Sunday, 1 April 2018

क्या #स्वामी_श्रद्धानन्द जी की हत्या सेक्युलर थी और मो.द.क.#गान्धी की कम्युनल?
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23 दिसम्बर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी युवक ने गोली चलाकर स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या कर दी। यह युवक स्वामी जी से मिलकर इस्लाम पर चर्चा करने के लिए एक आगन्तुक के रूप में नया बाज़ार, दिल्ली स्थित उनके निवास स्थान पर गया था। वह स्वामी जी के शुद्धि कार्यक्रम से पागलपन के स्तर तक रुष्ट था।
इस घटना से सभी दुखी थे क्योंकि स्वामी दयानन्द सरस्वती के दिखाये मार्ग पर चलने वाले इस आर्य सन्यासी ने देश एवं समाज को उसकी जड़ों की ओर मोड़ने का प्रयास किया था। गान्धी जी, जिन्हें स्वामी श्रद्धानन्द ‘महात्मा’ जैसे आदरयुक्त शब्द से संबोधित करते थे, ने उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात् 25 दिसम्बर, 1926 को गोहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह स्तब्ध करने वाला था। महात्मा गान्धी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है:
"मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना पैदा की। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।“
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेच्छा एवं सहमति के पश्चात् पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलिक (मलखान) राजपूतों की शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि वो ब्रिटिश काल था।
यहाँ यह विचारणीय है कि महात्मा गान्धी ने एक हत्या को सही ठहराया जबकि दूसरी ओर वो अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे। हत्या का कारण कुछ भी हो, हत्या हत्या होती है, अच्छी या बुरी नहीं। अब्दुल रशीद को भाई मानते हुए उसे निर्दोष कहा। इतना ही नहीं गान्धी ने अपने भाषण में कहा:
"मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।“
उन्होंने आगे यह भी कहा:
"समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पड़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है।“
अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुए गान्धी ने कहा:
"हम पढे़, अध-पढे़ लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो समुदायों के शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सकेगा।“
सन्दर्भ: यंग इण्डिया, 30 दिसम्बर, 1926
संभवतः इन्हीं दो परिवारों (हिन्दू एवं मुस्लिम) को मजबूत करने के लिए गान्धी जी के आदर्श विचार को मानते हुए उनके पुत्र हरीलाल और पोते कांतिभाई ने हिन्दू धर्म को त्याग कर इस्लाम स्वीकार कर लिया। महात्मा जी का कोई प्रवचन इन दोनों को धर्मपरिवर्तन करने से रोकने में सफल नहीं हो पाया।
सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ही शुद्धि कार्यक्रम आयोजित कर देहरादून के एक युवक को वैदिक धर्म में प्रवेश कराया था। बाद में स्वामी श्रद्धानन्द ने इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। गान्धी के सेक्युलरिज़्म के हिसाब से यह कार्यक्रम मुस्लिम विरोधी था इसलिए वे स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या को न्यायोचित ठहराने लगे।
सत्य और न्याय दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। जहाँ सत्य है वहीं न्याय है और जहाँ न्याय है वहीं सत्य है। फिर गान्धी का श्रद्धानन्द जी की हत्या को न्यायोचित ठहराना और उनके हत्यारे को निर्दोषी मानना उनके सत्य एवं न्याय के सिद्धान्त के दावे को खोखला साबित करता है। अहिंसा के पुजारी यदि सेक्युलरिज़्म के नाम पर हिंसा को न्यायोचित ठहरायें तो उनके प्रवचन का क्या अर्थ।
गान्धी के लिए अपने विचार सही हो सकते हैं लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि सभी के लिए हों। नाथूराम गोडसे के अपने विचार थे। धर्म के आधार पर विभाजन की पीड़ा असहनीय थी। मुसलमानों के प्रति विशेष झुकाव के कारण हिन्दू समर्थक गोडसे की गान्धी से मतभिन्नता थी जिसके कारण गान्धी जी की हत्या हुई।
इस हत्या को भी किसी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि हम गान्धी जी के चश्मे से देखें तो नाथूराम को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अपने विचार से गोडसे ने भी हिन्दू समुदाय एवं राष्ट्र के हित में यह कार्य किया था।
उसके समर्थक मूर्ति स्थापित करना चाहते हैं तो क्या समस्या है? यदि स्वामी श्रद्धानन्द का हत्यारा निर्दोष है तो गान्धी का हत्यारा भी निर्दोष है। यह तो नहीं हो सकता कि स्वामी जी की हत्या सेक्युलर थी और गान्धी की कम्युनल।

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