bharat men aatm heenata ki shuruwat...
अनेक गोरखों ,सिखों और राजपूत राजाओं ने १८५७ में कम्पनी के पक्ष में लड़ाई लड़ी और ब्रिटिश महारानी से संधि कर उन्हें भारत बुलाया जिसने लिखित आश्वासन दिया कि हम उनकी सीमाओं में भी छेड़छाड़ नहीं करेंगे और हम भारतीय राजाओं के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे .
अब चूंकि यह आश्वासन रानी का था ,लफंगों की कंपनी का नहीं तो महारानी ने बड़ी सीमा तक उसे निभाया
अब चूंकि यह आश्वासन रानी का था ,लफंगों की कंपनी का नहीं तो महारानी ने बड़ी सीमा तक उसे निभाया
,यह भी सत्य है पर तब भी कई उन्मत्त पादरी कभी छिपकर ,कभी खुलकर पाप पंथ बढाने में लगे रहे और अपनी महारानी पर भी दबाव बनाते रहे पर मुख्य काम तो शिक्षा के समूल नाश का किया गया और इसीलिए भारतीय पंडितों के विरुद्ध नियोजित झूठ फैलाया गया .
स्वयं अंग्रेजों ने रिकॉर्ड एकत्र किया कि भारत के हर गाँव में एक विद्यालय है और शहरों में अनेक हैं जहाँ हर जाती के शिक्षक हैं और हर जाती के विद्यार्थी हैं .
उनका रिकॉर्ड धर्मपाल द्वारा संग्रहीत कर टिपण्णी सहित छपा है और अहमदाबाद से इंदुमती कात्दारे जी ने गुजरती तथा हिंदी में भी छापा है पर इंग्लैंड जाकर पढने की प्रेरणा बड़े लोगों को दी गयी और वहां से पड़कर जो देशभक्त लौटे वे देशभक्त होकर भी कई मामलों में ब्रिटिश प्रचार से अभिभूत थे और भारत में अशिक्षा , अंधविश्वास आदि आदि रटने लगे बताने लगे ,इस से अंग्रेजो को बड़ी मदद मिली और सबसे बड़ी मदद स्वयं गांधी जी ने अंग्रेजों की यह कहते हुए कि कि पहले हम अपनी बुराइयां दूर करें जबकि अंग्रेजों की बुराइयों की बहुत कम चर्चा हुयी . वहां स्त्रियों की आत्मा नहीं मानी जाती थी ,वहां भयावह गन्दगी थी ,वहां महामारियां ,रोग , कंगाली थी ,९८ प्रतिशत लोग भयंकर शोषण का शिकार थे , भारत की लूट से पहली बार इंग्लैंड धनिक बन रहा था , यह कुछ नहीं बताया
note---. लगभग आधे से कुछ कम जो भारत स्वाधीन था ,उसे भी पराधीन प्रचारित करने का पाप इंग्लैंड में पढ़े लोगों ने भारत में किया .जिन प्रतापी राजाओं ने भारत को स्वाधीन रखा था ,उनके गौरव को भी इतिहास से मिटा डाला ६२५ रियासतों की इंग्लैंड से संधि थी तो संधि को भी दासता ही बता दिया . यह वस्तुतः तो देश द्रोह है पर चल रहा है ...
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न कभी गांधी ने स्वयं को राष्ट्रपिता कहा .न किसी प्रामाणिक भारतीय ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा , न कोई ज्ञानी उन्हें राष्ट्रपिता कहता , कुछ राजनेता क्या कहते हैं ,यह उनके चेलों का सिरदर्द है ,हमारा नहीं .
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जब Father of Nation उन्हें कहा तो १ अपने घोर विरोधी को शांत कर लक्ष्य प्राप्ति की एकता का प्रयोजन था , २.अंग्रेजी में इसका अर्थ है नए उदीयमान राज्य के परिकल्पक जैसे अविवाहित पादरी लोग फादर होते हैं तो वे किसी के पिता नहीं होते .. प्रेरक या मार्गदर्शक होते हैं और वहां नेशन का अर्थ राष्ट्र नहीं राज्य है क्योंकि यूरोप में नेशन स्टेट १५० वर्ष पूर्व ही बने हैं ,पहले कभी नहीं थे ...
