Sunday 6 November 2016

महामृत्युंजय मंत्र के रचयिता मार्कंडेय ऋषि की कथा
भगवान शिव के उपासक ऋषि मृकंदुजी के घर कोई संतान नहीं थी। उन्होंने भगवान शिव की कठिन तपस्या की। भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। उन्होंने संतान की कामना की। भगवान शिव ने कहा,‘‘तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है। तुमने हमारी कठिन भक्ति की है इसलिए हम तुम्हें एक पुत्र देते हैं । लेकिन उसकी आयु केवल सोलह वर्ष की होगी ।’’
कुछ समय के बाद उनके घर में एक पुत्र ने जन्म लिया। उसका नाम मार्कंडेय रखा। पिता ने मार्कंडेय को शिक्षा के लिए ऋषि मुनियों के आश्रम में भेज दिया। पंद्रह वर्ष व्यतीत हो गए। मार्कंडेय जी शिक्षा लेकर घर लौटे। उनके माता- पिता उदास थे। जब मार्कंडेय जी ने उनसे उदासी का कारण पूछा तो उनके पिता ने मार्कंडेय जी को सारा हाल बता दिया। मार्कंडेय जी ने पिता से कहा कि उन्हें कुछ नहीं होगा।
माता-पिता से आज्ञा लेकर मार्कंडेय भगवान शिव की तपस्या करने चले गए। उन्होंने महामृत्युंजय मंत्र की रचना की। एक वर्ष तक उसका जाप करते रहे। जब सोलहवर्ष पूर्णहो गए, तो उन्हें लेने के लिए यमराज आए। वे शिव भक्ति में लीन थे। जैसे ही यमराज उनके प्राण लेनेआगे बढ़े तो मार्कंडेय जी शिवलिंग से लिपट गए। उसी समय भगवान शिव त्रिशूल उठाए प्रकट हुए और यमराज से कहा कि इस बालक के प्राणों को तुम नहीं ले जा सकते। हमने इस बालक को दीर्घायु प्रदान की है। यमराज ने भगवान शिव को नमन किया और वहाँ से चले गए। तब भगवान शिव ने मार्कंडेय जी को कहा, ‘तुम्हारे द्वारा लिखा गया यह मंत्र हमें अत्यंत प्रिय है। भविष्य में जो कोई इसका स्मरण करेगा हमारा आशीर्वाद उस पर सदैव बना रहेगा’ इस मंत्र का जप करने वाला मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है और भगवान शिव की कृपा उस पर हमेशा बनी रहती है। यही बालक बड़ा होकर मार्कंडेय ऋषि के नाम से विख्यात हुआ ।


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जयद्रथ वध

कुरुक्षेत्र में कौरवों और पाण्डवों के मध्य भीषण युद्ध आरम्भ था। अर्जुन की अनुपस्थिति में कौरवों ने चक्रव्यूह रचा। उसमें अर्जुनपुत्र वीर अभिमन्यु ने सहजता से प्रवेश कर लिया; परन्तु उससे निकल नहीं पाया। अन्ततः उसे वीरगति प्राप्त हुई। उसकी मृत्यु के पश्चात, पाण्डवों के द्वेष से ग्रस्त कौरव सेना के जयद्रथ ने अभिमन्यु के मस्तक पर लात मारी।
अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार सुनकर अर्जुन पुत्रशोक से अति व्याकुल हो उठे। इस मृत्यु से अर्जुन को दुःख की अपेक्षा जयद्रथ के घृणित कार्य से अधिक क्रोध हुआ। अर्जुन ने तुरन्त प्रतिज्ञा की, ‘कल सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध करूंगा। ऐसा नहीं कर पाया, तो अग्निमें समा जाऊंगा !’ यह समाचार सुनकर कौरव सेना और जयद्रथ अत्यन्त भयभीत हुए। जयद्रथ को बचाने के लिए कौरवों ने उसके चारों ओर महान योद्धओं का कवच खड़ा कर दिया। समय बीतता गया, सूर्यास्त होने में अधिक समय शेष नहीं था और जयद्रथ का अता-पता नहीं था।
इधर श्रीकृष्ण को अपने भक्त अर्जुन की चिन्ता होने लगी। इसलिए उन्होंने अपने सुदर्शनचक्र से सूर्य को ही ढंक दिया। सबको लगा सूर्यास्त हो गया है। अब अर्जुन ने, प्रतिज्ञाके अनुसार अग्नि में प्रवेश करने के लिए लकड़ियों की चिता बनाई और उसे आग भी लगा दी। इसलिए, कौरवगण अर्जुन को जलते हुए देखने के लिए उस चिता के पास आकर खडे हो गए। कुछ समय पश्चात जयद्रथ भी वहां आ गया। जलती चिता में प्रवेश करने से पहले अर्जुन ने धनुष्य-बाण उठाया, अग्निदेव का नमस्कार किया और चिता में छलांग लगाने ही वाला था कि श्रीकृष्ण ने सूर्य पर से अपना सुदर्शन चक्र हटा लिया। इससे सर्वत्र सूर्य का प्रकाश फैल गया। यह देख कौरव सेना में भगदड मच गई। जयद्रथ तो पूर्णतः अवाक हो गया। इतने में श्रीकृष्ण ने अर्जुनसे कहा, ”अर्जुन, अब क्या देखते हो, धनुष पर बाण चढाओ! वह देखो सूर्य और सामने जयद्रथ!” कृष्ण के ये शब्द सभी दिशाओं में गूंज उठे। अर्जुन ने एक क्षण में अपने बाणों से जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया।
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