बिना कुछ मेहनत किये, बैठ के ऐयाशी कैसे की जाय...
वत्स, इन जोंकों से दूर रहो, इनका इलाज यही है कि जहाँ दिखें इनको कठोर जूतों से मसल दो। इनसे बहस मत करो, क्योंकि इन्होने अपनी सारी जिन्दगी कुतर्कों में ही गुजारी होती है। आप पढ़ लिख कर डॉक्टर इंजीनियर, दुकानदार, सेठ बनते हैं,... लेकिन ये JNU जैसे संस्थानों से जोंकगिरी ही सीख कर बाहर आते हैं, वामपंथ ही सीख कर आते हैं। बिना कुछ मेहनत किये, बैठ के ऐयाशी कैसे की जाय, उसी के तर्क सीख कर आते हैं। ...लेकिन ये भी सच है कि इनकी मौत भी ऐसी ही होती है। इनके खुद के बीबी बच्चे छोड़ कर चले जाते हैं, और एक दिन नकारा होने के बाद इन्हीं के साथी इनको क्रांति के नाम पर कुर्बान कर देते हैं।
अगर ये सच में आदिवासियों, पिछड़े और दलितों के उत्थान, उनकी प्रगति के लिए काम करने का जज्बा रखते, तो पश्चिम बंगाल में 30-35 साल की "निर्विरोध" वामपंथी सरकार के शासन के दौरान, अब तक पश्चिम बंगाल दुनिया का सबसे ज्यादा विकसित राज्य बन चुका होता !!
गुरूजी जी अपने शिष्यों के साथ एक पहाड़ी से गुजर रहे थे। एक तरफ देखा तो एक शानदार बंगला बन रहा था। बाबा जी के मुंह से निकला,. "अहा, यहाँ प्रकृति की गोद में बंगला बनवा के रहने वाला कितना भाग्यशाली होगा।"
एक शिष्य ने आगे बढ़ कर कहा,.. "लेकिन गुरु जी, आप जरा ध्यान से देखें, तो दिखेगा कि बंगले के आस पास छोटी छोटी झोंपड़ियाँ हैं। इनमें रहने वाले लोग गरीब हैं। ये बड़ा मकान इन झोंपड़ियों को छोटा करके ही बना है। उस बंगले में रहने वाले सेठ ने इन गरीबों का हक़ मारकर ही इतनी संपत्ति अर्जित की है। अगर यह बड़ा मकान ना होता तो सारे झोंपड़े बड़े होते। माओवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद ये कहता है कि इस बंगले को तोड़ कर इन गरीबों में बाँट देना चाहिए।"
गुरुजी बहुत जोर से चौंके,.. फिर शिष्य से पूछे,. "अच्छा??, और ये दिव्य ज्ञान तुम्हें कहाँ से मिला?"
शिष्य ने कहा,.. "गुरुजी, पिछले जिले में भ्रमण के दौरान जब मैं कुछ आवश्यक सामग्री खरीदने बाजार गया,.. तो वहां एक गरीबों का नेता आया हुआ था। वही एक स्टेज पर चढ़कर सबको ये बता रहा था, और उसकी बातें इतनी सत्य लग रही थीं कि लोग दिलचस्पी से सुन रहे थे। उसने कहा कि,.. "ये अमीरों का ही खेल है, वे हमारी ही संपत्तियां लूट कर हमें ही गुलाम बना कर रखते हैं। इन अमीरों के हाथों से सबकुछ छीन कर, हमें गरीबों में बांटना है, यही हमारा संकल्प है।"अपने वक्तव्य के अंत में उसने प्रभावित अंदाज में चिल्ला कर कहा,.. "हम लड़ेंगे साथी, हम मरते दम तक लड़ेंगे,.. लाल सलाम।" और उसके इस नारे के बाद उपस्थित भीड़ मदहोश होकर,.. लाल सलाम,.. लाल सलाम के नारे लगाने लगी।
गुरूजी मुस्कुराये,.. और बोले,. "अच्छा, मुझे इतनी गूढ़ बातें नहीं पता थीं। चलो चलकर सामने उन झोंपड़ी वालों से मिलते हैं, जरा जानने की कोशिश करते हैं कि,.. इस बड़े बंगले वाले ने कितने जुल्म ढाए हैं इनपर? कितना कुछ लूट लिया है इनका?"
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गुरूजी को घेर कर बैठ गए थे झोंपड़ी वाले। ....गुरूजी ने शिष्य से हुई सारी बात उन गरीबों को बता कर पूछा,.. "अब आपलोग बताइए, इस बड़े बंगले वाले सेठ की क्या कहानी है? इसने कितना लूटा है आपलोगों को?"
