महाभारत पूर्व के २ तथा उसके बाद के ५ अवतार हुये हैं।
(१) प्रथम धन्वन्तरि का जन्म समुद्र मन्थन के समय हुआ था। समुद्र मन्थन आकाश के ४ धामों में ४ प्रकार से हो रहा है। परम धाम रस रूप मूल स्रोत है, जिसके चतुर्थ अंश से दृश्य जगत् बना है।
असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत। तदात्मानँ स्वयमकुरुत तस्मात्तत्सुकृतम् उच्यत इति। यद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/१-२) मूल स्रोत अनुभव से परे होने के कारण असत् है। समरूप होने के कारण रस है। उसकी प्राप्ति या साक्षात् से आनन्द होता है, अतः रस है। परम धाम के स्तर पर कर्त्ता, क्रिया, उपकरण आदि सभी एक ही ब्रह्म हैं, अतः इसे सुकृत कहा गया है। निर्मित विश्व पुरुष है। मूल रस का ३ भाग ज्यों का त्यों रह गया (अमृत); उसे मिला कर पूरुष है।
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायाँश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्याम्टुतं दिवि॥ (पुरुष सूक्त, वाजानेयि संहिता, ३१/३)
उत्तम धाम १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह तपः लोक है। उसमें हमारा ब्रह्माण्ड का आधार कूर्म है, इसमें निर्माण कार्य हुआ अतः इसे कूर्म कहते हैं। यह पदार्थ हीन, केवल किरण (गो) युक्त है, अतः इसे ब्रह्मवैवस्वत पुराण प्रकृति खण्ड, अध्याय ३ में गोलोक कहा गया है जिसमें महाविष्णु रूप ब्रह्माण्ड या विराट् बालक का जन्म होता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय, ३-अथाण्डं तु जले ऽतिष्ट द्याव द्वै ब्रह्मणो वयः॥१॥
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटि रवि-प्रभः॥२॥ स्थूलात् स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट्॥४॥
तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः॥९॥
तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत् कोटि योजनात्॥१०॥नित्यौ गोलोक वैकुण्ठौ सत्यौ शश्वद-कृत्रिमौ॥१६॥
ब्रह्माण्ड के भीतर १०० अरब तारा हैं, इसकी सर्पाकार भुजा शेषनाग है, जिसमें हमारा सूर्य है। यहां भुजा की मोटाई के बराबर गोले में १००० त्रा शेष के १००० सिर हैं। इस भुजा में सूर्य द्वारा ब्रह्माण्ड केन्द्र (मूल नक्षत्र) की परिक्रमा भी समुद्र मन्थन है. सूर्य द्वारा ब्रह्माण्ड का फैला हुआ पदार्थ आकर्षित होता है।
सौर मण्डल के भीतर ग्रहों की उत्पत्ति चौथा मन्थन है।
पृथ्वी का अक्ष कृत्तिका से विशाखा तथा वापस २६,००० वर्षों में आता है। यह महारास पृथ्वी का दीर्घकालिक समुद्र मन्थन है। आकाश में अनन्त विषुव वृत्त तथा क्रान्ति वृत्त (पृथ्वी कक्षा) परस्पर को २ विन्दुओं पर काटते हैं। जहां विषुव से क्रान्ति वृत्त में सूर्य ऊपर (उत्तर) जाता है, वह विन्दु कृत्तिका (कैंची) है। उसके विपरीत विन्दु पर द्वि-शाखा जहां मिलती हैं, वह विशाखा है।
तदिन्द्राग्नीकृणुतांतद्विशाखे, तन्नोदेवाअनुमदन्तुयज्ञम्।
नक्षत्राणांअधिपत्नीविशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नीभुवनस्यगोपौ॥११॥
पूर्णापश्चादुतपूर्णापुरस्तात्, उन्मध्यतःपौर्णमासीजिगाय।
तस्यांदेवाअधिसंवसन्तः, उत्तमेनाकइहमादयन्ताम्॥१२॥
(तैत्तिरीयब्राह्मण३/१/१)
