घर से जब भी बाहर जाये*
*तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर मिलकर जाएं*
*और*
*जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले*
*क्योंकि*
*उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार रहता है*
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*तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर मिलकर जाएं*
*और*
*जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले*
*क्योंकि*
*उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार रहता है*
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"घर" में यह नियम बनाइए की जब भी आप घर से बाहर निकले तो घर में मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर "प्रभु चलिए..आपको साथ में रहना हैं"..!
ऐसा बोल कर ही निकले क्यूँकि आप भले ही *"लाखों की घड़ी" हाथ में क्यूँ ना पहने हो पर "समय" तो "प्रभु के ही हाथ" में हैं न*
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एक बार एक कुत्ते और गधे के बीच शर्त लगी कि जो जल्दी से जल्दी दौडते हुए दो गाँव आगे रखे एक सिंहासन पर बैठेगा...
वही उस सिंहासन का अधिकारी माना जायेगा, और राज करेगा.
जैसा कि निश्चित हुआ था, दौड शुरू हुई.
कुत्ते को पूरा विश्वास था कि मैं ही जीतूंगा.
क्योंकि ज़ाहिर है इस गधे से तो मैं तेज ही दौडूंगा.
पर अागे किस्मत में क्या लिखा है ... ये कुत्ते को मालूम ही नही था.
शर्त शुरू हुई .
कुत्ता तेजी से दौडने लगा.
पर थोडा ही आगे गया न गया था कि अगली गली के कुत्तों ने उसे लपकना ,नोंचना ,भौंकना शुरू किया.
और ऐसा हर गली, हर चौराहे पर होता रहा..
जैसे तैसे कुत्ता हांफते हांफते सिंहासन के पास पहुंचा..
तो देखता क्या है कि गधा पहले ही से सिंहासन पर विराजमान है.
तो क्या...!
गधा उसके पहले ही वहां पंहुच चुका था... ?
और शर्त जीत कर वह राजा बन चुका था.. !
और ये देखकर
निराश हो चुका कुत्ता बोल पडा..
अगर मेरे ही लोगों ने मुझे आज पीछे न खींचा होता तो आज ये गधा इस सिंहासन पर न बैठा होता ...
तात्पर्य ...
कुत्ते को पूरा विश्वास था कि मैं ही जीतूंगा.
क्योंकि ज़ाहिर है इस गधे से तो मैं तेज ही दौडूंगा.
पर अागे किस्मत में क्या लिखा है ... ये कुत्ते को मालूम ही नही था.
शर्त शुरू हुई .
कुत्ता तेजी से दौडने लगा.
पर थोडा ही आगे गया न गया था कि अगली गली के कुत्तों ने उसे लपकना ,नोंचना ,भौंकना शुरू किया.
और ऐसा हर गली, हर चौराहे पर होता रहा..
जैसे तैसे कुत्ता हांफते हांफते सिंहासन के पास पहुंचा..
तो देखता क्या है कि गधा पहले ही से सिंहासन पर विराजमान है.
तो क्या...!
गधा उसके पहले ही वहां पंहुच चुका था... ?
और शर्त जीत कर वह राजा बन चुका था.. !
और ये देखकर
निराश हो चुका कुत्ता बोल पडा..
अगर मेरे ही लोगों ने मुझे आज पीछे न खींचा होता तो आज ये गधा इस सिंहासन पर न बैठा होता ...
तात्पर्य ...
अपने लोगों को काॅन्फिडेंस में लो. सबको साथ रखो। मिल जुलकर रहो.
