एपीजे अब्दुल कलाम को मुस्लिम अपना हीरो क्यों नहीं मानते
मुसलमानों के विरोध-प्रदर्शन का क्या तुक था?
सवाल पूछा जा रहा है कि माल्दा में जो हुआ, क्या वह मुसलमानों की असहिष्णुता नहीं है? क्या कमलेश तिवारी नाम के किसी एक नेता के बयान पर इतना हंगामा करने का कोई तुक था कि उसके खिलाफ माल्दा समेत देश के कई हिस्सों में आगबबूला प्रदर्शन किए जाएं? खास कर तब, जबकि कमलेश तिवारी के खिलाफ कानून तुरन्त अपना काम कर चुका है, खास कर तब जबकि हिन्दू महासभा जैसा संगठन तक भी उसकी निन्दा कर चुका है। इसके बाद और क्या चाहिए था? घटना इतनी पुरानी हो चुकी। अब क्यों प्रदर्शन? अब क्यों ऐसा बेवजह गुस्सा? अब क्यों ऐसी उन्मादी हिंसा? सवाल बिलकुल जायज हैं। और चाहे जो कह लीजिए, इन सवालों का कोई जवाब समझ में नहीं आता!
माल्दा के पहले केरल की घटनाएं
माल्दा के कुछ दिन पहले केरल से खबर आई थी एक मुस्लिम वीडियोग्राफर का स्टूडियो जला देने की। उसकी गलती बस इतनी थी कि उसने व्हाट्सएप पर यह सुझाव दिया था कि मुसलिम औरतों को बुर्के या हिजाब का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उसके पहले केरल में ही एक महिला पत्रकार वीपी रजीना के इस खुलासे पर उन्हें गन्दी-गन्दी गालियां दी गईं कि केरल के एक मदरसे में बच्चों का यौन शोषण होता था। इन दोनों मामलों पर भी जो हंगामा हुआ, वह क्यों होना चाहिए था, यह सवाल आज मुसलमानों को अपने आप से पूछना चाहिए! क्यों मुसलमान यह सुझाव तक भी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि बुर्का या हिजाब न पहना जाए? सुझाव देने वाले ने इसलाम की क्या तौहीन कर दी? क्या ईश निन्दा की? मुसलमानों के खिलाफ क्या टिप्पणी कर दी? बस एक सुझाव ही तो दिया था!
रजीना की गलती क्या थी?
इसी तरह रजीना की गलती क्या थी? उसने एक मदरसे में हुई कुछ घटनाओं का खुलासा इस उम्मीद में किया था कि शायद मामले की जांच हो, शायद दोषियों की पहचान कर उन्हें सजा दी जाए, ऐसे कदम उठाए जाएं ताकि भविष्य में वैसी घटनाओं को रोका जा सके, मदरसों के संचालक इसका ध्यान रखें। इसमें क्या गलत था? क्या इसलाम विरोधी था? किस बात के लिए रजीना के खिलाफ गाली अभियान चलाया गया?
क्या इस्लाम का मतलब असहिष्णु होना है?
हाल-फिलहाल की इन तीनों घटनाओं पर मुसलमानों की ऐसी प्रतिक्रिया का कोई जायज आधार नहीं था। कोई तर्क नहीं था। कोई तुक नहीं था। क्या यह मुसलमानों के लिए सोचनेवाली बात नहीं है कि किसी का एक सुझाव देना भी उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है, किसी का किसी अपराध को उजागर करना उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है? इससे बड़ी असहिष्णुता और क्या होगी? क्या इस्लाम का मतलब इतना असहिष्णु होना है? कतई नहीं।
Why Indian Muslims didn't change with time?
उम्मीद थी कि वक्त के साथ, पढ़ने-लिखने के साथ और एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने के अनुभवों के साथ मुसलमान कुछ सीखेंगे, कुछ बदलेंगे और कठमुल्लेपन की कुछ जंजीरें तो टूटेंगी ही। हालांकि ऐसा नहीं है कि बदलाव बिल्कुल नहीं आया है। आज काफी भारतीय मुसलमान (Indian Muslims) ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया पर खुल कर यह लिख रहे हैं कि मुसलिम समाज को किस तरह अपनी सोच बदलनी चाहिए, धर्म की जकड़न और कट्टरपंथ से बाहर निकलना चाहिए, वोट बैंक के रूप में दुहे जाने और थोथे भावनात्मक मुद्दों के बजाए शिक्षा, विकास और तरक्की के बुनियादी सवालों पर ध्यान देना चाहिए और आधुनिक बोध से चीजों को देखने की आदत डालनी चाहिए।
लेकिन इस हलके से बदलाव के बावजूद भारतीय मुसलिम समाज (Indian Muslim Society) का बहुत बड़ा हिस्सा अब भी कूढ़मगज है और सुधारवादी कोशिशों में उसका कोई विश्वास नहीं है। वरना ऐसा क्यों होता कि बलात्कार की शिकार इमराना (Imrana Rape Case) और दो पतियों के भंवर के बीच फँसी गुड़िया (The queer case of Gudia, Taufiq and Arif) के मामले में शरीअत के नाम पर इक्कीसवीं सदी में ऐसे शर्मनाक फैसले होते और देश के मुसलमान चुप बैठे देखते रहते! ऐसे मामलों में मुसलमानों का नेतृत्व कौन करता है, उन्हें राह कौन दिखाता है? ले दे कर मुल्ला-मौलवी या उनका शीर्ष संगठन मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड। रही-सही कसर तथाकथित सेकुलर राजनीति ने पूरी कर दी, इसने मुसलमानों के बीच शुरू हुई सारी सुधारवादी कोशिशों का गला घोंट दिया जो 'इस्लाम खतरे में है' का नारा लगा-लगा कर मुसलमानों को भी और सत्ता को भी डराते रहे।
धार्मिक पहचान से इतर कुछ नहीं!