इसके साथ मन्दोच्च की विपरीत दिशा में गति के कारण २४,००० वर्ष का जलप्रलय का चक्र होता है, जो इतिहास का दीर्घ चक्र है। परम धाम अव्यक्त है। उससे उत्पन्न ३ धामों को ३ माता-पिता कहा है। इनका मूल रूप बीच के खाली स्थान (अन्तरिक्ष) में दीखता है, जिनको अर्यमा, वरुण, मित्र कहते हैं-
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वमिदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥ (ऋग्वेद १/१६४/१०)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
ऐतिहासिक समुद्र मन्थन राजा बलि के काल में हुआ था। यह पृथ्वी के रत्नों का दोहन था। पृथ्वी पर वैसे तो ७ द्वीप तथा ७ समुद्र कहे गये हैं, पर उत्पादन के लिये यह गो रूप है जिसके ४ ही समुद्र हैं। समुद्र मन्थन के कुछ बाद पूरी पृथ्वी के खनिजों का सर्वेक्षण और दोहन राजा पृथु के समय हुआ था। वहां जल समुद्र के अतिरिक्त ओषधि (वनस्पति), खनिज की भूमि, कृषि के लिये वायुमण्डल की वर्षा आदि को भी समुद्र कहा गया है। ये ४ समुद्र हैं- जलमण्डल, स्थल मण्डल, जीवमण्डल (वनस्पति, पशु), वायुमण्डल। इनको पृथ्वी रूपी गो के ४ स्तन कहा है।
पयोधरी भूतचतुः समुद्रां जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम्। (रघुवंश २/३)
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १९/१३/१)
इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/३४)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण ६/५/२/१७)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनु-र्मातेव वा ऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण २/२/१/२१)
वायुपुराणम्/ उत्तरार्धम् /अध्यायः१-तत उत्सारयामास शिला-जालानि सर्वशः।
धनुष्कोट्या ततो वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः।।१.१६७।।
मन्वन्तरेष्वतीतेषु विषमासीद् वसुन्धरा। स्वभावेना-भवं-स्तस्याः समानि विषमाणि च।।१.१६८।।
आहारः फलमूलं तु प्रजानाम-भवत् किल। वैन्यात् प्रभृति लोके ऽस्मिन् सर्वस्यैतस्य सम्भवः।।१.१७२।।
शैलैश्च स्तूयते दुग्धा पुनर्देवी वसुन्धरा। तत्रौषधी र्मूर्त्तिमती रत्नानि विविधानि च।।१.१८६।।
विष्णु पुराण-प्रथमांशः /अध्यायः१३-तत उत्सारयामास शैलां शत सहस्त्रशः।
धनुःकोट्या तदा वैन्यस्ततः शैला विवर्ज्जिताः।।८१।।
स कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुः। स्वे पाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः।।८६।।
राजा बलि ने वामन के अनुरोध पर देवों के ३ लोक इन्द्र को वापस कर दिये, पर असुर सन्तुष्ट नहीं थे। लड़ाई चलती रही। यह धन के भाग के लिये था। कूर्म अवतार विष्णु ने कहा कि ब्ना उत्पादन के धन नहीं हो सकता है, उसके लिये संयुक्त श्रम करने पर देव असुर तैयार हो गये। समुद्र मन्थन की कथा है कि पहले हलाहल विष हुआ, फिर लक्ष्मी तथा उसके बाद धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर उत्पन्न हुयॆ।
उस समय अदिति का प्रभुत्व आरम्भ हुआ जिनके पुत्र इन्द्र तथा उपेन्द्र (वामन विष्णु) थे। इस काल में पुनर्वसु नक्षत्र से पुराना वर्ष समाप्त हो कर नया आरम्भ होता था। अतः पुनर्वसु का देवता अदिति कहा गया-अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥ (ऋग्वेद १/८९/१०)। यह प्रायः १७५०० ई.पू. की स्थिति है। धन्वन्तरि इसके प्रायः १००० वर्ष बाद हुये। उसके कुछ समय बाद कार्त्तिकेय काल में उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया तथा धनिष्ठा से वर्ष और वर्षा का आरम्भ होता था (१५,८०० ई.पू.)। अमृत कलश का अर्थ है मृतप्राय व्यक्ति को जीवित कर देना। पहले मृतसञ्जीवनी विद्या केवल शुक्राचार्य को ही ज्ञात थी।
