पंचमहाभूतों से दोषों की उत्पत्ति ...
वात, पित्त, कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। इन तीनों को धातु भी कहा जाता है। धातु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये शरीर को धारण करते हैं। चूंकि त्रिदोष, धातु और मल को दूषित करते हैं, इसी कारण से इनको ‘दोष’ कहते हैं।
क्या आप जानते हैं कि शरीर में होने वाली कोई भी बीमारी वात-पित्त और कफ के बिगड़ने से होती है। सिर से लेकर छाती के बीच तक के रोग कफ बिगड़ने से होते हैं। छाती के बीच से लेकर पेट और कमर के अंत तक में होने वाले रोग पित्त बिगड़ने के कारण होते हैं। और कमर से लेकर घुटने और पैरों के अंत तक होने वाले रोग वात बिगड़ने के कारण होते हैं।
आयुर्वेद साहित्य शरीर के निर्माण में दोष, धातु मल को प्रधान माना है और कहा गया है कि दोष धातु मल मूलं ही शरीरम्। आयुर्वेद का प्रयोजन शरीर में स्थित इन दोष, धातु एवं मलों को साम्य अवस्था में रखना जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य बना रहे एवं दोष धातु मलों की असमान्य अवस्था होने पर उत्पन्न विकृति या रोग की चिकित्सा करना है।
शरीरगत् दोष
वात, पित्त, कफ – ये तीन शारीरिक दोष माने गये हैं। ये दोष असामान्य आहार-विहार से विकृत या दूषित हो जाते है इसलिए इसे ‘दोष’ कहा जाता है। शरीरगत् अन्य धातु आदि तत्व इन्हे दोषों के द्वारा दूषित होता है। इन तीनो दोषों को शरीर का स्तम्भ कहा जाता है। दोष, धातु, मल प्राकृतिक रूप से रहकर उचित आहार-विहार करने वाल शरीर धारण करते है। इनके प्राकृत अवस्था एवं सम मात्रा ही शरीर को स्वस्थ रखता है, यदि इनका क्षय या वृद्धि होती है, तो शरीर में विकृति या रोग उत्पन्न हो जाती है।
पंचमहाभूतों से दोषों की उत्पत्ति
1. सृष्टि में व्याप्त वायु महाभूत से शरीरगत वात दोष की उत्पति होती है
2. अग्नि से पित्त दोष की।
3. जल तथा पृथ्वी महाभूतों से कफ दोष की उत्पति होती है।
तीनों दोषों में सर्वप्रथम वात दोष ही विरूद्ध आहार-विहार से प्रकुपित होता है और अन्य दोष एवं धातु को दूषित कर रोग उत्पन्न करता है। वात दोष प्राकृत रूप से प्राणियों का प्राण माना गया है। आयुर्वेद शास्त्र में शरीर रचना, क्रिया एवं विकृतियों का वर्णन एवं भेद और चिकित्सा व्यवस्था दोषों के अनुसार ही किया जाता है।
वात दोष के पांच भेद:
1- प्राण वात
यह वायु निरन्तर मुख में रहती है और इस प्रकार यह प्राणों को धारण करती है, जीवन प्रदान करती है और जीव को जीवित रखती है। इसी वायु की सहायता से खाया पिया अन्दर जाता है। जब यह वायु कुपित होती है तो हिचकी, श्वांस और इन अंगों से संबंधित विकार होते हैं।
2- समान वात
यह वायु आमाशय और पक्वाशय में रहनें वाली अग्नि, जिसे जठराग्नि कहते हैं, से मिलकर अन्न का पाचन करती है और मलमूत्र को पृथक पृथक करती है। जब यह वायु कुपित होती है तब मन्दाग्नि, अतिसार और वायु गोला प्रभृति रोग होते हैं।
3- उदान वात
उदान वायु गले में रहती है। इसी वायु की शक्ति से मनुष्य स्वर निकालता हैं, बोलता है, गीत गाता है और निम्न, मध्यम और उच्च स्वर में बात करता है।
4- अपान वात
यह वायु पक्वाशय में रहती है तथा इसका कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकालना है। जब यह कुपित होती है तब मूत्राशय और गुदा से संबंधित रोग होते हैं।
5- व्यान वात
