Tuesday, 5 January 2016

राष्ट्रीय चरित्र से जाग्रत व समतायुक्त समाज ही देश को महान बनाता है
 : डॉ. मोहन भागवत

पूजनीय सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने पुणे में 3 जनवरी 2016 को हुए शिव शक्ति संगम में कहा कि हमारी परंपरा शिवत्व की है, इसे शक्ति का साथ मिले तो विश्व में हमें हमारी पहचान बढ़ेगी। चरित्र ही हमारी शक्ति है। शीलयुक्त शक्ति के बिना विश्व में कोई कीमत नहीं है। इस महत्तम उद्देश्य के लिए ही शिवशक्ति संगम अर्थात् सज्जनों की शक्ति के प्रदर्शन की आवश्यकता है।

शिवशक्ति कहने पर स्वाभाविक रूप से हमें छत्रपति शिवाजी महाराज का स्मरण हो आता है। अपने स्थान पर उदात्त शासन करनेवाले वे महान राजा थे। सीमित राज्य में रहकर सम्पूर्ण राष्ट्र का विचार करनेवाले वे महान राजा थे। धर्म का राज्य चले, ऐसी सोच रखनेवाले आदर्श हिंदवी स्वराज्य के संस्थापक थे शिवाजी महाराज। उनके द्वारा किया गया संगठन तत्वनिष्ठा पर आधारित था। इसी तत्वनिष्ठा के चलते हमने भगवा ध्वज को गुरू माना है। निर्गुण निरामय के अलावा तत्व का आचरण संभव नहीं है। तत्वों में सद्गुण आवश्यक है। वह काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। संघ के छह में से पांच उत्सव तत्वों पर आधारित है, जबकि शिव राज्याभिषेक उत्सव जिसे हम हिन्दू साम्राज्य दिवस के रूप में मनाते हैं, केवल यही उत्सव व्यक्ति विशेष के नाम पर है। शिवाजी महाराज का स्मरण अर्थात् चरित्र और नीति का स्मरण है।

हमारी परंपरा शिवत्व की है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् हमारी संस्कृति है। समुद्र मंथन से जो हलाहल निकला था, उसकी बाधा विश्व को न हो इसलिए जिन्होंने उसे प्राषण किया, वे नीलकंठ हमारे आराध्य दैवत हैं। उनके आदर्श को लेकर हमारी यात्रा जारी है। शिवत्व की परंपरा शाश्वत अस्तित्व के तौर पर जानी जाती है। शिव को शक्ति का साथ मिलना चाहिए। शिव को शक्ति के सिवा समाज नहीं जानता। विश्व में शक्तिशाली देशों की बुराई पर चर्चा नहीं होती। वे हम चुपचाप सह लेते हैं। लेकिन अच्छे, परंतु शक्ति में कम राष्ट्रों की अच्छी बातों पर चर्चा नहीं होती। उन देशों की अच्छी सभ्यता को प्रतिसाद नहीं मिलता।

उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के जापान में अनुभव का वर्णन करते कहा कि उस व्याख्यान में कई छात्र नहीं आए, क्योंकि गुलाम राष्ट्र के नेता का भाषण हम क्यों सुनें, यह छात्रों का सवाल था। हमारे पास सत्य होने के बाद भी हम उसे बता नहीं सकते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, युद्ध में विजय के बाद और परमाणु परीक्षण के बाद हमारे देश की प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी हुई थी। देश की शक्ति बढ़ती है, तब सत्य की भी प्रतिष्ठा बढ़ती है। इसके लिए शक्ति की नितांत आवश्यकता है। शक्ति का अर्थ है मान्यता। शक्तिसंपन्न राजा भी शीलसंपन्न विद्वानों के सामने नतमस्तक होते हैं। यह हमारी परंपरा है। हमारे यहां त्याग और चरित्र से शक्ति जानी जाती है। शक्ति का विचार शील से आता है। इसके लिए शीलसंपन्न शक्ति की आवश्यकता है और शीलसंपन्न शक्ति का अविर्भाव सत्याचरण से होता है।

संविधान लिखते समय डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था कि राजनीतिक एकता आई है, किंतु आर्थिक और सामाजिक एकता के बिना वह टिक नहीं सकती। भागवत जी ने कहा कि हम कई युद्ध दुश्मन के बल के कारण नहीं, बल्कि आपसी भेद के कारण हार गए। भेद भूलाकर एक साथ खड़े न हो तो संविधान भी हमारी रक्षा नहीं कर सकता। व्यक्तिगत और सामाजिक चरित्रनिष्ठ समाज बनना चाहिए। सामाजिक भेदभावों पर कानून में प्रावधान कर समरसता नहीं हो सकती। समरसता को आचरणीय बनाने के लिए संस्कार करने पड़ते हैं, आज इसकी आवश्यकता है। तत्व छोड़कर राजनीति, श्रम के सिवा संपत्ति, नीति छोड़कर व्यापार, विवेक शून्य उपभोग, चरित्र के बिना ज्ञान, मानवता के सिवा विज्ञान और त्याग के सिवा पूजा ये सात सामाजिक अपराध हैं, ऐसा महात्मा गांधी कहते थे। इन अपराधों का निराकरण करना ही संपूर्ण स्वराज्य है, ऐसा उनका मत था। इसलिए उनके विचारों की संपूर्ण स्वतंत्रता मिलना अभी भी बाकी है। इस तरह की संपूर्ण स्वतंत्रता, समता और बंधुता वाले समाज का निर्माण करना संघ का ध्येय है और इसके लिए संघ की स्थापना हुई है |

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