और संन्यासी बन गया सेनानायक!
By Madhu Dhama
‘‘वैरागी तुम महान हो।’’ गुरु गोबिन्द सिंह बोले, ‘‘तुमने कठिन तपस्या से वैराग्य की चरम सीमा प्राप्त कर ली है। तुम अनुपम ब्रह्मचारी हो।’’
‘‘यह तो आप जैसे संतों का ही प्रताप है।’’
‘‘नहीं यह आपकी तपस्या का फल है।’’ गुरु गोबिन्द सिंह बोले, ‘‘तुम्हारे भीतर एक और प्रतिभा भी मैं देख रहा हूं, उसके लिए भी तुम अभिनन्दनीय हो।’’
‘‘अर्थात्!’’
‘‘मैं देख रहा हूं, तुम्हारे रक्त में वीरत्व लहलहा रहा है। तुम्हारे मस्तक पर क्षात्र का तेज दमक रहा है। तुम्हारे वक्ष में हिमालय की दृढ़ता उभरी हुई है। और यह सब व्यर्थ है।’’
‘‘व्यर्थ है...मतलब?’’
‘‘जब तक तुम्हारा यह शरीर अपने देश, जाति और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान नहीं होगा, तब तक तुम्हारी तपस्या व्यर्थ ही है।’’
‘‘आज्ञा करें गुरुदेव।’’
‘‘औरंगजेब ने चारों तरफ हाहाकार मचा रखा है। हिन्दुओं का उसने जीना दूभर कर दिया है। ऐसे नीच को इस संसार में जीने का अधिकार नहीं और उसे दंड तुम्हारे जैसे वीर ही दे सकते हैं।’’
‘‘गुरुदेव, लेकिन मैं संसार को छोड चुका हूं, मेरा मार्ग संन्यास का है।’’ वैरागी बोला, ‘‘सांसारिक सुख-दुख से प्रभावित होना पुनः मोह-जाल में फंसने के बराबर है, जिसे लांघ कर मैं इस मार्ग पर अग्रसर हुआ हूं।’’
‘‘तुम सच्चे वैरागी हो, मैं मानता हूं।’’ गुरु गोबिन्द सिंह बोले, ‘‘लेकिन यदि हर समर्थ और वीर व्यक्ति यही ठान ले तो देश की रक्षा कौन करेगा?’’
‘‘आप ठीक कहते हैं।’’ वैरागी बोला, ‘‘लेकिन क्या मेरे लिए यह उपयुक्त होगा कि मैं इस मार्ग को छोड़ कर पुनः सांसारिक मोह में बंध जाऊं?’’
‘‘मोह में बंधने की बात मैं नहीं कहता। मैं तो केवल इतना कहता हूं कि तपस्या आत्मबल का साधन होती है, उसका सही उपयोग कर्म मार्ग में है निवृति में नहीं।’’ गुरु गोबिन्द सिंह बोले ‘‘अत्याचारियों से देश-धर्म की रक्षा करने के लिए शस्त्रा उठाना ही कर्मयोग है।’’
गुरु गोबिन्द सिंह की तलवार उस समय लकड़ी की चौकी पर रखी हुई थी। वैरागी ने झपट कर वह तलवार उठा ली। उसके शिष्य यह देख चकित रह गए, ‘‘मैं इस तलवार की सौगन्ध लेता हूं गुरुवर।’’ वैरागी बोला, ‘‘जब तक मैं शत्राुओं से प्रतिशोध नहीं ले लूंगा, जब तक उनको मां के वक्ष से खदेड़ नहीं दूंगा, तब तक चैन से नहीं बैठूंगा।
‘‘यह तो आप जैसे संतों का ही प्रताप है।’’
‘‘नहीं यह आपकी तपस्या का फल है।’’ गुरु गोबिन्द सिंह बोले, ‘‘तुम्हारे भीतर एक और प्रतिभा भी मैं देख रहा हूं, उसके लिए भी तुम अभिनन्दनीय हो।’’
‘‘अर्थात्!’’
‘‘मैं देख रहा हूं, तुम्हारे रक्त में वीरत्व लहलहा रहा है। तुम्हारे मस्तक पर क्षात्र का तेज दमक रहा है। तुम्हारे वक्ष में हिमालय की दृढ़ता उभरी हुई है। और यह सब व्यर्थ है।’’
‘‘व्यर्थ है...मतलब?’’
‘‘जब तक तुम्हारा यह शरीर अपने देश, जाति और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान नहीं होगा, तब तक तुम्हारी तपस्या व्यर्थ ही है।’’
‘‘आज्ञा करें गुरुदेव।’’
‘‘औरंगजेब ने चारों तरफ हाहाकार मचा रखा है। हिन्दुओं का उसने जीना दूभर कर दिया है। ऐसे नीच को इस संसार में जीने का अधिकार नहीं और उसे दंड तुम्हारे जैसे वीर ही दे सकते हैं।’’
‘‘गुरुदेव, लेकिन मैं संसार को छोड चुका हूं, मेरा मार्ग संन्यास का है।’’ वैरागी बोला, ‘‘सांसारिक सुख-दुख से प्रभावित होना पुनः मोह-जाल में फंसने के बराबर है, जिसे लांघ कर मैं इस मार्ग पर अग्रसर हुआ हूं।’’
‘‘तुम सच्चे वैरागी हो, मैं मानता हूं।’’ गुरु गोबिन्द सिंह बोले, ‘‘लेकिन यदि हर समर्थ और वीर व्यक्ति यही ठान ले तो देश की रक्षा कौन करेगा?’’
‘‘आप ठीक कहते हैं।’’ वैरागी बोला, ‘‘लेकिन क्या मेरे लिए यह उपयुक्त होगा कि मैं इस मार्ग को छोड़ कर पुनः सांसारिक मोह में बंध जाऊं?’’
‘‘मोह में बंधने की बात मैं नहीं कहता। मैं तो केवल इतना कहता हूं कि तपस्या आत्मबल का साधन होती है, उसका सही उपयोग कर्म मार्ग में है निवृति में नहीं।’’ गुरु गोबिन्द सिंह बोले ‘‘अत्याचारियों से देश-धर्म की रक्षा करने के लिए शस्त्रा उठाना ही कर्मयोग है।’’
गुरु गोबिन्द सिंह की तलवार उस समय लकड़ी की चौकी पर रखी हुई थी। वैरागी ने झपट कर वह तलवार उठा ली। उसके शिष्य यह देख चकित रह गए, ‘‘मैं इस तलवार की सौगन्ध लेता हूं गुरुवर।’’ वैरागी बोला, ‘‘जब तक मैं शत्राुओं से प्रतिशोध नहीं ले लूंगा, जब तक उनको मां के वक्ष से खदेड़ नहीं दूंगा, तब तक चैन से नहीं बैठूंगा।
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