(२) धन्वन्तरि का अवतार काशिराज दिवोदास के रूप में हुआ।
आयोः पुत्रा महात्मानः पञ्चैवासन् महाबलाः।१।
नहुषः प्रथमस्तेषां क्षत्रवृद्धस्ततः स्मृतः। रम्भो रजिरनेनाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः॥२॥
क्षत्रवृद्धात्मजश्चैव सुनहोत्रो महायशाः। सुनहोत्रस्य दायादस्त्रयः परमधार्मिकाः॥३॥
काशः शलश्च द्वावेतौ तथा गृत्समदः प्रभुः।४।
काश्यश्च काशिपो राजा पुत्रो दीर्घतपास्तथा। धन्वश्च दीर्घतपसो विद्वान्धन्वन्तरिस्ततः॥७॥
धन्वन्तरेः सम्भवोऽयं श्रूयतामिति वै द्विजाः। स सम्भूतः समुद्रान्ते मथ्यमानेऽमृते पुरा॥१०॥
उत्पन्नः कलशात्पूर्वं सर्वतश्च श्रिया वृतः। सद्यः संसिद्धकार्यं तं दृष्ट्वा विष्णुरवस्थितः।।११॥
अब्जस्त्वमिति होवाच तस्मादब्जस्तु स स्मृतः॥१२॥ अथ वा त्वं पुनश्चैव ह्यायुर्वेदं विधास्यसि॥१८॥
द्वितीये द्वापरे प्राप्ते सौनहोत्रः स काशिराट्॥ पुत्रकामस्तपस्तेपे नृपो दीर्घतपास्तथा॥२०॥
तस्य गेहे समुत्पन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा॥२३॥ (ब्रह्मांड पुराण २/३/६७)
द्वितीये द्वापरे प्राप्ते सौनहोत्रः प्रकाशिराट् । पुत्रकामस्तपस्तेपे नृपो दीर्घतपास्तथा ॥१८॥
तस्य गेहे समुत्पन्नौ देवो धन्वन्तरिस्तदा । काशिराजो महाराजः सर्वरोगप्रणाशकः ॥१९॥
आयुर्वेदं भरद्वाजश्चकार सभिषक् क्रियम्। तमष्टधा पुनर्व्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत ॥२०॥
(वायु पुराण, अध्याय, ९२)
यहां दिवोदास का काल द्वितीय द्वापर कहा है। पर मान्धाता का पुत्र पुरुकुत्स का समकालीन दिवोदास का पुत्र सुदास था। मान्धाता का काल १५वां त्रेता कहा गया है। २८ त्रेता (या द्वापर) ३१०२ ई.पू. में समाप्त हुये। उससे १४ ३६० = ५०४० वर्ष पूर्व = ८१४२ ई.पू में शुरु हुआ तथा ७७८२ ई.पू. तक रहा। मान्धाता के १८ पीढ़ी बाद राजा बाहु यवनों के आक्रमण में मारा गया था जिसका समय मेगास्थनीज आदि ने तत्कालीन भारतीय लेखों के आधार पर ६७७७ ई.पू. कहा है। अतः दिवोदास धन्वन्तरि का काल प्रायः ८००० ई.पू. के कुछ बाद है। वायु पुराण (अध्याय ९८)-त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह। नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह। मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
स्वयं सुश्रुत संहिता के प्रथ अध्याय में काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि द्वारा आयुर्वेद उपदेश के बारे में कहा है-
अथातो वेदोत्पत्तिमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥ यथोवाच भगवान् धन्वन्तरिः॥२॥
अथ खलु भगवन्तममरवरं ऋषिगण परिवृतमाश्रमस्थं काशिराजं दिवोदासं धन्वन्तरिं औपधेनव-वैतरणौरभ्रपौष्कलावत-करवीर्य (र) गोपुर रक्षित सुश्रुत प्रभृतय ऊचुः॥३॥
एवमयमायुर्वेदोऽष्टाङ्ग उपदिष्यते, अत्र कस्मै किमुच्चतामिति॥९॥
त ऊचुः-अस्माकं सर्वेषामेव शल्यज्ञानं मूलं कृत्वोपदिशतु भगवानिति॥१०॥