, बाद में कतिपय कांग्रेसियों ने संघ एवेम हिन्दू समाज को नष्ट करने के लिए इस शब्द का भयंकर प्रचार किया , संविधान में कहीं ऐसा कोई शब्द गाँधी जी के लिए नहीं है और किसी शासकीय आदेश अध्यादेश में भी ऐसा कुछ कहा नहीं गया है अतः राष्ट्रपिता पर बहस समय नष्ट करने का तरीका है ,आप उस से दूर रहें ,
कौन आपको लट्ठ मारकर किसी को राष्ट्रपिता कहने को मजबूर कर रहा है ? कर रहा हो तो बताइये ,हम कुछ उपाय करेंगे .किसी को गांधीजी को राष्ट्रपिता ही कहने की धुन है तो उसे कहने दीजिये , हर बात में लड़ना मानवोचित नहीं है , इस शब्द से देश का न कोई हित हुआ है ना अहित . इसे भूल जाएँ .
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note---. लगभग आधे से कुछ कम जो भारत स्वाधीन था ,उसे भी पराधीन प्रचारित करने का पाप इंग्लैंड में पढ़े लोगों ने भारत में किया .जिन प्रतापी राजाओं ने भारत को स्वाधीन रखा था ,उनके गौरव को भी इतिहास से मिटा डाला ६२५ रियासतों की इंग्लैंड से संधि थी तो संधि को भी दासता ही बता दिया . यह वस्तुतः तो देश द्रोह है पर चल रहा है ...
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न कभी गांधी ने स्वयं को राष्ट्रपिता कहा .न किसी प्रामाणिक भारतीय ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा , न कोई ज्ञानी उन्हें राष्ट्रपिता कहता , कुछ राजनेता क्या कहते हैं ,यह उनके चेलों का सिरदर्द है ,हमारा नहीं .
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जब Father of Nation उन्हें कहा तो १ अपने घोर विरोधी को शांत कर लक्ष्य प्राप्ति की एकता का प्रयोजन था , २.अंग्रेजी में इसका अर्थ है नए उदीयमान राज्य के परिकल्पक जैसे अविवाहित पादरी लोग फादर होते हैं तो वे किसी के पिता नहीं होते .. प्रेरक या मार्गदर्शक होते हैं और वहां नेशन का अर्थ राष्ट्र नहीं राज्य है क्योंकि यूरोप में नेशन स्टेट १५० वर्ष पूर्व ही बने हैं ,पहले कभी नहीं थे ...
, बाद में कतिपय कांग्रेसियों ने संघ एवेम हिन्दू समाज को नष्ट करने के लिए इस शब्द का भयंकर प्रचार किया , संविधान में कहीं ऐसा कोई शब्द गाँधी जी के लिए नहीं है और किसी शासकीय आदेश अध्यादेश में भी ऐसा कुछ कहा नहीं गया है अतः राष्ट्रपिता पर बहस समय नष्ट करने का तरीका है ,आप उस से दूर रहें ,
कौन आपको लट्ठ मारकर किसी को राष्ट्रपिता कहने को मजबूर कर रहा है ? कर रहा हो तो बताइये ,हम कुछ उपाय करेंगे .किसी को गांधीजी को राष्ट्रपिता ही कहने की धुन है तो उसे कहने दीजिये , हर बात में लड़ना मानवोचित नहीं है , इस शब्द से देश का न कोई हित हुआ है ना अहित . इसे भूल जाएँ .
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आज विश्व में परस्पर घनिष्ठता आई है अतः सीधा युद्ध कभी कभी ही होगा ,शेष समय बौद्धिक रणनैतिक युद्ध चल रहे हैं इसके लिये कई संस्थाओं की अलग अलग भूमिका होती है
जैसे यूरोपीय देशो के राज्य अलग खेल खेलते हैं और चर्च अलग ,कम्पनियाँ अलग ,NGOs अलग और सब मिलकर गोल करते हैं पर भारत में १९४७ में नेहरु ने समस्त भारतीय संस्थानों को अनधिकृत बनाते हुए केवल राज्य को एकमात्र वैध शक्ति बना डाला है इसलिए हिन्दू धर्मतंत्र के पास कोई अधिकृत वैधानिक स्वतंत्र शक्ति बचने नहीं दी गयी हैअतः हिन्दू धर्माचार्य वह भूमिका निभा ही नहीं सकते जो पोप पादरी आदि निभा रहे है ,यह बहुत बड़ा पाप नेहरु ने किया और आज भाजपा भी उसे जारी रखे है क्योंकि कोई विद्याकेंद्र (अपरा विद्याओं का ) हिन्दुओं का है ही नहीं .
