Saturday, 21 November 2015

तवलीन सिंह का कॉलम वक़्त की नब्ज़ : जिहाद बनाम जकड़बंदी


जब से पेरिस में जिहादी हमले हुए हैं, दो झूठ अपने भारत देश में इतनी बार बोले गए हैं कि सुनते-सुनते मेरे कान पक गए हैं। पहला यह कि इन बर्बर हमलों का इस्लाम से कोई वास्ता नहीं है और दूसरा यह कि दुनिया के सारे मजहब एक जैसे हैं। ये दोनों झूठ रोज आपने भी टीवी चर्चाओं में सुने होंगे, अखबारों में पढ़े होंगे। इतनी बार मैंने खुद सुने कि ऐसा लगने लगा मुझे जैसे हम सच का सामना करने से डरते हैं, क्योंकि जानते हैं कि हम उस देश के वासी हैं जहां सबसे बड़ी मुसलिम आबादी है इंडोनेशिया के बाद। सो, आदत-सी डाल ली है हमने धर्म-मजहब के मामलों में फंूक-फूंक के चलने की। ऐसा करने से हमने कभी उस कड़वे सच का सामना नहीं किया है कि जिहादी आतंकवाद का रिश्ता पूरी तरह इस्लाम से है।
आइएस या दाएश ने खुद कबूल किया पेरिस में सौ से ज्यादा बेगुनाह लोगों को मारने के बाद कि ये हमले सिर्फ इसलिए हुए हैं, क्योंकि इस्लाम की नजरों में पेरिस ऐसा शहर है, जहां हर किस्म के गुनाहों की बदबू आती है। इस्लाम में संगीत हराम है, सो एक संगीतगृह को निशाना बनाया गया। इस्लाम में शराब हराम है, सो बाकी हमले हुए ऐसी जगहों पर, जहां लोग अक्सर खाने के साथ वाइन पीते हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति ने भी कबूल किया कि ये हमले किए गए थे फ्रांसीसी तौर-तरीकों, फ्रांसीसी सभ्यता को खत्म करने के मकसद से। लेकिन भारत में हम आज भी कहते आ रहे हैं कि इन हमलों का इस्लाम से कोई वास्ता नहीं था।
सच तो यह है कि हर जिहादी हमले का गहरा वास्ता है उस इस्लाम से, जो पंद्रह सौ साल पहले कायम था हजरत मोहम्मद के जमाने में। जिहादी हमलावर बार-बार कह चुके हैं कि वह उस जमाने को दोबारा जिंदा करना चाहते हैं, सो उस समय के उसूलों के मुताबिक महिलाओं को पुराने किस्म का लिबास पहनने पर मजबूर किया जाता है उस देश में, जहां आइएस का राज है। उस खिलाफत में शरीअत के मुताबिक सजाएं भी दी जाती हैं, सो काफिरों को बेरहमी से मारा जाता है और उनकी औरतों को बाजारों में बेचते हैं इस्लाम के ये नए मुजाहिद। लेकिन फिर भी हमारे राजनीतिक पंडित कहते हैं कि जिहादियों का कोई रिश्ता नहीं है इस्लाम से। माना कि उनका इस्लाम कट्टरपंथी है, लेकिन बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह इस्लाम हुआ करता था पंद्रह सौ वर्ष पहले।
एक और झूठ है, जिसको बार-बार दोहराया गया है पेरिस के हमलों के बाद अपने भारत देश में और वह यह है कि हर मजहब का एक ही संदेश है। जो लोग ऐसा मानते हैं, वे शायद नहीं जानते कि अपने इस सनातन धर्म वाले देश में वे हमारी सभ्यता का कितना अपमान कर रहे हैं। सच तो यह है कि संस्कृत में मजहब का अनुवाद नहीं किया जा सकता, क्योंकि हमारी संस्कृति में ये शब्द हैं ही नहीं। मजहब का अनुवाद हम धर्म में करते हैं, लेकिन हम सब जानते हैं कि धर्म शब्द का अर्थ कुछ और है। हम यह भी जानते हैं कि भारत में जो धार्मिक गुरु रहे हैं, उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि दुनिया में काफिर भी होते हैं। इस्लाम ऐसा मानता है और यह भी मानता है कि जहां हम जैसे बुतपरस्त काफिर रहते हैं, वह जगह दार-उल-हरब है, यानी ऐसी जगह, जिस पर सच्चे मुसलमानों का फर्ज बनता है जिहाद करना।
जब तक हम हिम्मत करके सच का सामना नहीं करेंगे, तब तक इस बात को स्वीकार नहीं कर पाएंगे कि भारतीय इस्लाम के अंदर एक गंभीर संकट है, जो पैदा हुआ 9/11 के हमलों के बाद। याद है मुझे कि इन हमलों के बाद जब भी मैंने मुसलमानों से इनके बारे में बात की, हमेशा यही सुनने को मिला कि इन हमलों को मुसलमान कर ही नहीं सकते हैं, क्योंकि इस्लाम में महापाप है बेगुनाह लोगों को मारना। फिर यही लोग कहा करते थे कि इन हमलों को अमेरिकी सरकार ने खुद कराया, ताकि इराक पर युद्ध करने के लिए बहाना मिल जाए। इस तथाकथित इस्लाम को बदनाम करने की साजिश पर किताबें भी छपी इस्लामी देशों में। फिर जब अजमल कसाब और उसके साथी मुंबई पर हमला करने आए तो इन हमलों को भी इस्लाम को बदनाम करने का षड्यंत्र कहा गया और ‘26/11: आरएसएस की साजिश’ नाम की किताब छपी, जिसका खुल कर समर्थन दिग्विजय सिंह और अब्दुल रहमान अंतुले जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी राजनेताओं ने किया।
इस तरह झूठ पर झूठ अगर हम बोलते जाएंगे, तो कैसे उस सच का सामना करेंगे कभी कि इस्लाम के अंदर गंभीर संकट पैदा हो गया है अपने देश में भी? इतना बड़ा संकट कि भारतीय इस्लाम का रूप ही बदल गया है पिछले दो दशकों में। क्या आज भारत का एक भी मुसलिम शायर कह सकेगा जैसे गालिब ने कभी कहा था कि ‘खुदा के वास्ते परदा न काबे से हटा जाहिद, कहीं ऐसा न हो वां भी यही काफिर सनम निकले’? हम जानते हैं कि न सिर्फ इस किस्म की बातें नहीं की जा सकती हैं अपने देश में, आज हम यह भी जानते हैं कि वहाबी इस्लाम हमारे देश के इस्लाम से बिल्कुल अलग है और इस इस्लाम के आने से भारतीय इस्लाम की शक्ल बिल्कुल बदल चुकी है। जहां इमामों के खुत्बों में बातें होती थीं अमन-शांति की, आज उन्हीं खुत्बों से पैगाम आता है कि एक तरफ हैं सच्चे मुसलिम और खुदा के बंदे और दूसरी तरफ हैं काफिर और बुतपरस्त लोग, जो दुश्मन हैं इस्लाम के। इस कड़वे सच को स्वीकार करने को तैयार होना जरूरी है, ताकि हम भारतीय इस्लाम को सुरक्षित रख सकें उस कट््टरपंथी इस्लाम से, जो आइएस की नई खिलाफत से फैल रही है दुनिया में।

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