त ऊचुर्भूयोऽपि भगवन्तम्-अस्माकमेककमतीनां मतमभिसमीक्ष्य सुश्रुतो भगवन्त प्रक्ष्यति, अस्मै चोपदिश्यमानं वयमप्युपधारयिष्यामः ॥१२॥
महाभारत के बाद के धन्वन्तरि-
(१) राजापरीक्षित ६० वर्ष केशासन के बाद ३०४२ ई.पू. में मरे थे। उस समय भी एक धन्वन्तरि का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में है-
सप्ताहे समतीते तु गच्छन्तं तक्षकं पथि।
धन्वन्तरिर्मोचयितुमपश्यद् गन्तुको नृपम्॥१०६॥ (ब्रह्म वैवर्त पुराण, अध्याय २/४६)
(२) उसके बाद वाराणसी के कल्प ब्राह्मण के घर समुद्र मन्थन के धन्वनरि का पुनर्जन्म हुआ जिन्होंने अपने क्षत्रिय शिष्य सुश्रुत को १०० अध्यायों का आयुर्वेद पढ़ाया-
तदा प्रसन्नो भगवान् (सूर्य) देवानाह शुभं वचः। अहं काश्यां भवाम्यद्य नाम्ना धन्वन्तरिः स्वयम्॥१७॥ कल्पदत्तस्य विप्रस्य पुत्रो भूत्वा महीतले॥१९॥
सुश्रुतं राजपुत्रं च विप्रवृद्ध समन्वितम्। शिष्यं कृत्वा प्रसन्नात्मा कल्पवेदमचीकरत्॥ २०॥
सुश्रुतः कल्पवेदं तं धन्वन्तरि विनिर्मितम्।पठित्वा च शताध्यायं सौश्रुतं तन्त्रमाकरोत्॥२३॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय ९)
(३) उसके बाद कलि की २३वीं शताब्दी (९०२-८०२ ई.पू.) में एक और धन्वन्तरि हुये जिनका एक शिष्य सुश्रुत (द्वितीय) था। सुश्रुत के शिष्य भी धन्वन्तरि कह्लाते थे-
त्रिविंशाब्दे (कलि २२०० = ईसापूर्व ९०२) च यज्ञांशेतत्र वासमकारयत्।३४।
धन्वन्तरिर्द्विजो नाम ब्रह्मभक्ति परायणः।३६।
इति धन्वन्तरिः श्रुत्वा शिष्यो भूत्वा च तद्गुरोः। सुश्रुतादपरे चापि शिष्या धन्वन्तरेः स्मृताः॥४५॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २०)
(४) कलि की २७वी शताब्दी (५०२-४०२ ई.पू.) में शाक्यसिंह गौतम बुद्ध (१८८७-१८०७ ई.पू. के सिद्धार्थ बुद्ध से भिन्न) ने सभी सनातन वैदिक परम्पराओं को समाप्त कर दिया था। अहिंसा के नाम पर शल्य चिकित्सा बन्द हो गयी थी। धन्वन्तरि ने पुनः शल्य चिकित्सा आरम्भ की-
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥ शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥ स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः। सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
धन्वन्तरिः प्रयागे च गत्वा तद्यन्त्रमुत्तमम्। विलोमं कृतवांस्तत्र तदधो ये गता नराः॥७०॥
डल्हण ने भी सुश्रुत संहिता की व्याख्या में लिखा है कि बौद्ध नागार्जुन ने कुछ श्लोकों को बदल दिया था-
यत्र यत्र परोक्षे लिट् प्रयोगस्तत्र तत्रैव प्रतिसंस्कत्तृ सूत्रं शातव्यमिति। प्रतिसंस्कर्त्ताऽपीह नागार्जुन एव।
(५) अन्तिम धन्वन्तरि उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य (८२ई.पू.-१९ ई.) के ९ रत्नों में से थे। इसका उल्लेख अन्य नवरत्न कालिदास की पुस्तक ज्योतिर्विदाभरण के अध्याय २२ में है जिसमें ग्रन्थ का काल ३०६८ कलि = ३४ ई.पू. लिखा है-
धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह शंकु वेतालभट्ट घटखर्पर कालिदासाः॥
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
वर्षः सिन्धुरदर्शनम्बरगुणैः (३०६८) र्याते कलौ सम्मिते।
मासे माधव संज्ञिते च विदितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः॥ (ज्योतिर्विदाभरण, कालिदास)
