Monday, 25 September 2017

पांचजन्य, Jan 2017
अनेक शोधों के जरिए यह सिद्ध हो चुका है कि मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने वाले बच्चे किसी भी विषय को बहुत आसानी से समझ पाते हैं। उनका पढ़ाई के प्रति भी लगाव बढ़ता है। इसलिए यह मांग उठने लगी है कि बच्चों की पढ़ाई की शुरुआत उनकी मातृभाषा में ही हो
- विवेक शुक्ला
हाल ही में नटराजन चंद्रशेखरन टाटा समूह के नए अध्यक्ष बनाए गए हैं। कुछ समाचार पत्रों ने उनका जीवन परिचय देते हुए लिखा कि चंद्रशेखरन ने स्कूली शिक्षा अपनी मातृभाषा तमिल में ग्रहण की थी। उन्होंने स्कूल के बाद इंजीनियरिंग की उपाधि रीजनल इंजीनयरिंग कॉलेज (आरईसी), त्रिचि से हासिल की। यह जानकारी अपने आप में महत्वपूर्ण थी। खास इस दृष्टि से थी कि तमिल भाषा में स्कूली शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी ने आगे चलकर अंग्रेजी में भी महारत हासिल की और करियर के शिखर को छुआ।
बेशक, भारत में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने की अंधी दौड़ के चलते अधिकतर बच्चे असली शिक्षा को पाने के आनंद से वंचित रह जाते हैं। असली शिक्षा का आनंद तो आप तब ही पा सकते हैं, जब आपने कम से कम पांचवीं तक की शिक्षा अपनी मातृभाषा में हासिल की हो।
मातृभाषा क्यों जरूरी : -
न जाने कितने अध्ययनों से प्रमाणित हो चुका है कि जो बच्चे मातृभाषा में स्कूली शिक्षा ग्रहण करते हैं, वे अधिक सीखते हैं। इधर अंग्रेजी का विरोध नहीं है। अंग्रेजी शिक्षा या अध्ययन को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। मसला यह है कि हम अपनी मातृभाषा, चाहे हिंदी, तमिल, बांग्ला या कोई अन्य में प्राथमिक शिक्षा देने के संबंध में कब गंभीर होंगे? क्योंकि उसके बिना हम बच्चों को शिक्षा तो नहीं दे रहे है। हां, शिक्षा के नाम पर प्रमाणपत्र दे देते हैं। शिक्षा का अर्थ है ज्ञान। बच्चे को ज्ञान कहां मिला? हम तो उन्हें नौकरी पाने के लिए तैयार कर रहे हैं। अभी हमारे यहां पर दुर्भाग्यवश स्कूली या कॉलेज शिक्षा का अर्थ नौकरी पाने से अधिक कुछ नहीं है।
प्रख्यात शिक्षाविद् और एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक डॉ. जगमोहन सिंह राजपूत कहते हैं, ''आजादी के बाद मातृभाषा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान का जो सपना देखा गया था अब वह सपना दस्तावेजों, कार्यक्रमों तथा संस्थाओं में दबकर रह गया है। देश में लाखों ऐसे स्कूल हैं जहां केवल एक मानदेय प्राप्त अध्यापक कक्षा एक से पांच तक के सारे विषय पढ़ाता है। क्या ये बच्चे कभी उनके साथ प्रतिस्पर्धा में बराबरी से खड़े हो पाएंगे जो देश के प्रतिष्ठित विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं? ये सारी चिंताएं और प्रश्न गंभीर हैं। इन पर विचार होना चाहिए। इनकी अनदेखी का मतलब है कि हम अपनी नई पीढ़ी के साथ न्याय नहीं कर रहे।''
क्या हो शिक्षा का लक्ष्य : -
शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या हो? तैत्तिरीय उपनिषद् तथा अन्य शास्त्रों में शिक्षा का प्रथम उद्देश्य शिशु को मानव बनाना है, दूसरा, उसे उत्तम नागरिक तथा तीसरे, परिवार का पालन-पोषण करने योग्य और साथ ही सुख की प्राप्ति कराना। हमारी संस्कृति में तो जीवन के चार पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के आधार में ही ये उद्देश्य हैं। क्या जो शिक्षा हमारे देश के करोड़ों बच्चों को मिल रही है, उससे उपर्युक्त लक्ष्यों की प्राप्ति हो रही है? नहीं। हमारे इधर तो व्यवसाय या नौकरी ही शिक्षा का उद्देश्य रह गया है। जब इस तरह की सोच के साथ हम शिक्षा का प्रसार-प्रचार करेंगे तो मातृभाषा की अनदेखी होना स्वाभाविक है।