उन झोंपड़ी वालों की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गईं। एक बूढ़ा खड़ा हुआ और एक तरफ ऊँगली दिखा कर कहने लगा,.. "बाबा, हम लोग उस पहाड़ के पीछे रहते हैं। हम लोग भेंड़ बकरी पालते थे, और उन्हीं का दूध वगैरह शहर में बेंच कर अपना जीवन यापन करते थे। एक दिन एक हमारा जान पहचान का ठेकेदार आया। वो पहले भी हमें काम दिलवा चुका था, उसने कहा कि शहर में रहने वाले एक सेठ ने अपने बुढ़ापे के लिए कुछ जमीन खरीदा है। वहां वो एक बंगला और मंदिर बनवाना चाहता है। तुमलोगों को काम करना है तो बोलो, जो ठीक मजदूरी होगी वो मिल जाएगी।"
अब बाबा, हमें और क्या चाहिए था? हम यहाँ आ गए, और इस बंगले के बनने में मदद करने लगे। रोज के रोज हमारी मजदूरी मिल जाती है, और कभी कभी तो जब सेठ जी आते हैं, तो अपनी तरफ से बढियां भोज भी कराते हैं। अब इसमें कहाँ से उन्होंने हमारी जमीन हड़प ली, कहाँ से उन्होंने हमारे पैसे लूट लिए? किसी भी दिन हमपर कोई जुल्म भी नहीं हुआ। और अगर जुल्म होता भी, तो हम यहाँ काम ही क्यों करते? हम ये सब छोड़ छाड़ के चल नहीं देते?"
"अरे बाबा, इस बड़े बंगले की वजह से ही तो वजूद है हमारी झोंपड़ियों का। ये बंगला है तो हम हैं, ये बंगला नहीं होता तो हम यहां क्यों होते?? "
गुरूजी ने मुस्कुराते हुए कहा,.. "हम ही गलत समझ बैठे थे। हमें क्षमा करियेगा।" कहकर उन गरीबों को धन्यवाद दिया और अपनी मण्डली के साथ चल दिए।
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गुरूजी ने उस शिष्य से पूछा,.. "कुछ समझ आया?"
शिष्य मुस्कुरा के बोला,.. "गुरुजी यहाँ की बात तो समझ गया। मैं समझ गया कि बहुत ही साधारण सा यह रिश्ता है विक्रेता (मजदूर) और ग्राहक (सेठ) के बीच। सही बात है कि जब मजदूरों को उनकी मजदूरी के पैसे सेठ दे ही रहा है, तो दिक्कत, शोषण जैसा कुछ है ही नहीं। लेकिन उलझन ये है कि फिर वो गरीबों, मजदूरों का नेता,.... इन दोनों के बीच कहाँ से फिट हो रहा है?"
शिष्य मुस्कुरा के बोला,.. "गुरुजी यहाँ की बात तो समझ गया। मैं समझ गया कि बहुत ही साधारण सा यह रिश्ता है विक्रेता (मजदूर) और ग्राहक (सेठ) के बीच। सही बात है कि जब मजदूरों को उनकी मजदूरी के पैसे सेठ दे ही रहा है, तो दिक्कत, शोषण जैसा कुछ है ही नहीं। लेकिन उलझन ये है कि फिर वो गरीबों, मजदूरों का नेता,.... इन दोनों के बीच कहाँ से फिट हो रहा है?"
