Monday, 20 August 2018

मुठ्ठी भर लोग जानते थे कि इतिहास से सबक मिलता है, सो इतिहास ही बदल डाला

पहले 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस की खुशी, लेकिन फिर अगले ही दिन अपने प्रिय नेता अटल जी के जाने के दुःख से उबर कर मैंने इस बार का पाञ्चजन्य पत्रिका का अंक निकाला और जो पढ़ना शुरू किया तो फिर पढ़ता ही चला गया। यह बंटवारे के आँखों देखा हाल से अटी पड़ी है।
हर हिन्दुस्तानी को यह अंक पढ़ना चाहिए। क्यों? क्योंकि आप विभाजन के बारे में जो जानते हैं वो आधा अधूरा है। सच इतना भयावह है कि उसका दसवां भाग भी भीष्म साहनी लिख नहीं पाए और तमस दिखा नहीं पाया।
मानव के ज्ञात इतिहास में ऐसी कोई दूसरी घटना नहीं मिलेगी। बिना युद्ध के जिस स्तर की मारकाट हुई उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। हिंसा का वो ताण्डव हुआ था कि पशुता भी शरमा जाये।
और यह हिंसा एकतरफा थी। लेकिन इसे जिस ख़ूबसूरती से षड्यंत्रपूर्वक छिपाया गया, ऐसा उदाहरण भी विश्व राजनीति में दूसरा नहीं मिलेगा।
मैं ऐसे अनेक बुजुर्गो से मिल चुका हूँ जिनकी उम्र 1947 में इतनी थी कि वो देखा-भोगा हुआ याद रख सकें। उनमे से कई लेखक पत्रकार और प्रोफेसर भी हैं। उनकी आँखों में जो दर्द उभरता है उसने मुझे अंदर तक हिलाया है। ये पीढ़ी तेज़ी से दुनिया छोड़ रही है और इनके साथ इतिहास हमेशा के लिए दफन हो जा रहा है।
मैंने जब जब भी किसी से पूछा कि आपने अपने अनुभव क्यों नहीं लिखे तो उनके चेहरे में डर का भाव भी उसी तीव्रता से उभरता। आज हम सोशल मीडिया के कारण आसानी से लिख-बोल पा रहे हैं। याद कीजिये जब यह नहीं था तब आम आदमी को अपनी आवाज उठाना कितना मुश्किल था। और जो उठती भी थी उसे आम जनता तक पहुंचने नहीं दिया जाता।
यही कारण है जो आज़ादी के बाद कुछ विशेष ब्रांड के लेखक और इतिहासकारों को ही स्थापित किया गया। इन्होंने जो पाप किया उसका दंड तो इन्हे नर्क में भी नहीं दिया जा सकता। इनका लिखा अर्धसत्य होने के कारण ही साहित्य और इतिहास कभी जनसामान्य स्वीकार नहीं कर पाया।
इसलिए ये लोग कभी भी जनप्रिय नहीं रहे। क्योंकि जो ये लिखते रहे हैं वो धरातल के विपरीत होता। बेशक साहित्य और इतिहास की विश्वसनीयता आम आदमी की निगाह में अच्छी नहीं रही, मगर ये गिरोह अपने मकसद में कामयाब रहा।
आज हिन्दुस्तान में कितने प्रतिशत लोग बचे हैं जो बंटवारे के अनुभव से गुजरे हैं? ना के बराबर। और आजादी के बाद की पीढ़ी के लिए यह अनुभव उपलब्ध ही नहीं रहा। ना तो स्कूलों में इसे सही सही पढ़ाया जाता है, ना ही यह साहित्य में अपने सत्य के साथ पढ़ने को मिलता है।
इसकी जगह जो अहिंसा और सेक्युलरिज़्म का पाठ पढ़ाया जाता है वो इतना आधारहीन है कि हवा के हलके झोके भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। मगर फिर भी विटामिन की तरह रोज इसे पिलाया जाता है। इसे पी पी कर जिस तरह से पूरी पीढ़ी को भ्रमित किया गया वो चिंतनीय है।
यह सब क्यों किया गया, इसे विस्तार से बताने की यहां शायद ज़रूरत नहीं। हम सब यह तो अब जान ही गए हैं कि देश की दशा छिपा कर दिशा क्यों और कैसे बदली गई और इसका फायदा किस किस ने किस किस तरह से लिया, इसके विस्तार में जाने पर विषयांतर हो जाएगा।
आवश्यकता है बंटवारे के ज़िंदा अनुभव को बचाने की। जिससे हम भविष्य के लिए सतर्क और तैयार हो सके। अब भी आज़ादी की पीढ़ी घर घर में ज़िंदा है। और ये बुजुर्ग सुदूर आसाम से लेकर बंगाल और तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र में भी मिल जाएंगे। इनके अनुभव को रिकॉर्ड करें। उसे संजोये और अगली पीढ़ी के लिए एक सबक के रूप में रखें।
आज़ादी के समय कुछ मुठ्ठी भर लोग जानते थे कि इतिहास से सबक मिलता है, इसलिए इतिहास को ही बदल डाला गया था। और फिर आज़ादी के बाद लम्बे समय तक अवाम को भ्रमित किया गया।
जिस तरह से जनता को गुमराह किया गया, ऐसा उदाहरण भी मानव इतिहास में दूसरा नहीं मिलता। लेकिन यह भविष्य में न हो इसके लिए हमें ज़्यादा कुछ नहीं, बस इतिहास को सत्य के साथ अगली पीढ़ियों को परोसना है। अगर हम यह करने में असफल होते हैं तो इतिहास उनको सबक जरूर सिखाता है जो इतिहास से सबक नहीं लेते।

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