Thursday 17 November 2016

"सामाजिक जीवन में व्याप्त भ्रस्टाचार समाज में नीतिगत जीवन मूल्यों के पतन का प्रभाव है, भ्रस्टाचार को समाज के वैचारिक पतन का कारन मान लेना समझ की गलती होगी। ऐसे में, जब समस्या की समझ ही स्पष्ट न हो तो उसके निवारण की दिशा में उठाया जाने वाला कोई भी कदम भला कैसे सार्थक हो सकता है, फिर प्रयास में निष्ठां चाहे जितनी हो।
समस्या प्रयास नहीं बल्कि समस्याओं की समझ है और जितनी जल्दी हम अपनी गलतियों को मान लेंगे, हमें सुधार के लिए उतना ही अधिक समय मिलेगा।
हमें कारन और प्रभाव के अंतर को जानना और समझना पड़ेगा अन्यथा किसी भी प्रयास का परिणाम समय और श्रम की व्यर्थता ही सिद्ध करेगा।
भ्रस्टाचार के उन्मूलन मात्र से ही समाज की सम्पन्नता, समृद्धि, समता व् नैतिक जीवन मूल्यों की व्यावहारिक जीवन में स्थापना सुनिश्चित नहीं की जा सकती पर अगर प्रयास व्यावहारिक दृष्टि से आदर्श समाज की स्थापना पर केंद्रित हो तो निश्चित रूप से समाज से भ्रस्टाचार का उन्मूलन संभव होगा, ऐसे में, समय की उपयोगिता के लिए प्रयास की सही दिशा क्या होनी चाहिए, आप ही बताएं ?
जब 'राष्ट्र' की समझ ही विकृत हो तो राष्ट्रहित के नाम पर किया जाने वाला कोई भी प्रयास कितना परिपक्व होगा यह समझना कठिन नहीं पर जब सत्य की स्वीकृति ही समस्या हो तो परिस्थितियों में सुधार के लिए समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण को बदलना ही एक मात्र विकल्प बचता है।
एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में आत्मनिर्भरता, विकास, स्वालंबन और आर्थिक समृद्धि प्राप्त करने का हमारा प्रयास तो कई दशकों से चल रहा है पर अब तक हम सफल इसलिए नहीं हो पाए क्योंकि हमने अपनी वास्तविकता का आधुनिकीकरण करने के बजाये विकास के नाम पर पाश्चात्य शैली का अनुसरण करना उचित समझा। चूँकि हमारे राष्ट्रीय जीवन का आधार अलग है इसलिए हमारे विकास की परिभाषा ही नहीं बल्कि प्रक्रिया भी अलग होगी। .
विकास के स्वदेशी संस्करण की प्रक्रिया में समाज को आत्मनिर्भर और स्वालंबी बनाकर ही एक राष्ट्र के रूप में हम सही अर्थों में विकसित कहलायेंगे पर जब शाशन तंत्र अपनी शक्तियों का प्रयोग अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ती के लिए समाज को सत्ता पर आश्रित करने के लिए करे तो राष्ट्र की आर्थिक प्रगति समाज के विकास का पर्याय नहीं हो सकती।
केवल भ्रस्टाचार के उन्मूलन के सीमित प्रयास से भारत के 'परम वैभव' की प्राप्ति संभव ही नहीं, हमें योजना बद्ध तरिके से सामाजिक जीवन के विभिन्न समस्याओं के मूल कारणों को चिन्हित कर उनपर संगठित प्रयास को केंद्रित करना होगा ;
इसके लिए हमें परिस्थितियों को ही नहीं बल्कि हमारे विकास की समझ, विकास की प्रक्रिया, राजनीति की मानसिकता और समस्याओं के प्रति राष्ट्र के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता होगी, फिर इसके लिए नेतृत्व परिवर्तन ही क्यों न करना पड़े; क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?"

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