यह वायु समस्त शरीर में धूमती है। इसी वायु के प्रभाव से रस, रक्त तथा अन्य जीवनोपयोगी तत्व सारे शरीर में बहते रहते हैं। शरीर के समस्त कार्यकलाप और कार्य करनें की चेष्टायें बिना व्यान वायु के सम्पन्न नहीं हो सकती हैं। जब यह कुपित होती है तो समस्त शरीर के रोग पैदा करती है।
पित्त दोष के पांच भेद
1- साधक पित्त
मेधा और धारण शक्ति को बढाता है।
2- भ्राजक पित्त
यह चमडे मे रहता है और कान्ति उत्पन्न करता है। त्वचा के समस्त रोग और व्याधियां इसी पित्त की विकृति से होती हैं। शरीर मे किये गये लेप, मालिश, औषधि स्नान आदि के पाचन कार्य यही पित्त करता है।
3- रंजक पित्त
यह पित्त रंगनें का कार्य करता है। रक्त की लाली, त्वचा का रंग, आंखों की पुतलियों का रंग रंगनें का कार्य करनें से इसे रंजक पित्त कहते हैं। यह यकृत और प्लीहा में रहकर रक्त का र्निमाण करता है।
4- आलोचक पित्त
5- पाचक पित्त
यह पित्त चूंकि भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य इन चार प्रकार के भोजनों को पचाता है, इसलिये इसे पाचक पित्त कहते हैं।
कफ दोष के पांच भेद
1- क्लेदन कफ
यह कफ अन्न को गीला करता है और आमाशय में रहता है तथा अन्न को अलग अलग करता है।
2- अवलम्बन कफ
यह हृदय में रहता है और अपनें अवलम्बन कर्म द्वारा हृदय का पोषण करता है।
3- श्लेष्मन कफ
यह कफ सन्धियों में रहता है और इन स्थानों को कफ विहीन नहीं करता है। रसन कफ: यह कन्ठ में रहता है और रस को गृहण करता है। कड़वे और चरपरे रसों का ज्ञान इसी से होता है।
4- रसन कफ
यह कन्ठ में रहता है और रस को गृहण करता है। कड़वे और चरपरे रसों का ज्ञान इसी से होता है।
5- स्नेहन कफ
यह कफ मस्तक में रहता है और शरीर की समस्त इन्द्रियों को तृप्त करता है। इसी कारण समस्त इंद्रियां अपनें अपनें कामों में सामर्थ्यान होती हैं।
वात, पित्त, कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। इन तीनों को धातु भी कहा जाता है। धातु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये शरीर को धारण करते हैं। चूंकि त्रिदोष, धातु और मल को दूषित करते हैं, इसी कारण से इनको ‘दोष’ कहते हैं।
क्या आप जानते हैं कि शरीर में होने वाली कोई भी बीमारी वात-पित्त और कफ के बिगड़ने से होती है। सिर से लेकर छाती के बीच तक के रोग कफ बिगड़ने से होते हैं। छाती के बीच से लेकर पेट और कमर के अंत तक में होने वाले रोग पित्त बिगड़ने के कारण होते हैं। और कमर से लेकर घुटने और पैरों के अंत तक होने वाले रोग वात बिगड़ने के कारण होते हैं।
आयुर्वेद साहित्य शरीर के निर्माण में दोष, धातु मल को प्रधान माना है और कहा गया है कि दोष धातु मल मूलं ही शरीरम्। आयुर्वेद का प्रयोजन शरीर में स्थित इन दोष, धातु एवं मलों को साम्य अवस्था में रखना जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य बना रहे एवं दोष धातु मलों की असमान्य अवस्था होने पर उत्पन्न विकृति या रोग की चिकित्सा करना है।
शरीरगत् दोष
वात, पित्त, कफ – ये तीन शारीरिक दोष माने गये हैं। ये दोष असामान्य आहार-विहार से विकृत या दूषित हो जाते है इसलिए इसे ‘दोष’ कहा जाता है। शरीरगत् अन्य धातु आदि तत्व इन्हे दोषों के द्वारा दूषित होता है। इन तीनो दोषों को शरीर का स्तम्भ कहा जाता है। दोष, धातु, मल प्राकृतिक रूप से रहकर उचित आहार-विहार करने वाल शरीर धारण करते है। इनके प्राकृत अवस्था एवं सम मात्रा ही शरीर को स्वस्थ रखता है, यदि इनका क्षय या वृद्धि होती है, तो शरीर में विकृति या रोग उत्पन्न हो जाती है।
पंचमहाभूतों से दोषों की उत्पत्ति
