वेदव्यासों द्वारा वेद मन्त्रों का संकलन-
28 वेदव्यास हुए थे, अर्थात् 28 बार वेदों का संकलन हुआ। कई बार वेद लुप्त भी हुए हैं। उनका हयग्रीव, वराह तथा मत्स्य अवतारों द्वारा उद्धार हुआ है।
केवल दयानन्द द्वारा सुनी हुई संहितायें ही वेद नहीं हैं। ऋक् वेद की सभी 21 संहितायें ऋक् वेद हैं। उनमें अभी 3 उपलब्ध हैं-शाकल्य, वाष्कल, शांख्यायन। इसी प्रकार यजुर्वेद की सभी 101 शाखायें यजुर्वेद हैं। शुक्ल की 2 तथा कृष्ण की 4 शाखा उपलब्ध हैं-काण्व, माध्यन्दिन, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, कपिष्ठल। सामवेद की आकाश में 1000 तथा शब्द रूप में 13 शाखा हैं जिनमें 3 उपलब्ध हैं-कौथुमी, जैमिनीय, राणायनीय। अथर्ववेद की आकाश में 50 तथा शब्द रूप में 9 शाखा हैं जिनमें 2 उपलब्ध हैं-शौनक, पैप्पलाद।
वेद मन्त्र समझने लायक, भाषा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, कल्प, शिक्षा का जब तक विकास नहीं हो तब तक किसी भी मनुष्य को तथाकथित ईश्वर वेद नहीं दे सकता। इसमें प्रत्येक मन्त्र में ऋषि के उल्लेख से ही स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न स्थान और काल के ऋषियों को मन्त्र का दर्शन हुआ था। इनका संकलन 28 बार 28 व्यासों द्वारा हुआ है।
ब्रह्म के कई स्तर हैं। परात्पर में निर्विशेष या सविशेष द्वारा कोई मन्त्र नहीं दिया जा सकता। ईश्वर रूप सभी प्राणियों के हृदय में रह कर नियन्त्रण करता है (गीता, 18/61)। उसकी प्रेरणा से अनुभव हो सकता है। वह परा वाणी के स्तर पर होगा। उसको पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के स्तर पर व्यक्त करना मनुष्य ऋषि का काम है। अव्यक्त परा वाक् को व्यक्त वाणी के मन्त्र में प्रकट करने से वह शाश्वत होता है जैसा ईशावास्योपनिषद (काण्व संहिता, अध्याय 40) में लिखा है-
स पर्यगात् शुक्रं अकायं अस्नाविरं, शुद्धं अपापविद्धं कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।
मनुष्य ऋषियों द्वारा अलग अलग मन्त्र का दर्शन होने पर भी 3 प्रकार से वेद अपौरुषेय है-
(1) मन्त्र दर्शन के समय ऋषि अपने व्यक्तित्व से स्वतन्त्र था।
(2) यह किसी एक व्यक्ति का मत नहीं है। भिन्न भिन्न ऋषियों के मन्त्रों के संकलन रूप में औसत है।
(3) 5 प्रकार के ज्ञानेन्द्रिय द्वारा प्राप्त ज्ञान के अतिरिक्त इसमें 2 प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञान भी हैं। इनके माध्यम के रूप में 5 सत् प्राण तथा 2 अतिरिक्त असत् प्राण (परोरजा, ऋषि) वेद में वर्णित हैं।
28 वेदव्यास हुए थे, अर्थात् 28 बार वेदों का संकलन हुआ। कई बार वेद लुप्त भी हुए हैं। उनका हयग्रीव, वराह तथा मत्स्य अवतारों द्वारा उद्धार हुआ है।
केवल दयानन्द द्वारा सुनी हुई संहितायें ही वेद नहीं हैं। ऋक् वेद की सभी 21 संहितायें ऋक् वेद हैं। उनमें अभी 3 उपलब्ध हैं-शाकल्य, वाष्कल, शांख्यायन। इसी प्रकार यजुर्वेद की सभी 101 शाखायें यजुर्वेद हैं। शुक्ल की 2 तथा कृष्ण की 4 शाखा उपलब्ध हैं-काण्व, माध्यन्दिन, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, कपिष्ठल। सामवेद की आकाश में 1000 तथा शब्द रूप में 13 शाखा हैं जिनमें 3 उपलब्ध हैं-कौथुमी, जैमिनीय, राणायनीय। अथर्ववेद की आकाश में 50 तथा शब्द रूप में 9 शाखा हैं जिनमें 2 उपलब्ध हैं-शौनक, पैप्पलाद।
