Thursday 3 November 2016

कहानी फिर से महाभारत की है, लेकिन फिर से ये युद्ध की नहीं बल्कि युद्ध के कई साल बाद की है | इसे सुनना इसलिए जरूरी है क्योंकि कुछ झोला छाप, पेम्पलेट बुद्धिजीवियों को लगता है कि महाभारत दिव्यांगों का विरोधी है | ऐसा वो इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि भारत में ज्यादातर लोगों ने महाभारत नहीं पढ़ा |      
महाभारत के युद्ध को जब कई साल बीत चुके थे, तो धृतराष्ट्र आदि वानप्रस्थ आश्रम में थे | ऐसे में जंगल में एक दिन व्यास धृतराष्ट्र आदि से मिलने आये | यहाँ धृतराष्ट्र मुनि व्यास को बताते हैं कि उनकी इच्छा नहीं थी कि द्युत (जुए) का खेल हो, लेकिन पुत्रमोह में वो दुर्योधन को मना नहीं कर पाए (वन पर्व 3.9) | उनकी बात सुनकर व्यास उन्हें सुरभि और इंद्र की एक कहानी सुनते हैं | सुरभि गायों की माता मानी जाती हैं | एक दिन सुरभि दुखी थी और रो रही थी | इंद्र ने देखा तो वो उसके पास आये और पूछा कि हुआ क्या है ? सुरभि ने बताया कि उसका एक कमजोर पुत्र है | वो एक बेरहम मालिक के पास है | अब मजबूत वाला पुत्र तो आराम से हल खींच पा रहा है, लेकिन कमजोर पुत्र खींच नहीं पाता | इस वजह से बेरहम मालिक अपने कमजोर बैल को पीट रहा है | अपने पुत्र को मार खाते देखकर सुरभि दुखी हो रही थी |

ये सुनकर इंद्र आश्चर्यचकित हुए ! उन्होंने पूछा सुरभि तुम्हारी संतति तो हर जगह फैली हुई है | इतनी गायों, बैलों, बछड़ों के बीच तुम्हारा ध्यान उसी एक कमजोर बैल पर कैसे है ? सुरभि ने बताया कि वो अपनी सभी संतति से प्रेम तो एक जैसा ही करती है, लेकिन उसकी संवेदनाएं कमजोर पुत्र के लिए ज्यादा हैं | उसकी बात सुनकर इंद्र ने खेतों के उस इलाके में बारिश की और किसान को काम रोककर जाना पड़ा | बैल और पीटने से उस वक्त बच गया | ये कहानी सुना कर व्यास कहते हैं कि राजा, या माता-पिता, या गुरुजनों का ध्यान सबपर बराबर ही होता है | लेकिन उस स्थिति में भी कमजोर और आसक्त का ज्यादा ख़याल रखा जाता है | इसी वजह से व्यास भी धृतराष्ट्र, पांडू, और विदुर में सबसे ज्यादा ध्यान धृतराष्ट्र का ही रखते थे |

शारीरिक रूप से कमजोर या दिव्यांग जन के लिए ज्यादा सुविधाओं का ये उदाहरण, महाभारत में, केवल एक ही जगह नहीं है | आप जहाँ भी देखेंगे वहां ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे | सभा पर्व (2.5) में नारद मुनि जब युधिष्ठिर को सलाह देते हैं तो वो अंधे, मूक-बधिर, हाथ या पांव से विहीन, या जिनका कोई घर ना हो (अनाथ) उनका ध्यान बिलकुल पिता की तरह रखने की सलाह देते हैं | विराट पर्व (4.18) में बताया गया है कि कैसे राजा युधिष्ठिर अपने राज्य में दिव्यांगों और कमजोर लोगों का विशेष ध्यान रखते हैं | अनुशासन पर्व (13.24) में कहा गया है कि अंधे या हाथ-पांव से विहीन व्यक्ति को किसी तरह का नुकसान पहुँचाना सबसे बड़े पापों में से एक है | शांति पर्व (12.157) में कहा गया है कि बच्चे, अंधे या मूक-बधिर के किये गए अपराधों को क्षमा कर दिया जाना चाहिए | सौप्तिक पर्व (10.6) में कहा गया है कि कमजोर, सोये हुए, या अंधे आदमी पर कभी भी हमला नहीं किया जाना चाहिए | आदिपर्व (1.02) तो अष्टावक्र का जिक्र करता है जो अपने समय के सबसे प्रख्यात विद्वान् थे | आगे यही अष्टावक्र अनुशासन पर्व (13.21) में पारिवारिक जिम्मेदारियों पर व्याख्यान भी देते हैं | उन्होंने अष्टावक्र गीता भी लिखी थी, जो हमारा एक जाना-माना ग्रन्थ है | महाभारत में ऋषि दिर्घतामस का जिक्र भी है जो की नेत्रहीन थे (संभव पर्व 1.104) |

