Monday, 25 June 2018

इतिहास में दलित उत्पीड़न के षड्यन्त्र की पोल खोल
इससे पहले कि इस गंभीर विषय पर कुछ कहूं याद दिला दूँ कि भारतीय इतिहास का पहला सम्राट "चन्द्रगुप्त मौर्य" जाति से शूद्र था और उसे एक सामान्य बालक से सत्ता का शिखर पुरुष बनाने वाला चाणक्य एक ब्राम्हण था ।शताब्दीयों का शाक्ष्य हैं भारतीय इतिहास मौर्य वंश के बिना पुर्णतः अधूरा है।
स्वातंत्रता के बाद से ही राजनैतिक स्वार्थों के लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र के द्वारा दलित उत्थान के नाम पर जो खेल खेला गया उससे सबसे अधिक दलित ही प्रभावित हुए। उनका पारंपरिक आय का स्रोत छीना गया।
प्राचीन भारत जो जातियों में बटा था उसमे प्रत्येक जाति के पास अपने रोजगार के साधन उपलब्ध थे।
कुम्हार बर्तन बनाता,लुहार लोहे का काम करता,हजाम हजामत का काम करता अहीर पशुपालन करते तेली तेल का धंधा करता आदि आदि..कोई भी जाति दूसरी जाति का काम छीनने का प्रयास कभी नही करती थी।
इस व्यवस्था के अनुसार दलितों का जो मुख्य पेशा था वह था पशुपालन मांस व्यवसाय चमड़ा व्यवसाय और सबसे बड़ा बच्चों के जन्म के समय प्रसव कराने का कार्य। एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दलितों को यह एहसास दिलाया गया कि आप जो काम कर रहे हैं वह गन्दा है घृणित है। फलस्वरूप वे अपने पेशे से दूर होते गए और उनसे ये सारे धंधे छीन लिए गए। पर दलितों के छोड़ देने से क्या ये काम बन्द हो गए ?
आज देखिये चमड़ा उद्योग और मांस उद्योग का वार्षिक टर्न ओवर लाखों करोड़ों का नहीं बल्कि खरबों का है।
आज यह व्यवसाय किस के हाथ में है ? आपकी हमारी आँखों के सामने दलितों से उनकी आमदनी का बडा स्रोत छीन कर एक विशेष समुदाय के झोले में डाल दिया गया और हम यह चाल समझ नही पाये।
उत्तर प्रदेश में जय भीम जय मीम के धोखेबाज नारे के जाल में दलितों को फंसा कर उन्हें अन्य हिन्दुओ विशेष कर ब्राह्मण के विरुद्ध भड़काने वालों की मंशा साफ है वे आपको सौ टुकड़े में तोड़ कर आपके सारे हक लूटना चाहते हैं।
तनिक सोशल मिडिया में ध्यान से देखिये दलितवाद का झूठा खेल अधिकांश वे ही लोग क्यों खेल रहे हैं जिन्होंने दलितों के पेशे पर डकैती डाली है ?
दलितों की दुर्दशा के सम्बंध में जो मुख्य बातें बताई जाती हैं जरा उनका विश्लेषण कीजिये। वे आपको बताते हैं ब्राम्हणों ने दलितों से मल ढोने का काम कराया.!! इतिहास और प्राचीन साहित्य का कोई ज्ञाता बताये क्या प्राचीन सनातन भारत में घर के मण्डप के अंदर शौचालय निर्माण का कोई साक्ष्य मिलता है ? कहीं भी नही।सच तो यह है कि भारत में घर के अंदर शौचालय बनाने की परम्परा अलाउद्दीन खीलजी से लेकर मुगलकाल तक में फैली।
उनके गुलाम बनायें गये लोगों में ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र सभी लोग थे उन्होंने ही उनसे मल ढोने का घृणित कार्य गुलाम लोगों से उनका कुफ्र या काफिर होने से घृणा की वजह से कराया। उन्होने यह घटिया काम भले ही करना पडे पर अपना धर्म को नहीं छोडना चाहते थे क्यूंकि वह अपने धर्म से दिलोजान से जूडे हुए थे।आज भी उन दलितो की सरनेम टाइटल राजपुतो ब्राह्मणो वैश्यो के मिलेंगे।
भारत के कई गांवों में तो आज से केवल तीस से चालीस वर्ष पहले तक शौचालय होते ही नही थे। फिर इस घृणित परम्परा के लिए हिन्दू कैसे जिम्मेवार हुए ?