उमा शंकर सिंह
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रस्सी कूदने का शौक कई सारे लोगों को होता है। अधिकतर रस्सी कूदना लड़कियों को बहुत अधिक पसंद होता है। जब भी हम रस्सी कूदते है तो हमें अपने स्कूल के दिन अवश्य ही याद आ जाते हैं। अगर आप रोजाना रस्सी कूदते है तो आपको कोई भी एक्सरसाइज करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। रस्सी कूदना जितना आसान है उतना ही यह हमारी सेहत के लिए फायदेमंद भी है। आज हम आपको बताते है कि रस्सी कूदने से क्या-क्या फायदे होते हैं।
1. पूरे शरीर की कसरत
रस्सी कूदने से पूरे शरीर की कसरत हो जाती है। इससे आपके शरीर में चुस्ती, ताकत और हर काम को करने के क्षमता बढ़ती है।
रस्सी कूदने से पूरे शरीर की कसरत हो जाती है। इससे आपके शरीर में चुस्ती, ताकत और हर काम को करने के क्षमता बढ़ती है।
2. दिमाग होता है तेज
कई बार हम काम करके बोर हो जाते है और फ्रेश होने के लिए रस्सी कूदते है। एेसा करने से हमारा दिमाग फिर से काम करना शूरू कर देता है। इससे आपका दिमाग अधिक चलता है और पैरों पर इतना प्रेशर नहीं पड़ता।
कई बार हम काम करके बोर हो जाते है और फ्रेश होने के लिए रस्सी कूदते है। एेसा करने से हमारा दिमाग फिर से काम करना शूरू कर देता है। इससे आपका दिमाग अधिक चलता है और पैरों पर इतना प्रेशर नहीं पड़ता।
3. वजन करें कम
लोग वजन कम करने के लिए सुबह सैर करने जाते हैं लेकिन शायद आप यह नहीं जानते कि रस्सी कूदने से जल्दी वजन कम होता है। अगर आप भी वजन कम करना चाहते है कि रस्सी कूदना शूरू करें।
4. सांस लेने की क्षमता
रस्सी कूदने से आपकी सांस लेनी की क्षमता बढ़ती है। स्वास्थ्य रहने के लिए हम कई तरह की एक्सरसाइज करते है जिसमें हम अपनी सांस को भी कुछ समय तक रोकते है। वहीं रस्सी कूदते समय आपको सांस रोकनी नहीं पड़ती।
रस्सी कूदने से आपकी सांस लेनी की क्षमता बढ़ती है। स्वास्थ्य रहने के लिए हम कई तरह की एक्सरसाइज करते है जिसमें हम अपनी सांस को भी कुछ समय तक रोकते है। वहीं रस्सी कूदते समय आपको सांस रोकनी नहीं पड़ती।
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जिसने 13 साल में एवरेस्ट फतह कर
बनाया था वर्ल्ड रिकॉर्ड...
जो सोचते हैं कि लड़कियां हर काम नहीं कर सकतीं। उनके लिए मालावथ पूर्णा एक मिसाल है। सिर्फ 13 साल की उम्र में एवरेस्ट की सबसे ऊंची चोटी छूकर पूर्णा ये साबित कर दिया कि लड़कियां कुछ भी कर सकती हैं। तेलंगाना के छोटे से पकाला गांव में रहने वाली पूर्णा देखते ही देखते एक ऐसी शख्सिायत बन गई हैं, जिसके बारे में जानने और जिसकी सफलता की कहानी सुनने को हर आदमी उत्सुक है।माउंट एवरेस्ट की सबसे ऊंची चोटी को सबसे कम उम्र में छूने वाली दुनिया की दूसरी और भारत की पहली व्यक्तिं हैं और दुनिया की पहली लड़की हैं। दरअसल, पूर्णा ने जब एवरेस्ट की चढ़ाई की तब वो 13 साल 11 महीने की थीं, जबकि जॉर्डन रोमेरो ने 13 साल 10 महीने की उम्र में यह कारनामा किया था।इसके लिए पूर्णा को कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। उस वक्त पूर्णा तेलंगाना के गवर्नमेंट स्कूल की नौंवी क्लास में पढ़ती थी। उनका स्कूल रेसीडेंशियल था, इसलिए बाहरी दुनिया की बहुत कम चीज़ों से वाकिफ थी। एक दिन रॉक क्लाइम्बिंग स्कूल से एक टीम आई जो माउंटेनियरिंग ट्रेनिंग के लिए स्टूडेंट्स सिलेक्ट कर रही थी। आठ महीने तक फिज़िकल और मेंटल ट्रेनिंग दी गई। दार्जलिंग, सिक्किम और लद्दाख में हमें जॉगिंग, ट्रेकिंग, वेट कैरिंग जैसी एक्सरसाइज़ और मेडिटेशन के ज़रिए माउंटेनियरिंग के लिए तैयार किया गया। 110 में से केवल दो स्टूडेंट्स का सिलेक्शन किया गया। उसमें से पूर्णा एक थी।पूर्णा ने 25 मई 2014 को क्लाइंबिंग स्टार्ट की। 54 दिन में पूर्णा एवरेस्ट फतह करके वापस आ गई। पूर्णा जब नीचे आई तब उनको पता चला कि उन्होंने वर्ल्ड रिकॉर्ड बना दिया है। वो माउंट एवरेस्ट समित करने वाली सबसे कम उम्र की पर्वतारोही हैं।पूर्णा को इस दौरान काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कई बार वो विचलित भी हुई लेकिन हिम्मत नहीं हारी। ऊंचाई, बफिर्ली हवाएं, सब ज़ीरो टेम्परेचर और मेंटल स्टेट, ऐसी कई चुनौतियां आपको ऊपर चढ़ने से रोकती हैं। क्लाइम्बिंग के दौरान कई माउंटेनियर्स की डेड बॉडीज भी रास्तों में मिलती हैं जो सालों से वहीं पड़ी हैं।लेकिन पूर्णा ने अपना ध्यान समिट करने में लगा रखा था। आखिरकार पूर्णा ने वो कर दिखाया, जो पर्वातारोहियों का सपना होता है।
