Sunday, 15 November 2015

गांधी ने नहीं चलाया था असहयोग आंदोलन
प्रस्तुति: मधु धामा (फरहाना ताज)
एक किसान गाडी में गन्ने लेकर जा रहा था, आगे से एक अंग्रेज साहब आ गए। अंग्रेज ने किसान से कुछ कहा और किसान ने अपने गन्ने नीचे गिरा दिए, गाडी लेकर अंग्रेज अफसर के साथ उसका सामान ढोने चला गया। एक संन्यासी इस घटना को देख रहा था। वह गन्नों के निकट जब तक बैठा रहा, तब तक कि किसान वापस नहीं आया। संन्यासी ने किसान से पूछा, ‘आपको अंग्रेज सरकार ने कितने पैसे दिए!’
‘एक धेला भी नहीं!’ किसान बोला।
‘और तुमने अपना काम छोडकर, अपने गन्ने बीच रास्ते में गिराकर अंग्रेज साहब का सामान फोकट में ढोया!’
‘क्या करें महाराज बेगारी तो करनी पड़ेगी सरकारी नियम जो है।’
जी हां यह थी बेगारी प्रथा...वह संन्यासी उस किसान के साथ गांव में चला गया और किसानों को उपदेश में बेगारी प्रथा का विरोध करने का मंत्र दिया। उस किसान का नाम गोविंद था, जिसे संन्सासी ने अपना शिष्य बनाया और उसके नाम के आगे गुरु शब्द और जोड़ दिया और आदेश दिया कि सभी किसानों के अब आप गुरु हो। वह संन्यासी और कोई नहीं आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती थे।
गोविंद गुरु का जन्म विक्रमी संवत 1915 मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा यानी 20 दिसंबर 1858 को तत्कालीन डूंगरपुर राज्य के बांसिया गांव में हुआ था।
उन्होंने सन 1883 में संप सभा बनाकर 1913 तक असहयोग आंदोलन चलाया। इस असहयोग आंदोलन को कुचलने के लिए खेरवाडा छावनी के सिपाहियों एवं गुजरात की फौजों ने मानागारु की पहाड़ी पर 17 नवंबर 1913 को 1500 आंदोलनकारियों की लाशें बिछा दी थी। अफसोस जलियावाला बाग सभी को याद है, लेकिन यह असहयोग आंदोलनकारियों का बलिदान किसी को याद नहीं, यदि याद रहता तो मार्च 1920 का गांधी जी का असहयोग आंदोलन फीका पड़ जाता और फिर असहयोग आंदोलन के प्रणेता गांधी न माने जाते।
गोविंद गुरु के असहयोग आंदोलन के कुछ नियम:
शराब न पीओ, मांसाहार त्यागो और सरकार द्वारा शराब बिक्री का विरोध करो
सभी फैसले पंचायत करे, अदालत में मत जाओ
स्वदेशी वस्त्र पहनो..विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करो
अंग्रेज और जागीरदार को कर देना बंद करो और
दासता, बेगार व कुली प्रथा बंद करो...और हमारे बच्चों को पढाया जाता है कि असहयोग आंदोलन के जन्मदाता गांधी बाबा थे?
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गुजरात में गांधी के गृहनगर में पिछले 300 साल से एक मंदिर में लकड़ी के ऐसे तीन बंदर विशिष्ट पूजा करने वालों को प्रदान किए जाते हैं, जिसमें एक बंदर के हाथ कानों पर, एक के मुख पर और एक के आंखों पर होते हैं। यहां मनुस्मृति के इस मंत्र की शिक्षा दी जाती है कि सज्जन पुरुष यानी साधु मुख से बुरा न बोलें, नासिका से दुर्गंध न सूंघे, आंखों से बुरा न देखे और कानों से बुरा न सुनें।
क्रुद्धय्न्तं न प्रतिकु्रध्येदाकु्रष्टः कुशलं वदेत्
सप्तद्वारवकीर्णा च न वाचननृतां वदेत्
मनु 6-48................अब तीन बंदरों पर भी नकलची गांधीवाद वालों का कब्जा हो गया....वाह रे इतिहासकारों....
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संदर्भ: 1. गोविन्द गुरु और दयानंद, लेखक मुनेश जोशी संस्करण 1934
2. 1857 की क्रांति मंे मेरठ का योगदान, लेखक आचार्य दीपांकर
3. हमारी विरासत, लेखक तेजपाल सिंह धामा
4. स्वामी दयानंद स्मारिका, 1975 अजमेर--------------------
चित्र में उन शहीदों का स्मारक, एवं दयानंद के शिष्य गोविंद गुरु की प्रतिमा

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