(१) प्रथम धन्वन्तरि का जन्म समुद्र मन्थन के समय हुआ था। समुद्र मन्थन आकाश के ४ धामों में ४ प्रकार से हो रहा है। परम धाम रस रूप मूल स्रोत है, जिसके चतुर्थ अंश से दृश्य जगत् बना है।
असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत। तदात्मानँ स्वयमकुरुत तस्मात्तत्सुकृतम् उच्यत इति। यद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/१-२) मूल स्रोत अनुभव से परे होने के कारण असत् है। समरूप होने के कारण रस है। उसकी प्राप्ति या साक्षात् से आनन्द होता है, अतः रस है। परम धाम के स्तर पर कर्त्ता, क्रिया, उपकरण आदि सभी एक ही ब्रह्म हैं, अतः इसे सुकृत कहा गया है। निर्मित विश्व पुरुष है। मूल रस का ३ भाग ज्यों का त्यों रह गया (अमृत); उसे मिला कर पूरुष है।
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायाँश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्याम्टुतं दिवि॥ (पुरुष सूक्त, वाजानेयि संहिता, ३१/३)
उत्तम धाम १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह तपः लोक है। उसमें हमारा ब्रह्माण्ड का आधार कूर्म है, इसमें निर्माण कार्य हुआ अतः इसे कूर्म कहते हैं। यह पदार्थ हीन, केवल किरण (गो) युक्त है, अतः इसे ब्रह्मवैवस्वत पुराण प्रकृति खण्ड, अध्याय ३ में गोलोक कहा गया है जिसमें महाविष्णु रूप ब्रह्माण्ड या विराट् बालक का जन्म होता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय, ३-अथाण्डं तु जले ऽतिष्ट द्याव द्वै ब्रह्मणो वयः॥१॥
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटि रवि-प्रभः॥२॥ स्थूलात् स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट्॥४॥
तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः॥९॥
तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत् कोटि योजनात्॥१०॥नित्यौ गोलोक वैकुण्ठौ सत्यौ शश्वद-कृत्रिमौ॥१६॥
ब्रह्माण्ड के भीतर १०० अरब तारा हैं, इसकी सर्पाकार भुजा शेषनाग है, जिसमें हमारा सूर्य है। यहां भुजा की मोटाई के बराबर गोले में १००० त्रा शेष के १००० सिर हैं। इस भुजा में सूर्य द्वारा ब्रह्माण्ड केन्द्र (मूल नक्षत्र) की परिक्रमा भी समुद्र मन्थन है. सूर्य द्वारा ब्रह्माण्ड का फैला हुआ पदार्थ आकर्षित होता है।
सौर मण्डल के भीतर ग्रहों की उत्पत्ति चौथा मन्थन है।
पृथ्वी का अक्ष कृत्तिका से विशाखा तथा वापस २६,००० वर्षों में आता है। यह महारास पृथ्वी का दीर्घकालिक समुद्र मन्थन है। आकाश में अनन्त विषुव वृत्त तथा क्रान्ति वृत्त (पृथ्वी कक्षा) परस्पर को २ विन्दुओं पर काटते हैं। जहां विषुव से क्रान्ति वृत्त में सूर्य ऊपर (उत्तर) जाता है, वह विन्दु कृत्तिका (कैंची) है। उसके विपरीत विन्दु पर द्वि-शाखा जहां मिलती हैं, वह विशाखा है।
तदिन्द्राग्नीकृणुतांतद्विशाखे, तन्नोदेवाअनुमदन्तुयज्ञम्।
नक्षत्राणांअधिपत्नीविशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नीभुवनस्यगोपौ॥११॥
पूर्णापश्चादुतपूर्णापुरस्तात्, उन्मध्यतःपौर्णमासीजिगाय।
तस्यांदेवाअधिसंवसन्तः, उत्तमेनाकइहमादयन्ताम्॥१२॥
(तैत्तिरीयब्राह्मण३/१/१)