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जसवंत थड़ा
जोधपुर दुर्ग मेहरानगढ़ के पास ही सफ़ेद संगमरमर का एक स्मारक बना है जिसे जसवंत थड़ा कहते है। इसे सन 1899 में जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह जी (द्वितीय)(1888-1895) की यादगार में उनके उत्तराधिकारी महाराजा सरदार सिंह जी ने बनवाया था। यह स्थान जोधपुर राजपरिवार के सदस्यों के दाह संस्कार के लिये सुरक्षित रखा गया है। इससे पहले राजपरिवार के सदस्यों का दाह संस्कार मंडोर में हुआ करता था। इस विशाल स्मारक में संगमरमर की कुछ ऐसी शिलाएँ भी दिवारों में लगी है जिनमे सूर्य की किरणे आर-पार जाती हैं। इस स्मारक के लिये जोधपुर से 250 कि, मी, दूर मकराना से संगमरमर का पत्थर लाया गया था। स्मारक के पास ही एक छोटी सी झील है जो स्मारक के सौंदर्य को और बढा देती है इस झील का निर्माण महाराजा अभय सिंह जी (1724-1749) ने करवाया था।
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जसवंत थड़ा
जोधपुर दुर्ग मेहरानगढ़ के पास ही सफ़ेद संगमरमर का एक स्मारक बना है जिसे जसवंत थड़ा कहते है। इसे सन 1899 में जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह जी (द्वितीय)(1888-1895) की यादगार में उनके उत्तराधिकारी महाराजा सरदार सिंह जी ने बनवाया था। यह स्थान जोधपुर राजपरिवार के सदस्यों के दाह संस्कार के लिये सुरक्षित रखा गया है। इससे पहले राजपरिवार के सदस्यों का दाह संस्कार मंडोर में हुआ करता था। इस विशाल स्मारक में संगमरमर की कुछ ऐसी शिलाएँ भी दिवारों में लगी है जिनमे सूर्य की किरणे आर-पार जाती हैं। इस स्मारक के लिये जोधपुर से 250 कि, मी, दूर मकराना से संगमरमर का पत्थर लाया गया था। स्मारक के पास ही एक छोटी सी झील है जो स्मारक के सौंदर्य को और बढा देती है इस झील का निर्माण महाराजा अभय सिंह जी (1724-1749) ने करवाया था।
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चेतक की अपने मालिक के प्रति वफ़ादारी
महाराणा प्रताप के साथ-साथ चेतन भी किसी सम्माननीय शक्सियत से कम नही था।
कहा जाता है की चेतक बहुत ही समझदार और वीर घोड़ा था। हल्दीघाटी में अकबर के साथ युद्ध के समय चेतक महाराणा प्रताप का बड़ा सहयोगी था। उस समय चेतक ने अपनी जान दांव पर लगाकर 25 फुट गहरे दरिया से कूदकर महाराणा प्रताप की रक्षा की थी| हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप विजयी हुए लेकीन युद्ध में बुरी तरह घायल होने पर महाराणा प्रताप को रणभूमि छोड़नी पड़ी थी और अंत में इसी युद्धस्थल के पास चेतक घायल हो कर उसकी मृत्यु हो गयी।
हिंदी कवि श्याम पाण्डेय द्वारा लिखी गयी कविता “चेतक की वीरता” में चेतक का पूरा वर्णन दिया हुआ हैं| हल्दीघाटी में आज भी चेतक का मंदिर बना हुआ है और वहा चेतक के पराक्रम कथा वर्णित हुई है।
वास्तव में चेतक काफी उत्तेजित और फुर्तीला था और वो खुद अपने मालिक को ढूंडता था, चेतक ने महाराणा प्रताप को ही अपने मालक के रूप में चुना था। कहा जाता है की महाराणा प्रताप और चेतक के बीच एक गहरा संबंध था। वास्तव में यदि देखा जाए तो महाराणा प्रताप भी चेतक को बहुत चाहते थे।
वह केवल इमानदार और फुर्तीला ही नही बल्कि निडर और शक्तिशाली भी था।
उस समय चेतक की अपने मालिक के प्रति वफ़ादारी किसी दुसरे राजपूत शासक से भी ज्यादा बढ़कर थी। अपने मालिक कि अंतिम साँस तक वह उन्ही के साथ था और युद्धभूमी से भी वह अपने घायल महाराज को सुरक्षित रूप से वापिस ले आया था। इस बात को देखते हुए हमें इस बात को वर्तमान में मान ही लेना चाहिए की भले ही इंसान वफादार हो या ना हो, जानवर हमेशा वफादार ही होते है।
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