रसोईघर से अध्यक्ष पद तक ।
सुनने में ही यह बहुत अजीब लगता है कि क्या कोई साधारण रसोइया कभी किसी राष्ट्रव्यापी संस्था का अध्यक्ष बन सकता है; पर अपनी लगन और कर्मठता से जिन्होंने इसे सत्य सिद्ध कर दिखाया, वे थे स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती जी की पुण्य-तिथि
मथुरा (उ.प्र.) के पानीगाँव नामक ग्राम में जन्मे धुरिया नामक बालक को जीवन के 23 वर्ष तक पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला। निर्धन और अशिक्षित परिवार में जन्म लेने के कारण कुछ बड़े होते ही उसे पशु चराने के काम में लगा दिया गया। कुछ दिनों बाद स्वामी सर्वानन्द जी ने उसे अपनी संस्कृत पाठशाला के छात्रावास में भोजन बनाने का काम दे दिया।
मथुरा (उ.प्र.) के पानीगाँव नामक ग्राम में जन्मे धुरिया नामक बालक को जीवन के 23 वर्ष तक पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला। निर्धन और अशिक्षित परिवार में जन्म लेने के कारण कुछ बड़े होते ही उसे पशु चराने के काम में लगा दिया गया। कुछ दिनों बाद स्वामी सर्वानन्द जी ने उसे अपनी संस्कृत पाठशाला के छात्रावास में भोजन बनाने का काम दे दिया।
बच्चों को संस्कृत पढ़ते देखकर उसके मन में भी पढ़ने की लालसा होती थी; पर उसे भोजनालय में काफी समय लग जाता था। एक बार बहुत संकोच से उसने स्वामी जी को अपनी इच्छा बताई। स्वामी जी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। वे सबके साथ उसे भी पढ़ाने लगे। उन्होंने उसका नाम धुरेन्द्र रख दिया।
शिक्षा प्रारम्भ होते ही धुरेन्द्र की प्रतिभा प्रकट होने लगी। वह अपने साथियों से सदा आगे दिखायी देते थे। क्रमशः उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से शास्त्री, जयपुर से नव्य शास्त्र तथा काशी से दर्शन शास्त्र की उच्च शिक्षा पायी। इसके बाद वे आगरा में शुद्धि सभा के मन्त्री बने। वे बंगाल और गुरुकुल बैद्यनाथ धाम, बिहार में प्राचार्य भी रहे। उनकी ख्याति सुनकर शाहपुर नरेश ने अपने युवराज सुदर्शन देव को पढ़ाने के लिए उन्हें बुलाया और राजगुरु का सम्मान दिया। अन्य अनेक राजाओं की ओर से भी उन्हें भरपूर मान सम्मान प्राप्त हुआ।
हैदराबाद के क्रूर निजाम के अत्याचारों से हिन्दुओं की मुक्ति हेतु हुए सत्याग्रह में वे 1,500 साथियों के साथ सम्मिलित हुए और जेल की यातनाएँ सहीं। 1946 में जब सिन्ध प्रान्त में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर प्रतिबन्ध लगा, तो इसके विरुद्ध उन्होंने कराची में सत्याग्रह किया। गान्धी जी के साथ भी वे अनेक बार जेल गये।
7 जुलाई, 1954 को अलीगढ़ के पास स्थित सर्वदानन्द साधु आश्रम में स्वामी आत्मानन्द से संन्यास की दीक्षा लेकर वे राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री से स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती हो गये। तत्कालीन संयुक्त प्रान्त की आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष के नाते उन्होंने संगठन में नये प्राण फूँके।
उनकी विद्वत्ता के कारण देश-विदेश से उन्हें निमन्त्रण आते रहते थे। उन्होंने भारत से बाहर युगाण्डा, जंजीबार, बर्मा, मारीशस, सिंगापुर, थाइलैण्ड आदि देशों में आर्यसमाज एवं हिन्दुत्व का प्रचार किया। जब आर्यसमाज ने गोहत्या बन्दी के लिए पूरे देश में आन्दोलन चलाया, तो उसकी बागडोर उन्हें ही सौंपी गयी। इसके लिए उन्होंने दिन रात परिश्रम किया। उनकी योग्यता, समर्पण तथा संगठन क्षमता से सब लोग बहुत प्रभावित हुए। आगे चलकर उन्हें आर्यसमाज की सर्वोच्च संस्था ‘सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा’ का अध्यक्ष बनाया गया।
इस पद पर रहकर उन्होंने विभिन्न इकाइयों में चल रहे विवादों को सुलझाया। वे हर हाल में संगठन हित को ही सर्वोपरि रखते थे।
इस पद पर रहकर उन्होंने विभिन्न इकाइयों में चल रहे विवादों को सुलझाया। वे हर हाल में संगठन हित को ही सर्वोपरि रखते थे।
स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती ने संगठन कार्य के लिए अपने स्वास्थ्य की भी चिन्ता नहीं की।
29 जून, 1965 को वे मुम्बई से दिल्ली के लिए अपने आवास से निकले ही थे कि उन्हें तीव्र हृदयाघात हुआ। चिकित्सक के आने से पहले ही उनका शरीर छूट गया।
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