इसके साथ मन्दोच्च की विपरीत दिशा में गति के कारण २४,००० वर्ष का जलप्रलय का चक्र होता है, जो इतिहास का दीर्घ चक्र है। परम धाम अव्यक्त है। उससे उत्पन्न ३ धामों को ३ माता-पिता कहा है। इनका मूल रूप बीच के खाली स्थान (अन्तरिक्ष) में दीखता है, जिनको अर्यमा, वरुण, मित्र कहते हैं-
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वमिदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥ (ऋग्वेद १/१६४/१०)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
ऐतिहासिक समुद्र मन्थन राजा बलि के काल में हुआ था। यह पृथ्वी के रत्नों का दोहन था। पृथ्वी पर वैसे तो ७ द्वीप तथा ७ समुद्र कहे गये हैं, पर उत्पादन के लिये यह गो रूप है जिसके ४ ही समुद्र हैं। समुद्र मन्थन के कुछ बाद पूरी पृथ्वी के खनिजों का सर्वेक्षण और दोहन राजा पृथु के समय हुआ था। वहां जल समुद्र के अतिरिक्त ओषधि (वनस्पति), खनिज की भूमि, कृषि के लिये वायुमण्डल की वर्षा आदि को भी समुद्र कहा गया है। ये ४ समुद्र हैं- जलमण्डल, स्थल मण्डल, जीवमण्डल (वनस्पति, पशु), वायुमण्डल। इनको पृथ्वी रूपी गो के ४ स्तन कहा है।
पयोधरी भूतचतुः समुद्रां जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम्। (रघुवंश २/३)
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १९/१३/१)
इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/३४)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण ६/५/२/१७)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनु-र्मातेव वा ऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण २/२/१/२१)
वायुपुराणम्/ उत्तरार्धम् /अध्यायः१-तत उत्सारयामास शिला-जालानि सर्वशः।
धनुष्कोट्या ततो वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः।।१.१६७।।
मन्वन्तरेष्वतीतेषु विषमासीद् वसुन्धरा। स्वभावेना-भवं-स्तस्याः समानि विषमाणि च।।१.१६८।।
आहारः फलमूलं तु प्रजानाम-भवत् किल। वैन्यात् प्रभृति लोके ऽस्मिन् सर्वस्यैतस्य सम्भवः।।१.१७२।।
शैलैश्च स्तूयते दुग्धा पुनर्देवी वसुन्धरा। तत्रौषधी र्मूर्त्तिमती रत्नानि विविधानि च।।१.१८६।।
विष्णु पुराण-प्रथमांशः /अध्यायः१३-तत उत्सारयामास शैलां शत सहस्त्रशः।
धनुःकोट्या तदा वैन्यस्ततः शैला विवर्ज्जिताः।।८१।।
स कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुः। स्वे पाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः।।८६।।
राजा बलि ने वामन के अनुरोध पर देवों के ३ लोक इन्द्र को वापस कर दिये, पर असुर सन्तुष्ट नहीं थे। लड़ाई चलती रही। यह धन के भाग के लिये था। कूर्म अवतार विष्णु ने कहा कि ब्ना उत्पादन के धन नहीं हो सकता है, उसके लिये संयुक्त श्रम करने पर देव असुर तैयार हो गये। समुद्र मन्थन की कथा है कि पहले हलाहल विष हुआ, फिर लक्ष्मी तथा उसके बाद धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर उत्पन्न हुयॆ।
उस समय अदिति का प्रभुत्व आरम्भ हुआ जिनके पुत्र इन्द्र तथा उपेन्द्र (वामन विष्णु) थे। इस काल में पुनर्वसु नक्षत्र से पुराना वर्ष समाप्त हो कर नया आरम्भ होता था। अतः पुनर्वसु का देवता अदिति कहा गया-अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥ (ऋग्वेद १/८९/१०)। यह प्रायः १७५०० ई.पू. की स्थिति है। धन्वन्तरि इसके प्रायः १००० वर्ष बाद हुये। उसके कुछ समय बाद कार्त्तिकेय काल में उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया तथा धनिष्ठा से वर्ष और वर्षा का आरम्भ होता था (१५,८०० ई.पू.)। अमृत कलश का अर्थ है मृतप्राय व्यक्ति को जीवित कर देना। पहले मृतसञ्जीवनी विद्या केवल शुक्राचार्य को ही ज्ञात थी।