ऐसे मे भारतीय राज्य की शक्ति सीमित हो जाती है ,वह ज्यादा से ज्यादा उतना ही तो कर सकता है (अभी तक किया नहीं है पर मोदी जी कर सकते हैं ), जितना यूरोप के राज्य कर रहे हैं पर वहां जो काम पादरी पोप आदि कर रहे हैं ,NGOs कर रहे हैं , कम्पनियाँ कर रही हैं Universities कर रही हैं ,वह कुछ भारत में संभव नहीं क्योंकि राज्य कम्युनिस्ट देशों की तरह सर्वग्रासी है , जुदिसिअरी(Judiciary) राज्य का ही आँगन (कोर्ट ) है , खाप तथा परंपरागत पंचायतें नेहरु ने खा डालीं और विनाशकारी दलबाजी वाली पंचायतें खड़ी की गयीं , परंपरागत व्यापारिक संस्थाएं नष्ट और अधिकार रहित कर डाली गयीं , धर्मतंत्र की स्वतंत्र सत्ता नष्ट कर डाली गयी . यह आत्मघाती स्थिति है ,परिपक्व समाज इकहरी संस्थाओं से नहीं चलते जैसा वर्तमान में भारत में राज्य एकमात्र अधिकृत संस्था है और दल उसके ही एक उपकरण हैं पर धर्म , व्यापार , न्याय आदि की परंपरागत संस्थाएं नष्ट कर डाली गयी हैं ,यह स्थिति भारत को बेहद कमजोर स्थिति में ला रखती है .
जो लोग इन विषयों पर सोच सकने की सामर्थ्य ही नहीं रखते ,उनसे विवाद मैं नहीं करूंगा .जो लोग किसी न किसी दल या नेता के दीवाने हैं ,वे उन से तो बेहतर हैं जो नटों और नटिनियों के दीवाने हैं पर वे इस विमर्श में सक्षम नहीं हैं अतः उन्हें कोई उत्तर मैं नहीं दूंगा . जो इस विषय का महत्त्व समझेंगे , उनसे ही इस विषय पर संवाद संभव है . आगे जैसी भारत माता (जो साक्षात् जगदम्बा हैं ,कोई बेड़ियों में जकड़ी असहाय सी स्त्री नहीं ,महा शक्तिशाली परम ऐश्वर्यमयी चिन्मय सत्ता है ) की, महाकाल की , भगवान की इच्छा और योजना . हर हर महादेव .
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देखिये मित्रो , १८८५ से १९०७ तक कांग्रेस ब्रिटिश भक्त थी , १९०७ से उसमे जान आई . मालवीय जी ,लाल बाल पाल ने उसे राष्ट्रिय बनाया इस से अंग्रेज डर गए और मिनटों मारले के बाद स्वायत्तता देकर जाने यानी दोस्तों को सौंपने की बातें करने लगे क्योंकि क्रांति कारियों से वे डर गए थे , अचानक गाँधी उनके यानी अंग्रेजों के परम मित्र बनकर उभरे और खुद को ब्रिटिश राज की परम राजभक्त प्रजा कहा और तबसे चतुर सुजान कांग्रेस में जाकर अंग्रेजों को पटाने लगे कि गद्दी हमें ही दे जाना जिस से अंग्रेजों ने जाने का विचार छोड़ दिया और कांग्रेस में कुछ लोगों को पालने लगे तथा कम्युनिष्ट पार्टी लन्दन में बनवाई या फैलवायी . इसलिए अंग्रेज मित्र कांग्रेसियों को प्रखर हिंदुत्व से तथा भारत के राजाओं और ब्राह्मणों से एवं धर्मनिष्ठ व्यापारियों से सबसे ज्यादा चिढ हो गयी पर शीघ्र ही भारत का नरसिंह सपूत नेताजी सुभाष अंग्रेजों की छाती में मूंग दलने लगा तो गाँधी जी ने पूरी शक्ति नेताजी सुभाष को कमजोर करने में लगा दी .