गुरूजी ने भी मुस्कुराते हुए कहा,.. "वो सेठ अपनी मेहनत और काबिलियत के दम पर ढेर सारा पैसा कमाया। इन पैसों से मजदूर को मजदूरी के पैसे देकर और ज्यादा धन कमाया। एक विशालकाय घर, मंदिर, पुल, सड़क इत्यादि के निर्माण में सिर्फ ईंट ढोने वाले मजदूर नहीं होते हैं, उनमें उनका सुपरवाईजर भी होता है, मिस्त्री भी, माल ढोने वाला ट्रेक्टर चालक भी, इंजिनियर, आर्किटेक्ट इत्यादि बहुत से लेवल के लोग जुड़ते हैं। ये सब एक तरह से मजदूर ही हैं, और सबको अपनी योग्यतानुसार मजदूरी मिलती है।
लेकिन दुनिया में एक कौम होती है, जो पैदायशी धूर्त और मक्कार होते हैं। इनको कोई मेहनत का काम करके पैसा कमाना नहीं आता है। ये जोंक की तरह परजीवी होते हैं। इनका काम होता है एक दुसरे को उकसा कर लडाना, और दोनों से अपना फायदा उठाना। वो पहले कई महीनों तक सधे हुए पैंतरों से,.. कम दिमाग वालों को अपने जाल में फंसाते हैं। ऐसे ही सेठों, फैक्ट्री मालिक, सरकार के खिलाफ उनको भड़काते हैं। इस भड़काने में कई धूर्तता वाली चालें चलते हैं। जैसे किसी मजदूर की बेटी का चुपके से रेप करके उन्हें मार देना, और फिर इल्जाम सेठ पर डाल देना।
अब सेठ तो रोज रोज अपने को सही साबित करने आएगा नहीं। ...अगर पुलिस में केस भी होगा, प्रथम जाँच में ही पुलिस को पता चल जायेगा कि,.. ये सेठ का काम नहीं है, और पुलिस उस सेठ को छोड़ देती है। और ऐसा होते ही ये वामपंथी, एक बाजारू औरत की तरह ताली बजाते हुए मजदूर से कहेंगे कि,.. "देखा, मैंने कहा था ना कि ये सेठ लोगों से,.. पुलिस और शासन, प्रशासन सब मिले होते हैं।
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अब फिर ऐसे अनपढ़ मजदूरों को भड़का कर, उन्हें हथियार पकड़ा कर घोषित अपराधी बना देते हैं। फिर उसी सेठ के पास जाते हैं, और कहते हैं कि तुमको हमारे साथी उठा लेंगे, तुम्हारी फैक्ट्री, घर सब जला देंगे। नहीं तो इतना पैसा दो, और मौज करो। अब बेचारा सेठ क्या करेगा? मजबूरन उसको पैसा देना पड़ता है जिसको ये वामपंथी अपने NGO के द्वारा ले लेते हैं। अब उस आधे पैसे से इनकी मंहगी शराब और ऐयाशियों चलती हैं, तथा कुछ पैसे से हथियार खरीद कर ये फिर से उन मजदूरों को माओवादी बना कर उनके बीच बाँट देते हैं। और ये चक्र चलता ही रहता है, जब तक कि चीन के जैसे कोई दृढ़ विचारों वाली पार्टी सत्ता में आकर इनका समूल नाश ना कर दे।
जरा सोचो तो कितना बढ़िया धंधा है ये। खुद रहना है दिल्ली के पॉश कॉलोनियों में, और जंगलों में लड़ते वही मजदूर और प्रशासन हैं, मरते भी वही हैं। लेकिन इन वामपंथियों की मौज बनी रहती है इस उगाही और ऐसे ही और धंधों से, .....हींग मिले ना फिक्टरी, और रंग भी चोखा होय..! उन्हीं माओवादियों (नक्सलियों) के सेना, पुलिस द्वारा मुठभेड़ में मर जाने पर,.. उनको मजदूर बता कर सरकार पर दबाव बनाने की नौटंकी भी करते हैं। क्योंकि सरकार पर दबाव बनेगा, तो सरकार विकास से पीछे हटेगी। सरकार पीछे हटेगी तो देश की प्रगति रूकती है। देश की प्रगति रूकती है, तो पडोसी दुश्मन देश हमारे देश से आगे निकल जाते हैं। ....इसीलिए ये दुश्मन देश भी इनके NGO को पैसा, हथियार देते रहते हैं, जिससे ये वामपंथी नामक जोंकें और फलती फूलती मोटी होती हैं, तथा दुगने रफ़्तार से खून चूसती हैं।
इन जोंकों का कोई सगा नहीं होता है। बहुत बार तो सरकार पर दबाव बनाने के लिए, अपनी साथी किसी जोंक को, जो इनकी असलियत जान लेता है, जैसे रोहित वेमुल्ला,.. इत्यादि को ही मारकर सरकार पर इल्जाम लगा देते हैं। इनके शासन काल के दौरान, पश्चिम बंगाल में ऐसे कितने लोग गुमनाम मर गए जिनकी लाशें तक नहीं मिलीं। एक स्ट्रिंग ऑपरेशन में इनका ही एक नेता एक बार कबूल रहा था,.. गड्ढा खोद कर उसमें बॉडी डाल कर ऊपर से नमक डाल देते हैं, हड्डियाँ तक गल जाती हैं। ...और इस कबूलनामे के बाद उसकी खुद की बॉडी का पता नहीं चला।
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- मूल लेखक का पता नहीं
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