(२) धन्वन्तरि का अवतार काशिराज दिवोदास के रूप में हुआ।
आयोः पुत्रा महात्मानः पञ्चैवासन् महाबलाः।१।
नहुषः प्रथमस्तेषां क्षत्रवृद्धस्ततः स्मृतः। रम्भो रजिरनेनाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः॥२॥
क्षत्रवृद्धात्मजश्चैव सुनहोत्रो महायशाः। सुनहोत्रस्य दायादस्त्रयः परमधार्मिकाः॥३॥
काशः शलश्च द्वावेतौ तथा गृत्समदः प्रभुः।४।
काश्यश्च काशिपो राजा पुत्रो दीर्घतपास्तथा। धन्वश्च दीर्घतपसो विद्वान्धन्वन्तरिस्ततः॥७॥
धन्वन्तरेः सम्भवोऽयं श्रूयतामिति वै द्विजाः। स सम्भूतः समुद्रान्ते मथ्यमानेऽमृते पुरा॥१०॥
उत्पन्नः कलशात्पूर्वं सर्वतश्च श्रिया वृतः। सद्यः संसिद्धकार्यं तं दृष्ट्वा विष्णुरवस्थितः।।११॥
अब्जस्त्वमिति होवाच तस्मादब्जस्तु स स्मृतः॥१२॥ अथ वा त्वं पुनश्चैव ह्यायुर्वेदं विधास्यसि॥१८॥
द्वितीये द्वापरे प्राप्ते सौनहोत्रः स काशिराट्॥ पुत्रकामस्तपस्तेपे नृपो दीर्घतपास्तथा॥२०॥
तस्य गेहे समुत्पन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा॥२३॥ (ब्रह्मांड पुराण २/३/६७)
द्वितीये द्वापरे प्राप्ते सौनहोत्रः प्रकाशिराट् । पुत्रकामस्तपस्तेपे नृपो दीर्घतपास्तथा ॥१८॥
तस्य गेहे समुत्पन्नौ देवो धन्वन्तरिस्तदा । काशिराजो महाराजः सर्वरोगप्रणाशकः ॥१९॥
आयुर्वेदं भरद्वाजश्चकार सभिषक् क्रियम्। तमष्टधा पुनर्व्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत ॥२०॥
(वायु पुराण, अध्याय, ९२)
यहां दिवोदास का काल द्वितीय द्वापर कहा है। पर मान्धाता का पुत्र पुरुकुत्स का समकालीन दिवोदास का पुत्र सुदास था। मान्धाता का काल १५वां त्रेता कहा गया है। २८ त्रेता (या द्वापर) ३१०२ ई.पू. में समाप्त हुये। उससे १४ ३६० = ५०४० वर्ष पूर्व = ८१४२ ई.पू में शुरु हुआ तथा ७७८२ ई.पू. तक रहा। मान्धाता के १८ पीढ़ी बाद राजा बाहु यवनों के आक्रमण में मारा गया था जिसका समय मेगास्थनीज आदि ने तत्कालीन भारतीय लेखों के आधार पर ६७७७ ई.पू. कहा है। अतः दिवोदास धन्वन्तरि का काल प्रायः ८००० ई.पू. के कुछ बाद है। वायु पुराण (अध्याय ९८)-त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह। नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह। मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
स्वयं सुश्रुत संहिता के प्रथ अध्याय में काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि द्वारा आयुर्वेद उपदेश के बारे में कहा है-
अथातो वेदोत्पत्तिमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥ यथोवाच भगवान् धन्वन्तरिः॥२॥
अथ खलु भगवन्तममरवरं ऋषिगण परिवृतमाश्रमस्थं काशिराजं दिवोदासं धन्वन्तरिं औपधेनव-वैतरणौरभ्रपौष्कलावत-करवीर्य (र) गोपुर रक्षित सुश्रुत प्रभृतय ऊचुः॥३॥
एवमयमायुर्वेदोऽष्टाङ्ग उपदिष्यते, अत्र कस्मै किमुच्चतामिति॥९॥
त ऊचुः-अस्माकं सर्वेषामेव शल्यज्ञानं मूलं कृत्वोपदिशतु भगवानिति॥१०॥
त ऊचुर्भूयोऽपि भगवन्तम्-अस्माकमेककमतीनां मतमभिसमीक्ष्य सुश्रुतो भगवन्त प्रक्ष्यति, अस्मै चोपदिश्यमानं वयमप्युपधारयिष्यामः ॥१२॥
