"राष्ट्रहित में ही राजनीति की सार्थकता है पर अगर राजनीति राष्ट्रहित का निर्धारण करने लगे तो यह समाज के लिए समस्या होगी; यही वर्त्तमान का संकट है।
राष्ट्र कोई मानचित्र में रेखाओं की परिधि द्वारा परिभाषित भूखंड मात्र नहीं बल्कि सभ्यता, संस्कृति व् संस्कार के सूत्र से बंधे एक समाज को प्रतिबिंबित करती व्याख्या है, ऐसे में, राजनीति का उद्देश्य समाज के विकास में रचनात्मक योगदान होना चाहिए, पर दुर्भाग्यवश, वर्त्तमान की वास्तविकता कुछ अलग है।
भारत विविधताओं का देश है, ऐसे में, अगर व्यवस्था तंत्र का उपयोग समाज में व्याप्त विविधताओं के तुस्टीकरण के लिए होने लगे तो स्वाभाविक है की सामजिक एकता कमज़ोर होंगी। आवश्यकता है की व्यवस्था तंत्र का ध्यान व् प्रयास सामाजिक विविधताओं के बजाये सामाजिक एकता पर केंद्रित हो;
व्यवस्था तंत्र का उपयोग राजनैतिक उद्देश्य और व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के लिए करना एक नैतिक अपराध से कम नहीं। समाज जब तक सस्ती लोकप्रियता के आधार पर नेतृत्वा क्षमता का निर्धारण करेगा वह कुशल नेतृत्व से वंचित रहेगा।
दिशाहीन राजनीति की दशा एक जागृत समाज ही बदल सकती है, इसीलिए, लोगों का जागरूक होना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि तभी विकास की समझ आर्धिक लाभ तक सीमित न रहकर मानवीय व नैतिक मूल्यों के महत्व को भी सम्मिलित करेगा।"
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