुनि नहीं हैं ये उनसे भिन्न हैं ) 
     जहाँ पर पाणीनि मुनि की अष्टाध्यायी शब्दों का अनुशासन सिखाती है । वहीं पतंजलि मुनि का महाभाष्य शब्दों की उत्पत्ति का दर्शनिक पक्ष सिखाता है ।
        पाणिनीय अष्टाध्यायी एवं पातंजल महाभाष्य दोनों मुनियों का मनुष्य जाती पर ऐसा उपकार है कि इनके पढ़ने में समय कम लगे और अल्प परिश्रम से ही मनुष्य शब्द शक्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करे । इनको पढ़ने में अनुमानतः ४-५ वर्ष का समय तक लगता है । यदि तीव्र बुद्धि बालक हो तो केवल ३ वर्ष में व्यकरण समप्त कर सकता है । मंद बुद्धि बलक हो तो ६-७ वर्ष भी लग सकते हैं । परंतु मंदबुद्धि बालक भी व्याकरण पढ़कर महाबुद्धिमान हो जाता है । क्योंकि व्याकरण पढ़ने वाला मनुष्य व्यवहार दक्ष हो जाता है । क्योंकि अष्टाध्यायी के प्रथम सूत्र 'वृद्धिरादैच्( अष्टाध्यायी १/१/१ ) का भाष्य करते हुए पतंजलि मुनि लिखते हैं कि व्याकरण पढ़ने वाले मनुष्य को चार प्रकार के लाभ होते हैं :- 
व्याकरण पढ़ने  के लाभ
(१) बुद्धिमता :- व्याकरण बुद्धि को विकसित करने का ब्रह्मास्त्र है ।
(२) प्रतिष्ठा :- व्यकरण पढ़ा हुआ व्यक्ति सर्वत्र सम्मान पाता है ।
(३) धनप्रप्ति :- व्यकरण पढ़ा हुआ व्यक्ति कभी भूखा नहीं रहता । ( आज भी )
(४) मुक्ति :- व्याकरण पढ़ा हुआ व्यक्ति शीघ्र ही शब्दब्रह्म को जानने में समर्थ होकर बाकी अन्य मनुष्यों की तुलना में शीघ्र मोक्ष लाभ कर सकता है ।
        इनको पढ़ने वाले मनुष्य का शब्दकोष खरबों शब्दों से भर जाता है , बने हुए शब्दों को जान सकता है, नए शब्द और बना सकता है । एक श्लोक बहुत प्रसिद्ध है :-
         "कणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकरकम्" .. अर्थात् पदार्थ विद्या में कणाद मुनि का वैशेषिक शास्त्र और शब्द विद्या में पाणीनि मुनि का व्याकरणशास्त्र सभी अन्य शासत्रों के उपकारक हैं ।

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