महाभारत के बाद के धन्वन्तरि-
(१) राजापरीक्षित ६० वर्ष केशासन के बाद ३०४२ ई.पू. में मरे थे। उस समय भी एक धन्वन्तरि का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में है-
सप्ताहे समतीते तु गच्छन्तं तक्षकं पथि।
धन्वन्तरिर्मोचयितुमपश्यद् गन्तुको नृपम्॥१०६॥ (ब्रह्म वैवर्त पुराण, अध्याय २/४६)
(२) उसके बाद वाराणसी के कल्प ब्राह्मण के घर समुद्र मन्थन के धन्वनरि का पुनर्जन्म हुआ जिन्होंने अपने क्षत्रिय शिष्य सुश्रुत को १०० अध्यायों का आयुर्वेद पढ़ाया-
तदा प्रसन्नो भगवान् (सूर्य) देवानाह शुभं वचः। अहं काश्यां भवाम्यद्य नाम्ना धन्वन्तरिः स्वयम्॥१७॥ कल्पदत्तस्य विप्रस्य पुत्रो भूत्वा महीतले॥१९॥
सुश्रुतं राजपुत्रं च विप्रवृद्ध समन्वितम्। शिष्यं कृत्वा प्रसन्नात्मा कल्पवेदमचीकरत्॥ २०॥
सुश्रुतः कल्पवेदं तं धन्वन्तरि विनिर्मितम्।पठित्वा च शताध्यायं सौश्रुतं तन्त्रमाकरोत्॥२३॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय ९)
(३) उसके बाद कलि की २३वीं शताब्दी (९०२-८०२ ई.पू.) में एक और धन्वन्तरि हुये जिनका एक शिष्य सुश्रुत (द्वितीय) था। सुश्रुत के शिष्य भी धन्वन्तरि कह्लाते थे-
त्रिविंशाब्दे (कलि २२०० = ईसापूर्व ९०२) च यज्ञांशेतत्र वासमकारयत्।३४।
धन्वन्तरिर्द्विजो नाम ब्रह्मभक्ति परायणः।३६।
इति धन्वन्तरिः श्रुत्वा शिष्यो भूत्वा च तद्गुरोः। सुश्रुतादपरे चापि शिष्या धन्वन्तरेः स्मृताः॥४५॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २०)
(४) कलि की २७वी शताब्दी (५०२-४०२ ई.पू.) में शाक्यसिंह गौतम बुद्ध (१८८७-१८०७ ई.पू. के सिद्धार्थ बुद्ध से भिन्न) ने सभी सनातन वैदिक परम्पराओं को समाप्त कर दिया था। अहिंसा के नाम पर शल्य चिकित्सा बन्द हो गयी थी। धन्वन्तरि ने पुनः शल्य चिकित्सा आरम्भ की-
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥ शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥ स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः। सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
धन्वन्तरिः प्रयागे च गत्वा तद्यन्त्रमुत्तमम्। विलोमं कृतवांस्तत्र तदधो ये गता नराः॥७०॥
डल्हण ने भी सुश्रुत संहिता की व्याख्या में लिखा है कि बौद्ध नागार्जुन ने कुछ श्लोकों को बदल दिया था-
यत्र यत्र परोक्षे लिट् प्रयोगस्तत्र तत्रैव प्रतिसंस्कत्तृ सूत्रं शातव्यमिति। प्रतिसंस्कर्त्ताऽपीह नागार्जुन एव।
(५) अन्तिम धन्वन्तरि उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य (८२ई.पू.-१९ ई.) के ९ रत्नों में से थे। इसका उल्लेख अन्य नवरत्न कालिदास की पुस्तक ज्योतिर्विदाभरण के अध्याय २२ में है जिसमें ग्रन्थ का काल ३०६८ कलि = ३४ ई.पू. लिखा है-
धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह शंकु वेतालभट्ट घटखर्पर कालिदासाः॥
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
वर्षः सिन्धुरदर्शनम्बरगुणैः (३०६८) र्याते कलौ सम्मिते।
मासे माधव संज्ञिते च विदितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः॥ (ज्योतिर्विदाभरण, कालिदास)
✍🏻अरुण उपाध्याय
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