Friday 18 November 2016

सोशल मीडिया समाज का वो चेहरा भी दिखा देता है जिसके दिखने का अंदेशा भर होते ही आप पहले ही मूंह फेर लेते हैं ...

Anand Kumar ने Praveen Jha की पोस्ट साझा की.
अख़बार और सोशल मीडिया में यही अंतर है | शहर के पचास-सौ मेडिसिन बिज़नस वालों से बात करने के बाद भी पत्रकार आपको आधा सच बता पायेगा | क्यों ?
क्योंकि अख़बार एक कंपनी का प्रोडक्ट है, उन्हें अपना व्यापार चलाना होता है |
वो पेड न्यूज़ है, आप उसे मूल्य देकर खरीदते हैं | सोशल मीडिया अक्सर आपको समाज का वो चेहरा भी दिखा देता है जिसके दिखने का अंदेशा भर होते ही आप पहले ही मूंह फेर लेते हैं |
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यह बात तो जगजाहिर है कि भारत में एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड, एम.आर.आई. इत्यादि पर एक रेफरल कट उस डॉक्टर को जाता है, जो केस भेजते हैं। यह पूरे देश में है। बैंगलोर में ३३-५० % भेजना होता था, बाकि जगह के अपने-अपने रेट हैं। जैसे आप ७००० का एम.आर.आई. कराते हैं, तो ३५०० उनको जाता हैं जिन्होने लिखा है। इसमें जिसने भी ईमानदारी दिखाई, वो डूब गया। मशीन कुछ तीन करोड़ की आती है, इसलिए बैंक का लोन चुकाने के लिए लोग शर्तें मान लेते हैं, और सिस्टम स्मूथ चलता है। आप पैसे टाइम पर पहुँचाएँ, तो केस आते रहेंगें। कुछ को उसी शाम चाहिए, कुछ का हफ्ता बँधा है, कुछ का महीना। अधिकतर कैश लेते हैं, कुछ चेक भी लेते हैं जिसे वो 'प्रोफेशनल फी' रूप में दिखा कर 'व्हाइट' कर लेते हैं। कुछ जो ईमानदार डॉक्टर होते, वो ५० % डिस्काउंट मरीज को लिख देते यानी अपनी फीस माफ। कुछ आधे ईमानदार २५ % डिस्काउंट लिखते हैं, ऐसे ही सबका ईमानदारी-इंडेक्स है अपना-अपना।
मैं रेडियोलॉजिस्ट हूँ और यह भारत में मेरे कार्य का सबसे बड़ा बाधक रहा। मैनें अल्ट्रासाउंड मशीन खरीदी पर मरीज बिना कट के नहीं आते। हालांकि मैं अस्पताल से जुड़ा था और कुछ लोकप्रिय हुआ तो कुछ खास लोग गरीब मरीज भेजने लगे। कुछ फोकट में, कुछ आधे दाम में। उस वक्त मैं हार्ड-कोर केजरीवाल सपोर्टर था, और ब्लैक मनी का विरोधी था। (सपोर्टर अभी भी हूँ, पर अब दिन-दहाड़े नहीं बताता, कौन भिड़े?)। खैर, मेरा मुख्य इंटरेस्ट स्पोर्ट्स-इंज्यूरी में था, जिसके एम.आर.आई. बड़े प्राइवेट संस्थानों में ही होते। वहाँ मैनें काम किया खूब, पर यह छुपा नहीं था कि संस्थान चल कैसे रहा है? इतने मरीज आ कैसे रहे हैं? आप कैसे एक 'ब्लैक' धंधे के अंदर पगार उठा सकते हैं?
वैसे भी स्पोर्ट्स-इंज्यूरी भारत में कम हैं, यूरोप की अपेक्षा। नॉर्वे आ गया। यहाँ भी बैंक का लोन है, एम.आर.आई है, धंधा चलाना है। 'कट' नहीं है। यहाँ हर कोई खिलाड़ी हैं, खूब गिरते-पड़ते हैं। मैनें आस-पास के सभी डॉक्टरों पर पैठ बना ली, अब खूब चल पड़ी है, वो भी बिना कट। बस एक अमरीकी डॉक्टर साब केस नहीं भेज रहे थे। पता लगा पेंटिंग करते हैं, वो भी बकवास। मैनें उनसे एक घटिया पेंटिंग खरीद ली, अब उनका हर केस आता है। मतलब दूध के धुले तो मैं भी नहीं, ये भी नहीं।

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