बीते दो-ढ़ाई दशकों के दौरान सारे देश में अंग्रेजी के माध्यम से स्कूली शिक्षा लेने-देने की महामारी ने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया है। जम्मू-कश्मीर तथा नागालैंड ने अपने सभी विद्यालयों में शिक्षा का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी ही कर दिया है। महाराष्ट्र, दिल्ली, तमिलनाडु समेत कुछ और अन्य राज्यों में छात्रों को विकल्प दिए जा रहे हैं कि वे चाहें तो अपनी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी रख सकते हैं। यानी सरकारी स्तर पर ही उन्हें अपनी मातृभाषा से दूर करने के प्रयास हो रहे हैं।
राजधानी के दरियागंज स्थित डीएवी स्कूल के प्रधानाचार्य रमाकांत तिवारी अपने अनुभव के आधार पर एक महत्वपूर्ण बात बताते हैं। वे कई साल तक हरियाणा के करनाल जिले के कुंजपुरा में भी पढ़ाते रहे। उन्होंने बताया कि कुंजपुरा में मां-बाप और बच्चे खुशी-खुशी स्कूल में दाखिला लेने आते थे। लड़के-लड़कियां अपने माता-पिता की उंगली पकड़कर स्कूल आते। जब वे स्कूल में दाखिला लेते तब तक तो वे पेड़-पौधों, फलों, फूलों और जानवरों के बारे में जानने लगते। वे नई किताबें और कापियां लेकर स्कूल आने लगते। लेकिन स्कूल में कुछ दिन बिताने के बाद उनका स्कूल से मोहभंग होने लगता। वे कहने लगते, उन्हें तो पढ़ना आता ही नहीं। वे धीरे-धीरे चुप रहने लगते कक्षा में। इसकी वजह यह थी कि उन्हें पढ़ाया जाता था अंग्रेजी में। मातृभाषा में पढ़ाया जाता तो शायद उनका पढ़ने से मोहभंग न होता। इस स्थिति के कारण अनेक बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से वांछनीय है, क्योंकि विद्यालय आने पर बच्चे यदि अपनी भाषा में पढ़ते हैं, तो वे विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं और यदि उन्हें सब कुछ उन्हीं की भाषा में पढ़ाया जाता है, तो उनके लिए सारी चीजों को समझना बेहद आसान हो जाता है।
स्कूल छोड़ने को विवश :-
इस स्थिति से देश के लाखों मासूम बच्चे गुजरते हैं। लाखों बच्चे ऐसे स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं जो उन पर कोई भाषा थोप देते हैं और उस भाषा की अनदेखी करते हैं जिसमें उन्होंने बोलना, अपने माता-पिता को संबोधित करना, पेड़-पौधों, फलों, फूलों, जानवरों, पर्यावरण और अपने परिवार तथा सदस्यों को जानना सीखा हो। किसी बच्चे की प्रारंभिक भाषा उसकी पहली पहचान की, उसके सभी शुरुआती अनुभवों और सीखों की, अपने दोस्तों और बड़ों के साथ उसके संबंधों, और अपनी समझ और समाधानों को तलाशने की उसकी कोशिशों की भाषा होती है। यह भाषा उसके घर, परिवार, समुदाय और गांव के लिए पर्याप्त होती है, और वह उसे अपनी सामाजिक दुनिया के साथ प्रभावशाली ढंग से तालमेल बनाकर चलने की ताकत देती है।
वरिष्ठ शिक्षाविद् दीनानाथ बतरा कहते हैं, ''प्राथमिक शिक्षा यानी पांचवीं कक्षा तक तो हर बच्चे को हर सूरत में मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा मिलनी चाहिए। उसके बाद हम त्रिभाषा फार्मूले के अंतर्गत शिक्षा दे सकते हैं। हमें कोशिश करनी होगी ताकि वनवासी क्षेत्रों में पास-पड़ोस में ही स्कूल खुलें जो बच्चों को मातृभाषा में ही पढ़ाएं।''
एक तरह से देश के एक बड़े वर्ग ने मान लिया है कि अंग्रेजी जाने-समझे बिना गति नहीं है। इसके चलते हर स्तर पर इसे बढ़ावा देने की मानसिकता नजर आती है। एक तरह से यह सोच घर कर गई है कि अंग्रेजी जाने बिना दुनिया अधूरी-अधकचरी है। हां, कुछ हद तक यह दावा सही है। दरअसल, आधे-अधूरे ज्ञान के बल पर भी बीपीओ में लाखों नौजवानों को नौकरी मिलने लगी है। इसी का नतीजा है कि शहरी मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग अपनी मेहनत-मशक्कत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को कथित अंग्रेजी स्कूलों में भेजने पर खर्च करने लगा है। एक अनुमान के मुताबिक, वर्तमान में भारत के 25 फीसद बच्चे उन विद्यालयों में पढ़ाई शुरू करने लगे हैं, जहां पर मातृभाषा की बजाय शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। जाहिर है, इन बच्चों को शिक्षा का आनंद आ ही नहीं सकता। और इनमें से अनेक अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते विद्यालय छोड़ देते हैं।