इसीलिए मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या (biggest problem of Indian Muslims) यही है कि अपनी धार्मिक पहचान से इतर वह और कुछ देख नहीं पाते। और यही वजह कि मुसलमानों के पास अपने कोई नायक भी नहीं हैं। पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि एपीजे अब्दुल कलाम को मुसलमान अपना हीरो क्यों नहीं मानते? जिन्दगी भर मुसलमानों, बाबरी मस्जिद और मुस्लिम पर्सनल लॉ के लिए लड़ते रहे सैयद शहाबुद्दीन तक को कोई मुसलमान अपना हीरो नहीं मानता, आज कोई उनका नामलेवा क्यों नहीं है? मुसलमान आखिर इस तरह धर्म के फंदे में क्यों फंसा हुआ है?
असली मुद्दों पर क्यों नहीं आन्दोलित होते मुसलमान?
सोशल मीडिया पर कई मुसलिम मित्रों ने जोरदार ढंग से यह सवाल उठाया आखिर क्यों मुसलमान आज तक कभी अपनी बुनियादी जरूरतों पर, आर्थिक मुद्दों पर, सम्मान की जिन्दगी जीने को लेकर कभी आन्दोलित नहीं हुआ। जब भी आन्दोलित हुआ तो धर्म के नाम पर। और उसमें भी कभी मुसलमानों ने मुम्बई, गुजरात या कहीं के दंगों की जांच के लिए, दोषियों को सजा दिलाने या बेहतर मुआवजे की मांग को लेकर कभी आन्दोलन नहीं किया, कभी बड़े-बड़े जुलूस नहीं निकाले। तीस्ता सीतलवाड तो गुजरात के मुसलमानों के लिए लड़ीं, लेकिन मुसलमानों के वे नेता, वे उलेमा कहां-कहां दंगापीड़ितों को इन्साफ दिलाने के लिए लड़े?
जब तक मुसलमान इस सच्चाई को नहीं समझेंगे और अपनी धार्मिक पहचान से हट कर चीजों को देखना और समझना नहीं शुरू करेंगे, तब तक उनकी कूढ़मगजी का कोई इलाज नहीं है। तब तक उन्हें एहसास भी नहीं होगा कि वह आखिर अपने पिछड़ेपन और ऐसी जकड़ी सोच से क्यों नहीं उबरते? तीन तलाक जैसी बुराई को आज तक क्यों खत्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर जरा-जरा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फुटबाल खेलने के खिलाफ फतवा क्यों जारी हो जाता है? कोई क्रिसमस पर ईसाइयों को बधाई देने को क्यों 'इस्लाम-विरोधी घोषित कर देता है? मुसलमानों को इन सवालों पर सोचना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि उनके आसपास उनके बारे में लगातार नकारात्मक छवि क्यों बनती जा रही है?
और अन्त में...
मुसलमानों के खिलाफ बन रही नकारात्मक छवि के पीछे मुसलमानों का बड़ा हाथ तो है ही, लेकिन यह भी सच है कि बहुत-से झूठे-सच्चे प्रचार अभियान मुसलमानों के खिलाफ लगातार चलाए जाते हैं, उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी के खिलाफ सत्तारूढ़ दल के सरपरस्त संगठन की तरफ से तीन-तीन बार कैसे बेसिर-पैर के अभियान चलाए गए, यह किसी से छिपा नहीं है।
अभी हाल में 'न्यू इंडियन एक्सप्रेस' ने एक खबर छापी कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर कजी मासूम अख्तर की कठमुल्ला तत्वों ने इसलिए पिटाई कर दी कि वह गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान गाने का अभ्यास करा रहा था,लेकिन पिटाई की यह घटना नौ महीने पहले हुई थी और तब से अख्तर मदरसे आए ही नहीं है। इसलिए इस गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान का अभ्यास कराने का सवाल ही नहीं उठता।राष्ट्रगान मदरसे की डायरी में छपा है और हर दिन सुबह की प्रार्थना में गाया जाता है और यह सिलसिला तब से है, जब अख्तर ने मदरसे की नौकरी शुरू भी नहीं की थी। मदरसे में इस समय सात हिन्दू शिक्षक हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार क़मर वहीद नक़वी के ब्लॉग raagdesh.com से साभार)
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