ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश ईसाई पंथ के प्रवर्तन के समय से इन 'द्रविड़ों' पर घनघोर अत्याचार हुए। ईसाई पादरियों की समझ में प्राचीन द्रविड़ 'अगम' (Ogham) लिपि नहीं आती थी (तुलना करें संस्कृत 'आगम' एवं 'निगम')। 'द्रविड़' जंगलों में आश्रम बनाकर पठन-पाठन का कार्य करते थे, जहाँ उनकी प्रथाएँ और परम्पराएं अखंड चलती रहें। जहाँ युवा होने तक बच्चे पढ़ते थे। वह साधारणतया स्मृति से होता था। पर जो कुछ भी लेख थे, वे ईसाइयों ने जादू-टोना समझकर नष्ट कर दिए।
जनता को धर्मपरायण बनाने वाले गीत बंद हो गए। उनके आश्रम, गुरूकुल नष्ट किए गए। उनका समूल नाश करने का यत्न हुआ। रोम के ईसाई सम्राट अगस्त (Augustus) ने फरमान जारी किया कि रोमन लोग द्रविड़ों से कोई संबन्ध न रखें। बाद में गिरजाघर में या अन्यत्र ईसाई प्रवचन होते ही भीड़ औजार लेकर निकल पड़ती और द्रविड़ों के मंदिर व मूर्तियां तोड़ती तथा घरों एवं ग्रंथों को आग लगाती। यह ईसाई पंथ उसी प्रकार के निर्मम अत्याचारों, छल-कपट से और जबरदस्ती लादा गया जैसे 'तलवार के बल पर इसलाम'।
ये सेल्टिक सभ्यता के बचे-खुचे अवशेष आज छोटे-छोटे गुटों में विभाजित, छिपकर अपने को द्रविड़ (द्रुइड) कहते पाए जाते हैं। किसी एक स्थान पर इकट्ठा होकर अपनी प्राचीन भाषा में स्तुति कर वे एकाएक पुन: लुप्त हो जाएँगे, ऐसी परंपरा बन गयी। आज भी अपने को ऊपरी तौर पर ईसाई कहते हुए भी इन्होंने अपनी प्राचीन संस्कृति की स्मृति बचाए रखी है।
श्री पी.एन.ओक का कहना है कि वे अपनी भाषा में अनूदित गायत्री मत्रं का उच्चारण और पंथ की छोटी-मोटी पुस्तिकाएं (जैसे 'सूर्यस्तुति' और 'शिवसंहिता' सरीखी शायद खंडित एवं त्रुटिपूर्ण और विकृत रूप में) आज भी रखते हैं। गुप्तता उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गयी है। कैसे सदियों अत्याचारों की सामूहिक स्मृति वंशानुवंश विद्यमान रहती है, उसका यह एक उदाहरण है। इसी प्रकार प्राचीन द्रविड़ों से प्रभावित इटली की एत्रुस्कन सभ्यता (Etruscan civilisation) रोमन साम्राज्य में, और उससे बची-खुची बातें ईसाई पंथ को राजाश्रय मिलने पर नष्ट हो गयी। रोम नगर टाइबर नदी के तट पर कुछ गांवों को मिलाकर रामुलु (Romulus) (यह आंध्र प्रदेश में सामान्य नाम है) ने बसाया था। वहां एत्रुस्कन सभ्यता के कुछ पटिया, फूलदान एवं दर्पण मेंअंकित रहस्य बने, विक्रम संवत पूर्व सातवीं शताब्दी के अनेक चित्र मिले। इन चित्रों को रामायण के बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, लंकाकांड एवं उत्तरकांड के दृश्यों के रूप में पहचाना गया है।
एत्रुस्कन लोगों को रामकथा की विस्तृत जानकारी थी। विक्रम संवत पूर्व सातवीं शताब्दी तक इस सभ्यता का कभी-कभी युत्र आच्छादित इतिहास मिलता है। पर कहते हैं कि ईसाई पंथ के फैलते यह सभ्यता स्वतः नष्ट हुयी। ऐसा भयंकर सामूहिक समूल नाश वास्तव में ईसाई अत्याचारों का परिणाम है। ईसाई पंथ-गुरूओं के अत्याचारों से इतिहास के पन्ने रँगे हैं।
उनके वे पंथाधिकरण (Inquisitions), जिनमें रोमहर्षक, पंथ के नाम पर, मानवता की हड्डियों पर दानवता का निष्ठुर नंगा नर्तन तथा अकथनीय अत्याचार की कहानियां हैं। फ्रांस की उस देहाती हलवाहे की लड़की 'जोन' की मन दहलाने वाली कथा, जिसे यह कहने पर कि उसे देवदूतों ने कहा है किफ्रांस की धरती से अंग्रेजों को निकाल दो (और जिसने फ्रांसीसी सेना का सफल नेतृत्व कर विजय दिलायी), ईसाई पंथ के ठेकेदारों ने सूली से बाँधकर जीवित जला दिया। यह अन्य बात है कि सौ वर्षपूरे होने के पहले ही उसे 'संत' की उपाधि देकर पुनः प्रतिष्ठित करना पड़ा।
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