Saturday, 11 August 2018

 गांधी ने भारतीयों को ब्रिटिश फौज में भर्ती कराने का जबरदस्त  अभियान छेड़ा 
28 जुलाई 1914 को शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की तरफ से लड़ने के लिए मोहनदास करम चन्द गांधी ने भारतीयों को ब्रिटिश फौज में भर्ती कराने का इतना जबरदस्त और सफल अभियान छेड़ा था कि ब्रिटिश साम्राज्य ने मोहनदास करमचंद गांधी को इसके लिए #कैसर_ए_हिन्द की उपाधि से सम्मानित किया था। ध्यान रहे कि उस प्रथम विश्वयुद्ध में 74 हज़ार भारतीय सैनिक मौत के मुंह में समा गए थे।
11 नवम्बर 1918 को प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के 5 महीने बाद ही अंग्रेज़ों ने 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में निर्दोष निहत्थे भारतीय नागरिकों को गोलियों से भूनकर लगभग एक हज़ार भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया था। बाद में मोहनदास करमचंद गांधी ने यह कहकर सफाई दी थी कि मैंने प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की मदद इसलिए की थी क्योंकि मुझे विश्वास था कि हमारी मदद से खुश होकर अंग्रेज हमें आज़ादी दे देंगे। लेकिन मेरा विश्वास गलत सिद्ध हुआ। मैं स्वीकारता हूं कि मुझसे गलती हुई जो अब दोबारा नहीं होगी। लेकिन मोहनदास करमचंद की यह सफाई ना सत्य थी ना ही ईमानदार थी। क्योंकि 1 सितम्बर 1939 को दूसरा विश्व युद्ध शुरू होते ही मोहनदास करमचंद गांधी ने देश भर का तूफानी दौरा कर के अनेक सभाओं को सम्बोधित कर ब्रिटिश फौज में भर्ती होने के लिए भारतीयों को प्रेरित एकत्रित करने का देशव्यापी अभियान छेड़ दिया था। इस द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों के लिए लड़ते हुए 87 हज़ार भारतीय सैनिक मौत के घाट उतर गए थे। तथा 90 हज़ार भारतीय सैनिक घायल हुए थे।
आप मित्रों के मन में यह प्रश्न उठ रहा होगा कि उपरोक्त दोनों घटनाक्रमों का 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से क्या लेना देना.?
दरअसल इसका लेना देना है। क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध में 74 हज़ार भारतीय सैनिकों की मौत तथा इसके जवाब में मिले जलियांवाला बाग नरसंहार के कारण गांधी की तीखी आलोचना होने लगी थी, संगीन सवाल उठने लगे थे। जिन्हें दबाने के लिये मोहनदास करमचंद गांधी ने 1921 में असहयोग आंदोलन का शिगूफा छेड़ दिया था। लेकिन 4 फरवरी 1922 को उत्तरप्रदेश के चौरीचौरा में हुुुई घटना के बहाने मोहनदास करमचंद गांधी ने बिना किसी शर्त या समझौते के वह आन्दोलन वापस ले लिया था। गांधी के इस फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था कि "ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं"।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की यह प्रतिक्रिया सबकुछ स्वयं ही कह देती है। लेकिन 1939 में छिड़े द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों को पुनः भारतीय जवानों के लहू की जरूरत पड़ी थी। अतः 1920-21 में कही गयी अपनी बातों से मुकरते हुए मोहनदास करमचंद गांधी ने भारतीय जवानों को अंग्रेजों की फौज में भर्ती कराने का देशव्यापी अभियान अपनी पूरी शक्ति के साथ शुरू कर दिया था, अंग्रेजों की खुलकर मदद की थी। मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा अंग्रेजों की भक्ति का 3 साल लम्बा यह दौर 1942 तक जारी रहा लेकिन तबतक नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंग्रेजों के खिलाफ सैन्य युद्ध छेड़ चुके थे और उनकी देशव्यापी लोकप्रियता चरम पर पहुंच गयी थी। अतः मोहनदास करमचंद गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का शिगूफा छेड़ दिया था। इस आंदोलन में लगभग 1100 भारतीय शहीद हो गए थे। लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने 1945 तक चले द्वितीय विश्वयुद्ध के 6 वर्षों के दौरान एक बार भी उन लाखों नौजावनों को ब्रिटिश फौज छोड़ने का सन्देश नहीं दिया जिनको ब्रिटिश फौज में भर्ती कराने के लिए खुद मोहनदास करमचंद गांधी ने देशव्यापी दौरा कर के अनेक जनसभाएं की थीं। जबकि नेताजी सुभाषचंद्र बोस खुलकर यह आह्वान कर रहे थे और उनके आह्वान पर बहुत बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश फौज छोड़ दी थी तथा नेताजी की आज़ाद हिंद फौज में शामिल हो गए थे।
एकतरफ 1100 भारतीय उस आंदोलन में शहीद हो गए थे तो दूसरी तरफ अंग्रेजों ने मोहनदास करमचंद गांधी को आगा खां के आलीशान महल में और जवाहरलाल नेहरू को अहमदनगर के शानदार भव्य किले में आराम से जेल काटने की सुविधा दी थी। मोहनदास करमचंद गांधी को अपने साथ पत्नी और PA को रखने की सुविधा भी अंग्रेजों ने दी थी।

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