Wednesday, 20 June 2018


कबीरपंथ के नाम पर हिन्दू धर्म पर प्रहार करने वाले मूढ़ों के लिए प्रेरक प्रसंग
जब कबीर ने इसलाम कबूल करने से मना कर दिया तो सिकंदर लोदी के आदेश से जंजीरो में जकड़कर कबीर को मगहर लाया गया। वहां लाते ही जब शहंशाह के हुक्म के अनुसार कबीर को मस्त हाथी के पैरों तले रौंदा जाने लगा, तब लोई पछाड़ खाकर पति के पैरों पर गिर पड़ी। पुत्र कमाल भी पिता से लिपटकर रोने लगा। लेकिन कबीर तनिक भी विचलित नहीं हुआ। आंखों में वही चमक बनी रही। चेहरे की झुर्रियों में भय का कोई चिद्द नहीं उभरा। एकदम शान्त-गम्भीर वाणी में शहंशाह को सम्बोधित हो कहने लगा:
माली आवत देखिकर
कलियन करी पुकार।
फूले फूले चुन लिए
काल्हि हमारी बार।
और फिर इतना कहते ही हलके से मुस्कुरा दिया। कबीर आगे बोला, 'मुझे तो मरना ही था; आज नहीं मरता तो कल मरता। लेकिन सुलतान कब तक इस गफलत में भरमाए पड़े रह सकेंगे, कब तक फूले-फूले फिरेंगे कि वह नहीं मरेंगे?'
कबीर को जिस समय हाथी के पैरों तले कुचलवाया जा रहा था, उस समय कबीर का एक शिष्य भी वहां मौजूद था, उसके मुख से निकल पडा:
 ‘हे गोविन्द! आपकी शक्ति की बलिहारी जाऊं। काजी ने आपको (कबीर को) हाथी से तुड़वाने का आदेश दिया। कबीर की भुजाएं अच्छी तरह से बांधकर डाल दिया गया। महावत ने हाथी को क्रोधित करने के लिए उसके सिर पर चोट मारी। हाथी चिंघाड़कर दूसरी ओर भाग चला। उस प्रकार भागते हुए हाथी की मूरत पर मैं बलिहारी जाऊं। हाथी को भागता देख काजी ने महावत से कहा कि मैं तुझे छड़ी से पीटूंगा और इस हाथी को कटवा डालूंगा। 
लेकिन हाथी तो उस समय भगवान के ध्यान में मस्त था। लोग भी कहने लगे कि इस सन्त ने क्या अपराध किया है। जो इसका गट्ठर सा बांधकर हाथी के सामने डाल दिया गया है। लेकिन हाथी बार-बार उस गट्ठर की वन्दना करने लगा। पर अज्ञान से अन्धे हुए काजी को यह देखकर भी कुछ सुझाई न दिया। तीन बार उसने परीक्षा ली, परन्तु कठोर मनवाले काजी को अब भी विश्वास न हुआ। कबीर मन में कहने लगे कि गोविन्द तो हमारे हैं, मैं जन का जिश्न्दा पीर हूं तथा मैंने चौथी बार चौथे पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लिया।’
लोग कहते हैं कबीर मरने के बाद फूल बन गया और हिन्दू और मुस्लिमो ने उन्हें बराबर बांट लिया, जबकि सचाई यह है कि सिकंदर लोदी ने उन्हें हाथी के पैरो से कुचलवाकर मरवा दिया था, क्योंकि वे सामाजिक कुरीतियों का खंडन करते थे.
सन्दर्भ सूत्र साभार अजेष्ठ त्रिपाठी जी-- कबीर दोहावली पेज 31 , भक्तमाल , परचइ ।

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