वेद मन्त्र समझने लायक, भाषा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, कल्प, शिक्षा का जब तक विकास नहीं हो तब तक किसी भी मनुष्य को तथाकथित ईश्वर वेद नहीं दे सकता। इसमें प्रत्येक मन्त्र में ऋषि के उल्लेख से ही स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न स्थान और काल के ऋषियों को मन्त्र का दर्शन हुआ था। इनका संकलन 28 बार 28 व्यासों द्वारा हुआ है।
ब्रह्म के कई स्तर हैं। परात्पर में निर्विशेष या सविशेष द्वारा कोई मन्त्र नहीं दिया जा सकता। ईश्वर रूप सभी प्राणियों के हृदय में रह कर नियन्त्रण करता है (गीता, 18/61)। उसकी प्रेरणा से अनुभव हो सकता है। वह परा वाणी के स्तर पर होगा। उसको पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के स्तर पर व्यक्त करना मनुष्य ऋषि का काम है। अव्यक्त परा वाक् को व्यक्त वाणी के मन्त्र में प्रकट करने से वह शाश्वत होता है जैसा ईशावास्योपनिषद (काण्व संहिता, अध्याय 40) में लिखा है-
स पर्यगात् शुक्रं अकायं अस्नाविरं, शुद्धं अपापविद्धं कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।
मनुष्य ऋषियों द्वारा अलग अलग मन्त्र का दर्शन होने पर भी 3 प्रकार से वेद अपौरुषेय है-
(1) मन्त्र दर्शन के समय ऋषि अपने व्यक्तित्व से स्वतन्त्र था।
(2) यह किसी एक व्यक्ति का मत नहीं है। भिन्न भिन्न ऋषियों के मन्त्रों के संकलन रूप में औसत है।
(3) 5 प्रकार के ज्ञानेन्द्रिय द्वारा प्राप्त ज्ञान के अतिरिक्त इसमें 2 प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञान भी हैं। इनके माध्यम के रूप में 5 सत् प्राण तथा 2 अतिरिक्त असत् प्राण (परोरजा, ऋषि) वेद में वर्णित हैं।
वेद को ३ अर्थों में अपौरुषेय कहा है-
(१) अतीन्द्रिय ज्ञान-सामान्यतः ५ ज्ञानेन्द्रियों से ५ प्राणों के माध्यम से ज्ञान होता है। अन्य २ असत् प्राणों से अतीन्द्रिय ज्ञान होता है। इनको परोरजा तथा ऋषि कहा गया है। सृष्टि का मूल ऋषि प्राण है जो सभी चेतना से परे होने के कारण असत् है। ऊपर (स्रोत) से नीचे (शिष्य) तक ज्ञान का प्रवाह परोरजा प्राण द्वारा है, यह परोऽवरीय कहा है (पर से अवर)-
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात् (मुण्डकोपनिषद् २/१/८),
पञ्च प्राणोर्मिं पञ्च बुद्ध्यादि मूलाम्। (श्वेताश्वतर उपनिषद्१/५)
परोरजसेऽसावदोम् (बृहदारण्यक ५/१४/७), परोरजा य एष तपति (भ्रुह. ५/१४/३)
परोवरीयसो ह लोकाञ्जयति, य एतदेवं विद्वान् (छान्दोग्य उपनिषद् १/९/२)
असद्वा ऽइदमग्र ऽआसीत् । तदाहः – किं तदासीदिति । ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऋषय इति । ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषन्-तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)
(२) कई ऋषियों का समन्वय- वेद मन्त्रों का दर्शन मनुष्य ऋषियों द्वारा हुआ। किन्तु कई हजार वर्षों तक विभिन्न देशों के ऋषियों द्वारा मन्त्र का दर्शन होने से उनका समन्वय अपौरुषेय है।
ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः साक्षात् कृतकर्माण ऋषयो बभूवुः। (निरुक्त १/२०)
तद्वा ऋषयः प्रति बुबुधिरे य उतर्हि ऋषय आसुः (शतपथ ब्राह्मण २/२/१/१४)
नमो ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रविद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यो। मा मामृषयो मन्त्रकृतो मन्त्रविदः प्राहु (दु) र्दैवी वाचमुद्यासम्॥ (वरदापूर्वतापिनी उपनिषद्, तैत्तिरीय आरण्यक, ४/१/१, मैत्रायणी संहिता ४/९/२)
ऋषे मन्त्रकृतां स्तोत्रैः कश्यपोद्वर्धयत् गिरः। सोऽयं नमस्य राजानं यो जज्ञे वीरुधां पतिः ॥ (ऋक् ९/११४/२)
आप्तोपदेशः शब्दः। (न्याय सूत्र १/१/७)
(३) तीन विश्वों का समन्वय-विश्व के ३ स्तरों का समन्वय जो विज्ञान के प्रयोगों द्वारा सम्भव नहीं है-आधिदैविक (आकाश की सृष्टि), आधिभौतिक (पृथ्वी पर), आध्यात्मिक (मनुष्य शरीर के भीतर)। इनका एक दूसरे की प्रतिमा रूप दर्शन परोरजा या ऋषि प्राण से सम्भव है।
स ऐक्षत प्रजापतिः (स्वयम्भूः) इमं वा आत्मनः प्रतिमामसृक्षि। आत्मनो ह्येतं प्रतिमामसृजत। ता वा एताः प्रजापतेरधि देवता असृज्यन्त-(१) अग्निः (तद् गर्भितो भूपिण्डश्च), (२) इन्द्रः (तद् गर्भितः सूर्यश्च), सोमः (तद् गर्भितः चन्द्रश्च), (४) परमेष्ठी प्राजापत्यः (स्वायम्भुवः)-शतपथ ब्राह्मण (११/६/१/१२-१३)
पुरुषोऽयं लोक सम्मित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुः आत्रेयः, यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो लोके॥ (चरक संहिता, शारीरस्थानम् ५/२),
अध्यात्ममधिभूतमधिदैवं च (तत्त्व समास ७)
किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥१॥
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्म उच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः॥३॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषस्याधिदैवतम्। (गीता, अध्याय ८)
(१) अतीन्द्रिय ज्ञान-सामान्यतः ५ ज्ञानेन्द्रियों से ५ प्राणों के माध्यम से ज्ञान होता है। अन्य २ असत् प्राणों से अतीन्द्रिय ज्ञान होता है। इनको परोरजा तथा ऋषि कहा गया है। सृष्टि का मूल ऋषि प्राण है जो सभी चेतना से परे होने के कारण असत् है। ऊपर (स्रोत) से नीचे (शिष्य) तक ज्ञान का प्रवाह परोरजा प्राण द्वारा है, यह परोऽवरीय कहा है (पर से अवर)-
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात् (मुण्डकोपनिषद् २/१/८),
पञ्च प्राणोर्मिं पञ्च बुद्ध्यादि मूलाम्। (श्वेताश्वतर उपनिषद्१/५)
परोरजसेऽसावदोम् (बृहदारण्यक ५/१४/७), परोरजा य एष तपति (भ्रुह. ५/१४/३)
परोवरीयसो ह लोकाञ्जयति, य एतदेवं विद्वान् (छान्दोग्य उपनिषद् १/९/२)
असद्वा ऽइदमग्र ऽआसीत् । तदाहः – किं तदासीदिति । ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऋषय इति । ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषन्-तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)
(२) कई ऋषियों का समन्वय- वेद मन्त्रों का दर्शन मनुष्य ऋषियों द्वारा हुआ। किन्तु कई हजार वर्षों तक विभिन्न देशों के ऋषियों द्वारा मन्त्र का दर्शन होने से उनका समन्वय अपौरुषेय है।
ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः साक्षात् कृतकर्माण ऋषयो बभूवुः। (निरुक्त १/२०)
तद्वा ऋषयः प्रति बुबुधिरे य उतर्हि ऋषय आसुः (शतपथ ब्राह्मण २/२/१/१४)
नमो ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रविद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यो। मा मामृषयो मन्त्रकृतो मन्त्रविदः प्राहु (दु) र्दैवी वाचमुद्यासम्॥ (वरदापूर्वतापिनी उपनिषद्, तैत्तिरीय आरण्यक, ४/१/१, मैत्रायणी संहिता ४/९/२)
ऋषे मन्त्रकृतां स्तोत्रैः कश्यपोद्वर्धयत् गिरः। सोऽयं नमस्य राजानं यो जज्ञे वीरुधां पतिः ॥ (ऋक् ९/११४/२)
आप्तोपदेशः शब्दः। (न्याय सूत्र १/१/७)
(३) तीन विश्वों का समन्वय-विश्व के ३ स्तरों का समन्वय जो विज्ञान के प्रयोगों द्वारा सम्भव नहीं है-आधिदैविक (आकाश की सृष्टि), आधिभौतिक (पृथ्वी पर), आध्यात्मिक (मनुष्य शरीर के भीतर)। इनका एक दूसरे की प्रतिमा रूप दर्शन परोरजा या ऋषि प्राण से सम्भव है।
स ऐक्षत प्रजापतिः (स्वयम्भूः) इमं वा आत्मनः प्रतिमामसृक्षि। आत्मनो ह्येतं प्रतिमामसृजत। ता वा एताः प्रजापतेरधि देवता असृज्यन्त-(१) अग्निः (तद् गर्भितो भूपिण्डश्च), (२) इन्द्रः (तद् गर्भितः सूर्यश्च), सोमः (तद् गर्भितः चन्द्रश्च), (४) परमेष्ठी प्राजापत्यः (स्वायम्भुवः)-शतपथ ब्राह्मण (११/६/१/१२-१३)
पुरुषोऽयं लोक सम्मित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुः आत्रेयः, यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो लोके॥ (चरक संहिता, शारीरस्थानम् ५/२),
अध्यात्ममधिभूतमधिदैवं च (तत्त्व समास ७)
किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥१॥
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्म उच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः॥३॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषस्याधिदैवतम्। (गीता, अध्याय ८)
सृष्टि और वेद का आरम्भ- पहले मूल वेद एक ही था। इसे ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को पढ़ाया था अतः उसे अथर्ववेद कहते थे। बाद में उसका परा और अपरा विद्या मे अङ्गिरा ने विभाजन किया। उनके शिष्य सत्यवह भरद्वाज ने अपरा विद्या का विभाजन 4 वेद और 6 अङ्गों में किया। यह मुण्डक उपनिषद् के प्रथम 5 श्लोकों में है। अतः भरद्वाज गोत्र वालों को आङ्गिरस भरद्वाज कहते हैं। मूल वेद अथर्ववेद होने के कारण इसके बारे में सभी वेदों में लिखा है ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में ही 30 बार सामवेद तथा प्रायः 40 बार अथर्ववेद का उल्लेख है। पर इस ऐतिहासिक क्रम को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने प्रचार किया कि ऋग्वेद सबसे प्राचीन ग्रंथ है। वैदिक क्रम को नष्ट करने के लिए यूनेस्को आदि भी ऐसी घोषणा करते रहते हैं। भारतीय लोग विदेशियों की नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं करते। मूल अथर्व से 3 शाखाएं ऋक्, यजु, साम निकली, पर मूल भी बना रहा। अतः त्रयी का अर्थ 4 वेद होता है-एक मूल और 3 शाखा। इसका प्रतीक पलास दण्ड है जिससे 3 पत्ते निकलने पर मूल भी बना रहता है। यज्ञोपवीत के समय वेदारम्भ संस्कार के लिये वेद का प्रतीक पलास दण्ड का प्रयोग होता है। यह वेद निर्माता ब्रह्मा का भी प्रतीक है।