1. सृष्टि में व्याप्त वायु महाभूत से शरीरगत वात दोष की उत्पति होती है
2. अग्नि से पित्त दोष की।
3. जल तथा पृथ्वी महाभूतों से कफ दोष की उत्पति होती है।
तीनों दोषों में सर्वप्रथम वात दोष ही विरूद्ध आहार-विहार से प्रकुपित होता है और अन्य दोष एवं धातु को दूषित कर रोग उत्पन्न करता है। वात दोष प्राकृत रूप से प्राणियों का प्राण माना गया है। आयुर्वेद शास्त्र में शरीर रचना, क्रिया एवं विकृतियों का वर्णन एवं भेद और चिकित्सा व्यवस्था दोषों के अनुसार ही किया जाता है।
वात दोष के पांच भेद:
1- प्राण वात
यह वायु निरन्तर मुख में रहती है और इस प्रकार यह प्राणों को धारण करती है, जीवन प्रदान करती है और जीव को जीवित रखती है। इसी वायु की सहायता से खाया पिया अन्दर जाता है। जब यह वायु कुपित होती है तो हिचकी, श्वांस और इन अंगों से संबंधित विकार होते हैं।
2- समान वात
यह वायु आमाशय और पक्वाशय में रहनें वाली अग्नि, जिसे जठराग्नि कहते हैं, से मिलकर अन्न का पाचन करती है और मलमूत्र को पृथक पृथक करती है। जब यह वायु कुपित होती है तब मन्दाग्नि, अतिसार और वायु गोला प्रभृति रोग होते हैं।
3- उदान वात
उदान वायु गले में रहती है। इसी वायु की शक्ति से मनुष्य स्वर निकालता हैं, बोलता है, गीत गाता है और निम्न, मध्यम और उच्च स्वर में बात करता है।
4- अपान वात
यह वायु पक्वाशय में रहती है तथा इसका कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकालना है। जब यह कुपित होती है तब मूत्राशय और गुदा से संबंधित रोग होते हैं।
5- व्यान वात
यह वायु समस्त शरीर में धूमती है। इसी वायु के प्रभाव से रस, रक्त तथा अन्य जीवनोपयोगी तत्व सारे शरीर में बहते रहते हैं। शरीर के समस्त कार्यकलाप और कार्य करनें की चेष्टायें बिना व्यान वायु के सम्पन्न नहीं हो सकती हैं। जब यह कुपित होती है तो समस्त शरीर के रोग पैदा करती है।
पित्त दोष के पांच भेद
1- साधक पित्त
मेधा और धारण शक्ति को बढाता है।
2- भ्राजक पित्त
यह चमडे मे रहता है और कान्ति उत्पन्न करता है। त्वचा के समस्त रोग और व्याधियां इसी पित्त की विकृति से होती हैं। शरीर मे किये गये लेप, मालिश, औषधि स्नान आदि के पाचन कार्य यही पित्त करता है।
3- रंजक पित्त
यह पित्त रंगनें का कार्य करता है। रक्त की लाली, त्वचा का रंग, आंखों की पुतलियों का रंग रंगनें का कार्य करनें से इसे रंजक पित्त कहते हैं। यह यकृत और प्लीहा में रहकर रक्त का र्निमाण करता है।
4- आलोचक पित्त
5- पाचक पित्त
यह पित्त चूंकि भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य इन चार प्रकार के भोजनों को पचाता है, इसलिये इसे पाचक पित्त कहते हैं।
कफ दोष के पांच भेद
1- क्लेदन कफ
यह कफ अन्न को गीला करता है और आमाशय में रहता है तथा अन्न को अलग अलग करता है।
2- अवलम्बन कफ
यह हृदय में रहता है और अपनें अवलम्बन कर्म द्वारा हृदय का पोषण करता है।
3- श्लेष्मन कफ
यह कफ सन्धियों में रहता है और इन स्थानों को कफ विहीन नहीं करता है। रसन कफ: यह कन्ठ में रहता है और रस को गृहण करता है। कड़वे और चरपरे रसों का ज्ञान इसी से होता है।
4- रसन कफ
यह कन्ठ में रहता है और रस को गृहण करता है। कड़वे और चरपरे रसों का ज्ञान इसी से होता है।
5- स्नेहन कफ
यह कफ मस्तक में रहता है और शरीर की समस्त इन्द्रियों को तृप्त करता है। इसी कारण समस्त इंद्रियां अपनें अपनें कामों में सामर्थ्यान होती हैं।
No comments:
Post a Comment