Friday, 6 October 2017

आप इस असुंतलन का समर्थन कैसे कर सकते हैं, इसका विरोध क्यों नहीं करते

पचास के करीब मुस्लिम बहुल देश हैं जिनमें छह इस्लामिक स्टेट व 19 इस्लामिक राष्ट्र हैं। ये किसने बनाए? सोचकर बताइए कि आप कैसे इसका समर्थन करते हैं कि 25 देशों में इस्लाम के सिवा और किसी पंथ को तरजीह न दी जाए? क्या आपके मन में कभी यह बात आती है कि ये सब खत्म होना चाहिए? कैसे कोई राष्ट्र इस्लामिक और ईसाई हो सकता है जब तक कि वहां दूसरे पंथ को मानने वाला व्यक्ति मौजूद है? मगर यह हुआ, अल्पसंख्यक या तो देश छोड़कर भागे या आपके मजहब को अपनाया। इस्लाम में सुर्खाब के पंख लगे थे जो देखते ही लोग दंडवत हो जाते थे? दमन, जलालत, युद्ध, लालच, धोखा आदि को हथियार बनाकर मजहबी सिपाही अपना काम करते रहे और हम अल्लाह की वाह-वाह करते रहे। परेशानी यह है कि आपको अपने कभी गलत नहीं लगते हैं और दूसरे जालिम। विरोध तो दूर, आपकी आवाज भी नहीं निकलती है। यह सोच हमारी दिमागी कुरूपता का नतीजा है। इस्लामिक देशों में किसे दुर्गा पूजा का जुलूस निकालने की स्वतंत्रता मिलती है? जहां होता भी है वहां बहुत दबकर और डर कर। समाज को हमने मिलकर कुरूप बना दिया है। रोहिंग्या उसी का नतीजा है। इसलिए मैंने कसम खाई है कि मैं और मेरे बच्चे कभी मक्का या हज पर नहीं जाएंगे। तभी जाएंगे, जब सऊदी अरब पूरी कौम और मानवता के लिए मक्का के रास्ते खोलेगा। ऐसे खुदा से मेरा व मेरे बच्चों का कोई वास्ता नहीं जो सिर्फ अरबों और खास समूह का हो। जिस दिन दुनिया के हर शख्स के लिए मक्का के दरवाजे खुलेंगे, उसी दिन वह हम सबका ‘अल्लाह’ बनेगा, भले इसमें मेरी कई पुश्तें लग जाएं। आप करेंगे ऐसा विरोध?      (ताबिश सिद्दिकी की फेसबुक वॉल से)
आखिर दुनियाभर में मुसलमानों के प्रति अविश्वास क्यों पनप रहा है? एक अल्पसंख्यक समाज के नजरिये से अपने मिजाज में लचीलापन लाइए और हो सके तो बेसिक शिक्षा के ढांचे को मजहबी नुक्ते-नजर से मुक्त रखिए। लेकिन हस्ब-आदत कुछ लोगों ने जबरदस्त रायता फैलाया। पोस्ट पर सबसे बढ़िया कमेंट यह आया कि तुम इनसान की शक्ल में छुपे शैतान हो। मैंने आईने में गोश्त फाड़ने वाले अपने नुकीले दांत देखे। ड्रैकुला जैसे तो नहीं थे, फिर भी मैंने उस शख्स की सलाहियत का लोहा माना... उत्तम! 
इस बात से मुझे आमिर से शाहरुख और ताजे-ताजे ट्रोलियाये गए उपराष्ट्रपति की याद हो आई कि भारत में असहिष्णुता वाकई बहुत बढ़ गई है। यहां विपरीत विचारधारा का तो कोई सम्मान ही नहीं है। फिर भी बढ़ी हुई असहिष्णुता के रूप में किसी मुस्लिम छुहारे के खिलाफ ‘भगवा भक्तों’ की उग्र प्रतिक्रिया को ही परिभाषित किया जा सकता है। बाकि ये ग्रीन कम्युनिटी वाले कभी शामी को ट्रोलियाते हैं, कभी इरफान, सना शेख, बिहार व मध्यप्रदेश के मुस्लिम भाजपा नेताओं को तो कभी इसी मंच पर औरतों, लड़कियों को अपशब्द कहते हैं। कभी मुझ जैसों के खिलाफ हल्ला बोल रैली का आयोजन करते हैं। यह भले उसी स्तर पर हो, पर इसे असहिष्णुता के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि मुस्लिम तो पैदाइशी मासूम होता है! वह कभी गलत नहीं कर सकता और अपनी मासूमियत के चलते ही कभी अमेरिकियों की साजिश का शिकार हो जाता है, कभी यहूदियों और अन्य की। जब वह गलती करता ही नहीं तो उससे किसी आत्मावलोकन की उम्मीद बेमानी है। सब टॉफी छीन कर उसे रुला देते हैं। जब वह टॉफी पाने की कोशिश करता है तो उसे आततायी ठहरा दिया जाता है... हाऊ रूड! आभासी दुनिया में सामने वाले की कार्रवाई से सुरक्षित रहने की सुविधा का फायदा उठाते-उठाते, तड़पती भावनाएं कुपोषित व बेहद कमजोर हो चली हैं, जो निरंतर वेंटिलेटर पर लेटी रहती हैं। ‘आस्था बेगम’ पर जरा-सा सवाल उठते ही वेंटिलेटर पर टिकी भावनाओं की सांसें उखड़ने लगती हैं। सांसें दुरुस्त करने को ही ट्रोलिंग का सहारा लिया जाता है। वरना यह भी सच है कि छेड़े न जाने की सूरत में लोग सुई की तरह सीधे रहते हैं... हाऊ क्यूट! इसकी स्वीकारोक्ति भी सुबह टॉयलेट जाने जितनी जरूरी है। असहिष्णु तो हम जैसे कलमची भी हुए हैं। नई सरकार में जो लोगों को घेर-घेर कर पकड़ते हैं, डंडे चलाकर अपनी पोस्ट पर लाते हैं और उनसे पोस्ट पढ़वाते हैं। जबरदस्ती न करें तो वे हम जैसों की पोस्ट पर थूकना भी गवारा न करें। प्रभु हमें इस पाप के लिए क्षमा करें!     (अश्फाक अहमद की फेसबुक वॉल से)

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