नेशनल मल्टीहलिंगुअल एजुकेशन रिसोर्स कंसोशियम (एऩ एम़ आऱ सी़) के मुख्य सलाहकार अजीत मोहंती कहते हैं, ''दरअसल, माता-पिता अधीर रहते हैं कि उनके बच्चे जल्दी से जल्दी अंग्रेजी जानें। उन्हें अंग्रेजी सत्ता, प्रगति और आर्थिक अवसरों की भाषा प्रतीत होती है, और इसलिए लोगों को घरों में तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था की शिक्षा तथा स्कूली शिक्षा में अंग्रेजी को जल्दी से जल्दी लाने की सनक है। बहुत छोटे और मासूम तथा अविकसित बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की लालसा होने लगी है। दरअसल, अंग्रेजी के लिए यह पागलपन कोरी नासमझी है। कायदे से हमें अपने बच्चों को इतनी जल्दी अंग्रेजी सिखाने की दौड़ में शामिल नहीं होने देना चाहिए। हम उन्हें अच्छी देखभाल, संस्कार और मातृभाषा-आधारित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे दें तो बेहतर रहेगा।''
न केवल भारत, बल्कि समूचे संसार के शिक्षाविदों, भाषा-वैज्ञानिकों, अध्यापकों और शिक्षा से जुड़े अन्य जानकारों की राय है कि बच्चा सबसे आराम से अपनी भाषा में पढ़ाए जाने पर ग्रहण करता है। जैसे ही उसे किसी अन्य भाषा में पढ़ाया जाने लगता है, तभी गड़बड़ चालू हो जाती है। यूनेस्को की तरफ से कराए गए एक अध्ययन से साबित हो चुका है कि जो बच्चे अपनी मातृभाषा में प्राथमिक से पढ़ना चालू करते हैं, उनके लिए शिक्षा क्षेत्र में आगे बढ़ने की संभावनाएं अधिक प्रबल रहती हैं। यानी बच्चे जिस भाषा को घर में अपने अभिभावकों,भाई-बहनों और मित्रों के साथ बोलते हैं, उसमें पढ़ने में उन्हें अधिक सुविधा रहती है।
और इसी क्रम में हमारे यहां यह भी एक भ्रांति फैलाई जाती रही कि विज्ञान की भाषा तो अंग्रेजी ही है। इसलिए आरंभ से ही बच्चों को अंग्रेजी सीख लेनी चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि इस देश का और हमारे बच्चों का देश-विदेश में सम्मान बढ़े तो हमें, अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में ही देनी होगी। यह भी एक भ्रम है कि भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा नहीं दी जा सकती। इस समय हिंदी में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के पर्याप्त शब्द उपलब्ध हैं, और बनते जा रहे हैं। संस्कृत जैसी विश्व में समृद्धतम भाषा की पुत्रियों को और तमिल को भी वैज्ञानिक शब्दावली की कोई कठिनाई नहीं हो सकती। बस राजनीतिक तथा 'ब्यूरोक्रैटिक' इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जापान का उदाहरण देकर समझाया था कि वहां जितनी उन्नति हुई है, वह वहां की अपनी भाषा जापानी के ही कारण है। जापान ने अपनी भाषा की क्षमता पर भरोसा किया और अंग्रेजी के प्रभुत्व से जापानी भाषा को बचाकर रखा।
एक और मसला है। कथित अंग्रेजी विद्यालयों में अपने नौनिहालों को पढ़ाने की ललक तो अभिभावकों में रहती है। कई शिक्षाविद् दावा भी करते हैं कि अंग्रेजी जाने बिना देश का कल्याण संभव नहीं है। अब कभी इनसे ये भी पूछ लीजिए कि क्या हमारे विद्यालयों में अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षक हैं? यहां पर हम बात कर रहे हैं, उन शिक्षकों की जो सही अंग्रेजी लिख-बोल सकते हों। राजधानी में सरकारी विद्यालयों के विद्यार्थियों को मुफ्त में अंग्रेजी व्याकरण पढ़ाने वाले आईआईटी, दिल्ली के पूर्व छात्र प्रेम भूटानी कहते हैं, ''दिल्ली के अधिकतर सरकारी विद्यालयों में अंग्रेजी के अध्यापक शुद्ध अंग्रेजी लिख-बोल नहीं पाते। यानी जो