दुसरे महायुद्ध में अंग्रेज और फ्रेंच भारतीय सनिकों की दया पर निर्भर हो गए तो जाना तय हो गया ,सौदेबाजी होने लगी इसमें नेहरु सबसे बाजी मार ले गए
अब नेहरु को संघ ,सावरकरजी तथा हिन्दू महासभा से खतरा दिखा और आर्य समाज से भी तो इनको परस्पर लड़ाने लगे . गाँधी जी की ह्त्या को अपनी राजनीती के लिए अवसर में बदल दिया नेहरु ने , कम्युनिष्टों को खरीदा और अल्पसंख्यक मोर्चा बनाकर तथा जातिवाद फैलाकर हिन्दू समाज को कमजोर रखने में पूरा ध्यान लगाया , शिक्षा और संचार में कम्युनिष्टों की नक़ल कर सरकारी एकाधिकार स्थापित कर सरकारी मान्यता और सम्मान के सहारे अपने बौद्धिक तैयार करने लगे जिन्हें मार्क्स ने आत्मा के इन्जीनीयर कहा था जो अत्यंत अपमान जनक शब्द है .
हिन्दू विद्या केंद्र के अभाव में धार्मिक हिन्दू भी अनेक सामाजिक राजनैतिक मामलं में इन्ही नास्तिक और रद्दी विचारों तथा जुमलों के फेर में आने लगे . हिन्दू समाज में बौद्धिक दरिद्रता १९६० के बाद तेजी से बढाई गयी
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देखिये मित्रो , १८८५ से १९०७ तक कांग्रेस ब्रिटिश भक्त थी , १९०७ से उसमे जान आई . मालवीय जी ,लाल बाल पाल ने उसे राष्ट्रिय बनाया इस से अंग्रेज डर गए और मिनटों मारले के बाद स्वायत्तता देकर जाने यानी दोस्तों को सौंपने की बातें करने लगे क्योंकि क्रांति कारियों से वे डर गए थे , अचानक गाँधी उनके यानी अंग्रेजों के परम मित्र बनकर उभरे और खुद को ब्रिटिश राज की परम राजभक्त प्रजा कहा और तबसे चतुर सुजान कांग्रेस में जाकर अंग्रेजों को पटाने लगे कि गद्दी हमें ही दे जाना जिस से अंग्रेजों ने जाने का विचार छोड़ दिया और कांग्रेस में कुछ लोगों को पालने लगे तथा कम्युनिष्ट पार्टी लन्दन में बनवाई या फैलवायी . इसलिए अंग्रेज मित्र कांग्रेसियों को प्रखर हिंदुत्व से तथा भारत के राजाओं और ब्राह्मणों से एवं धर्मनिष्ठ व्यापारियों से सबसे ज्यादा चिढ हो गयी पर शीघ्र ही भारत का नरसिंह सपूत नेताजी सुभाष अंग्रेजों की छाती में मूंग दलने लगा तो गाँधी जी ने पूरी शक्ति नेताजी सुभाष को कमजोर करने में लगा दी .
दुसरे महायुद्ध में अंग्रेज और फ्रेंच भारतीय सनिकों की दया पर निर्भर हो गए तो जाना तय हो गया ,सौदेबाजी होने लगी इसमें नेहरु सबसे बाजी मार ले गए
अब नेहरु को संघ ,सावरकरजी तथा हिन्दू महासभा से खतरा दिखा और आर्य समाज से भी तो इनको परस्पर लड़ाने लगे . गाँधी जी की ह्त्या को अपनी राजनीती के लिए अवसर में बदल दिया नेहरु ने , कम्युनिष्टों को खरीदा और अल्पसंख्यक मोर्चा बनाकर तथा जातिवाद फैलाकर हिन्दू समाज को कमजोर रखने में पूरा ध्यान लगाया , शिक्षा और संचार में कम्युनिष्टों की नक़ल कर सरकारी एकाधिकार स्थापित कर सरकारी मान्यता और सम्मान के सहारे अपने बौद्धिक तैयार करने लगे जिन्हें मार्क्स ने आत्मा के इन्जीनीयर कहा था जो अत्यंत अपमान जनक शब्द है .
हिन्दू विद्या केंद्र के अभाव में धार्मिक हिन्दू भी अनेक सामाजिक राजनैतिक मामलं में इन्ही नास्तिक और रद्दी विचारों तथा जुमलों के फेर में आने लगे . हिन्दू समाज में बौद्धिक दरिद्रता १९६० के बाद तेजी से बढाई गयी
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