आपको इतना पता होगा कि मध्यकालीन भारत में हिंदुओं का सबसे ज्यादा कन्वर्जन हुआ। जरा पता लगाइये तो क्या अपने धर्म परिवर्तन के बाद एक तेली पठान हो गया ?कोई लुहार क्या शेख हो गया ? नहीं , तेली ने धर्म बदला तो मुसलमान तेली हो गया। नायी बदला तो मुसलमान हजाम हो गया। गांवों में देखिये, मुसलमान हजाम लोहार तेली धुनिया धोबी और यहां तक कि राजपूत भी हैं। उनका सिर्फ धर्म बदला है जातियां और कार्य नहीं।
जिन लोगों में आज दलित प्रेम जोर मार रहा है वे क्या बताएँगे कि उन्होंने अपने धर्म में जाति ख़त्म करने का क्या क्या उपाय किये ? प्राचीन भारत में दलित दुर्दशा के विषय में सोचने के पहले एक बार अपने गांव के सिर्फ पचास बर्ष पहले के इतिहास को याद कर लीजिये..!! दलितों की स्थिति बुरी थी तो क्या अन्य जातियों की स्थिति बहुत अच्छी थी ?
कठे अंवासी बिगहे बोझ (एक कट्ठा में एक मुठा और एक बीघा में एक बोझा भोजपुरी कहावत) वाले जमाने में जब हर चार पांच साल पर अकाल पड़ते तो क्या सिर्फ एक विशेष जाति के ही लोग दुःख भोगते थे ? सत्य यह है कि उस घोर दरिद्रता के काल में सभी दुःख भोग रहे थे। कोई थोडा कम और कोई थोडा ज्यादा..!!
खैर ,कल जो हुआ वो हुआ। उसे बदलना तुम्हारे हाथ में नहीं था पर तुम चाहो तो तुम्हारा वर्तमान सुधर सकता है। यह युग धार्मिक से ज्यादा आर्थिक आधार पर संचालित होता है। इस युग में जिसके पास पैसा है वही सवर्ण है और जिसके पास नही है वे दलित हैं।
अपने आर्थिक ढांचे को बचाने का प्रयास कीजिये। वैश्वीकरण के इस युग में हमे अपनी सारी दरिद्रता को उखाड़ फेकने में दस साल से अधिक नही लगेगा।
अंत में एक उदाहरण - ब्राम्हणों में एक उपजाति होती है महापात्र की। ये लोग मृतक के श्राद्ध में ग्यारहवें दिन खाते हैं। समाज में इन्हें इतना अछूत माना जाता है कि कोई इन्हें अपने शुभ कार्य में नही बुलाता। इनकी शादियां शेष ब्राम्हणों में नही होती। पर इन्होंने कभी अपना पेशा नही छोड़ा।
तो इस आर्थिक युग में स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कीजिये। अरबी और मिशनरी पैसे से पेट भर कर समाज में आग लगाने का प्रयास करने वाले  चाइना परस्त लोगों के धोखे में न आयें। भारत और पाकीस्तान देश विभाजन के समय पाकीस्तान ने सवर्ण हिंदूओं से उनकी संपति हडप ली उन की मां बहन बेटियों पर अनगिनत बलात्कार कर उनकी हत्याए की बचे कुचे लोग अपने ही देश में निराश्रित बनकर खाली हाथ लौटे और जिसे पाकीस्तान में रहने दिया वह हिंदू कौन थे ?
वह दलित थे उन्हे केवल उनका मैला उठाने और साफ सफाई का काम के लिये रहने दिया।
उनकी संख्या पाकीस्तान की बस्ती के अनुपात में दलितों की जन संख्या 14% थी..(1947)
आज वह कहां गयें ?(कुल हिंदू जनसंख्या 29% थी)आज पाकीस्तान में केवल 1.5% हिंदू बचे है। वह भी डरे सहमें है और भारत में शरण चाहते है क्यूं ? 
वजह है उनकी मां बहन बेटीयों पे हो रहे अत्याचार..और उनकी धार्मिक आजादी पर हो रहे कुठाराघात ही है।
जय भीम - जय मीम वाला नारा एक बडा षड्यंत्र है। ये देश जितना चाणक्य का है उतना ही चन्द्रगुप्त मौर्य का।जितना महाराणा उदयसिंह का है उतना ही पन्ना धाय का। जितना बाबू कुंवर सिंह का है उतना ही बिरसा मुंडा का।
नफरत पहले केवल एक समुदाय विशेष के अंदर ही उनके मदरसों में पढाई जाती थी लेकिन अब न्यूज़ चैनल बड़ी बड़ी कीमत के बदले बाहरी इशारों पर इसी तरह की नफरत दलित वर्ग में फैलाकर देश को बांटने का काम बखूबी कर रहे हैं ।
 डॉ इन्दौरीलाल 

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