स्वयं अंग्रेजी सही तरह से नहीं बोल-लिख पाता उसके ऊपर नन्हें बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी रहती है। वास्तव में हमारे यहां शिक्षा के नाम पर अनर्थ हो रहा है।'' वे कहते हैं, ''आमतौर पर हमारे सरकारी विद्यालयों में अंग्रेजी पढ़ाने वाले अध्यापक पाठ्य पुस्तकों से ही बच्चों को पढ़ाने का नाटक करते हैं। जरा किसी सरकारी स्कूल के अध्यापक के अंग्रेजी ज्ञान की जांच कर लें तो जन्नत की हकीकत समझ आ जाएगी।'' यह हालत है दिल्ली के सरकारी विद्यालयों के अंग्रेजी शिक्षकों की। ये निजी विद्यालयों के अध्यापकों की अपेक्षा अधिक शिक्षित होते हैं। देश के दूर-दराज के भागों में अंग्रेजी पढ़ाने वाले अध्यापकों का तो भगवान ही मालिक है।
दरअसल, वैश्वीकरण और सूचना क्रांति के दौर में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की वकालत करते हुए अंग्रेजी का विरोध करना उचित नहीं है। भले ही हम अपनी भाषा के माध्यम से बच्चों को पढ़ाएं, पर यह भी ध्यान रखें कि उनकी अंग्रेजी भी ठीक रहे। देश को तय करना होगा हमें चालू अंग्रेजी जानने वाले मिलें या वे जो अंग्रेजी में गंभीर काम कर सकें। फिलहाल तो भारत में अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर हम बीपीओ में काम करने वाले पेशेवर ही निकाल रहे हैं। भारत से कितने आऱ के़ नारायणन या झुम्पा लाहिड़ी जैसे अंग्रेजी के साहित्यकार निकल रहे हैं?
बहरहाल, निश्चित रूप से इस बात पर कष्ट होता है कि अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने का जन्मसिद्ध अधिकार भी इस देश में तर्क और बहस का विषय बना दिया जाता है। रविन्द्र नाथ ठाकुर मानते थे कि जिस तरह हमने मां की गोद में जन्म लिया है, उसी तरह मातृभाषा की गोद में जन्म लिया है। ये दोनों माताएं हमारे लिए सजीव और अपरिहार्य हैं।
मत करो मातृभाषा की अनदेखी : -
आपको जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने लिए खास जगह बनाने वाली अनेक हस्तियां मिल जाएंगी जिन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में ग्रहण की।
रविन्द्र नाथ ठाकुर की शिक्षा का श्रीगणेश अपने उत्तर कलकत्ता के घर में ही हुआ। उनके परिवार में बांग्ला भाषा ही बोली जाती थी। उन्होंने जिस स्कूल में दाखिला लिया, वहां पर भी पढ़ाई का माध्यम बांग्ला ही थी। यानी बंगाल की धरती की भाषा।
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद की आरंभिक शिक्षा बिहार में उनके गांव में ही हुई। उधर तब अंग्रेजी का नामोनिशान भी नहीं था। उन्होंने स्कूल में हिंदी, संस्कृत और फारसी पढ़ी। बाबा साहेब की प्राथमिक शिक्षा सतारा (महाराष्ट्र) के एक सामान्य स्कूल से शुरू हुई। उधर पढ़ाई का माध्यम मराठी थी।
भारत की चोटी की इंजीनियरिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में सक्रिय कंपनी लार्सन एंड टुब्रो के अध्यक्ष ए़ वी़ नाईक का संबंध दक्षिण गुजरात से है। उन्होंने भी गुजराती भाषा में शुरुआती पढ़ाई की। अंग्रेजी से उनका संबंध स्थापित हुआ आठवीं कक्षा में आने के बाद।
एड गुरु और गीतकार प्रसून जोशी के पिता उत्तर प्रदेश में एक सरकारी स्कूल के अध्यापक थे। इसलिए उनके जगह-जगह तबादले होते रहते थे। इसके चलते प्रसून ने मेरठ, गोपेश्वर, हापुड़ वगैरह के सरकारी विद्यालयों में विशुद्ध हिंदी माध्यम से स्कूली शिक्षा पूरी की। वे कहते हैं कि अगर उन्होंने स्कूली दिनों में हिंदी का बढि़या तरीके से अध्ययन न किया होता तो वे एड की दुनिया में अपने पैर नहीं जमा पाते।
साफ है कि सरकार और समाज को भारतीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा की पढ़ाई को प्राथमिकता देनी होगी, तभी देश के नौनिहालों की प्रतिभा खिलेगी और वे नए आयाम स्थापित कर पाएंगे।

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