ऋग्वेद के सूक्त 1.140 से 1.164 की रचना उन्होंने ही की थी | ये हिस्सा ज्योतिष में नक्षत्रों के पहले जिक्र के लिए जाना जाता है | इस हिस्से में ना सिर्फ राशियों का जिक्र है बल्कि राशियों के 360 डिग्री के कोण पर होने उनके तीन, छह, और बारह भागों में विभक्त करने पांच और सात की संख्या से उनके सम्बन्ध पर भी प्रकाश डाला गया है |

समय बीतने के साथ जैसे जैसे विदेशी आक्रमण भारत पर बढ़ने लगे और अन्य मजहबों के राजाओं का शासन आया वैसे वैसे भारत में दिव्यांगों के प्रति बर्ताव में भी परिवर्तन देखा जाने लगा | 800 बी.सी. के स्पार्टा में विकलांग बच्चों को पैदा होते ही मारा जाना हो या फिर शुरूआती रोमन साम्राज्य के द्वारा विकलांग बच्चों को मरने के लिए छोड़ना हो ये देखा जा सकता है | बाद के एरिस्टोटल (आरस्तु) जैसे विद्वानों का भी मत था कि विकलांग बच्चे को आगे जीवित नहीं रखना चाहिए | ग्रीक कानूनों के मुताबिक पैदा होने के साथ दिन बाद तक बच्चा इंसान नहीं होता इसलिए विकलांग होने की स्थिति में उसे मार देना कोई पाप नहीं था | कई बार विकलांग पैदा ही ना हों इसके लिए उनका जबरन बंध्याकरण भी किया गया | इसके लिए बाकायदा कानून होते थे |1

1573 में आई अम्ब्रोईस परे की “मोंसटेर्स एट प्रोडिगेस” में तो शारीरिक और मानसिक अक्षम के राक्षस होने के 13 लक्षण भी गिनाये गए हैं |2 उनमें से एक कारण जन्म देने वाली माता का पालथी (हिन्दुओं के बैठने का आम तरीका) में बैठना भी है | 1751 में फिलेडेल्फिया में टिकट देकर मानसिक या शारीरिक दिव्यांगों को देखने की व्यवस्था वाला पहला अस्पताल शुरू हो गया | 1886 में जॉन लेंगडॉन डाउन नाम के एक ब्रिटिश डॉक्टर जो कि रॉयल एसाइलम फॉर इडियट्स, अर्ल्सवुड के सुप्रिटेनडेंट थे उन्होंने कुछ मरीजों में एक जैसे लक्षण देखे | उन्होंने उसे “मोंगोल्स” कहना शुरू किया जिस से “मोंगोलोइड इडियट्स” का जुमला शुरू हुआ | आज इस बीमारी को डाउन सिंड्रोम कहा जाता है |3 4

भारतीय समाज की परिकल्पना, और विदेशी मान्यताओं में भारी अंतर है | जितना ज्यादा हम पाश्चात्य की नक़ल करते जाते हैं, हम मनुष्यता से उतनी ही तेजी से दूर होने लगते हैं |

No comments:

Post a Comment