मूल अथर्ववेद का प्रथम श्लोक है-
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः = जो 3 प्रकार के 7 हैं उनसे सभी विश्व व्याप्त हैं।
इसके 15 प्रकार के अर्थ हैं। एक अर्थ है कि 7-7 लोक आकाश में, पृथ्वी पर तथा शरीर के भीतर हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार यह सृष्टि का क्रम है। चूँकि सृष्टि का आरम्भ 3 सप्तक से हुआ, अतः वेद का आरम्भ भी उसी से हुआ तथा मनुष्य भी अपना काम वैसे ही शुरू करता है। आकाश में पहले 7 लोक हुये, तब 8 दिव्य सृष्टि और 6 पार्थिव सृष्टि हुई। 7 लोक हैं-भू, भुवः (ग्रह कक्षा), स्वः (सौर मण्डल), महः (आकाश गंगा की सर्पाकार भुजा में सूर्य के चारों तरफ उसकी मोटाई के बराबर का गोला। इसके 1000 तारा शेषनाग के 1000 सिर हैं), जनः (आकाश गंगा), तपः (दृश्य जगत् जहां तक का प्रकाश यहां तक आ सकता है), सत्य (अनन्त आकाश)।
हर लोक की चेतना या प्राण का एक स्तर है जो उस लोक की दिव्य सृष्टि है। अव्यक्त स्रष्टा या ब्रह्म सर्वव्यापी है-कुल 8 दिव्य सृष्टि हुई। पृथ्वी पर 6 प्रकार की सृष्टि है-मनुष्य ब्रह्म या विश्व की प्रतिमा है। मनुष्य मस्तिष्क में उतने ही कण (न्यूरॉन) हैं जितना दृश्य जगत् मे आकाश गंगा, या हमारी आकाश गंगा में उतने तारा हैं।एक निर्जीव या मृत (मिट्टी) है। एक अर्ध चेतन वृक्ष है। बाकी 3 जल, स्थल तथा वायु के जीव हैं।
मूल अथर्ववेद का प्रथम श्लोक है-
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः = जो 3 प्रकार के 7 हैं उनसे सभी विश्व व्याप्त हैं।
इसके 15 प्रकार के अर्थ हैं। एक अर्थ है कि 7-7 लोक आकाश में, पृथ्वी पर तथा शरीर के भीतर हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार यह सृष्टि का क्रम है। चूँकि सृष्टि का आरम्भ 3 सप्तक से हुआ, अतः वेद का आरम्भ भी उसी से हुआ तथा मनुष्य भी अपना काम वैसे ही शुरू करता है। आकाश में पहले 7 लोक हुये, तब 8 दिव्य सृष्टि और 6 पार्थिव सृष्टि हुई। 7 लोक हैं-भू, भुवः (ग्रह कक्षा), स्वः (सौर मण्डल), महः (आकाश गंगा की सर्पाकार भुजा में सूर्य के चारों तरफ उसकी मोटाई के बराबर का गोला। इसके 1000 तारा शेषनाग के 1000 सिर हैं), जनः (आकाश गंगा), तपः (दृश्य जगत् जहां तक का प्रकाश यहां तक आ सकता है), सत्य (अनन्त आकाश)।
हर लोक की चेतना या प्राण का एक स्तर है जो उस लोक की दिव्य सृष्टि है। अव्यक्त स्रष्टा या ब्रह्म सर्वव्यापी है-कुल 8 दिव्य सृष्टि हुई। पृथ्वी पर 6 प्रकार की सृष्टि है-मनुष्य ब्रह्म या विश्व की प्रतिमा है। मनुष्य मस्तिष्क में उतने ही कण (न्यूरॉन) हैं जितना दृश्य जगत् मे आकाश गंगा, या हमारी आकाश गंगा में उतने तारा हैं।एक निर्जीव या मृत (मिट्टी) है। एक अर्ध चेतन वृक्ष है। बाकी 3 जल, स्थल तथा वायु के जीव हैं।
✍🏻अरुण उपाध्याय
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