भारत का सबसे छोटा स्वतंत्रता सेनानी, मात्र 12 साल की उम्र में हुआ शहीद !
साल 1926
उड़ीसा के ढेंकनाल ज़िले के नीलकंठपुर गांव में बाजी राउत का जन्म हुआ। बहुत कम उम्र में ही बाजी ने अपने पिता को खो दिया और उसकी माँ जैसे-तैसे घर चलाती थीं।
उस समय, ढेंकनाल का राजा शंकर प्रताप सिंहदेव था, जो गरीबों की कमाई का शोषण करने के लिए विख्यात था। बाजी की माँ भी उसकी नाइंसाफी की शिकार थीं।
उड़ीसा इतने दबाव में था कि अब विद्रोह का समय आ चूका था। ढेकनाल के बैष्णव चरण पट्टनायक के प्रयासों से यह संभव भी हुआ। लोग उन्हें प्यार से ‘वीर बैष्णव’ कहकर पुकारते थे। उन्होंने लोगों को इकट्ठा कर ‘प्रजामण्डल’ संगठन की स्थापना की और राजा के विरुद्ध विद्रोह आरम्भ कर दिया।
प्रजामण्डल में बच्चों की भी एक विंग थी – बानर सेना, जिसमें बाजी भी शामिल हो गया।
पट्टनायक ने रेलवे में पेंटर की नौकरी ले ली, ताकि वह रेलवे पास पर एक जगह से दूसरी जगह पहुंच कर लोगों को जागरूक कर सके और साथ ही कटक में राष्ट्रीय कांग्रेस के लोगों से मिल कर, उन्हें ढेंकानाल की स्थिति से अवगत कराया जा सके।
पट्टनायक ने मार्क्सवादी नीतियों को पढ़ना शुरू किया और स्थानीय बुद्धिजीवी हर मोहन पट्टनायक के साथ मिलकर ‘प्रजामण्डल आंदोलन’ शुरू किया जिसका मतलब था ‘जनता की पार्टी।’
यह आंदोलन धीरे-धीरे लेकिन स्थिर रूप से बढ़ा। ऐसे में अन्य राजाओं ने भी ढेंकानाल के राजा को समर्थन दिया ताकि इस विद्रोह को दबाया जा सके। यहां तक कि आस-पास के प्रांतीय राजाओं ने सेना भी भेजी। अंग्रेजों ने भी मदद की और कोलकाता से एक ब्रिटिश सेना की टुकड़ी भेज दी। अंग्रेजों ने 250 बंदूकधारियों को भेजा और उन्हें ढेंकानाल के राजा ने अपना पूर्ण समर्थन दिया।
लोगों के आर्थिक स्तर को नीचे गिराने से बेहतर और क्या हो सकता था? शंकर प्रताप ने लोगों पर ‘राजभक्त कर’ या ‘वफ़ादारी कर’ लगाया। और जो भी लोग इस कर को भरने में असमर्थ थे उनके घरों को शाही हाथियों द्वारा रुंदवाया गया। इतना ही नहीं उनकी बाकी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। लेकिन इस अत्याचार ने सभी को साथ ला खड़ा किया और आंदोलन मजबूती से बढ़ने लगा।
इससे तंग आकर राजा ने इस आंदोलन के नेताओं पर वार करना शुरू किया। उसने वीर बैष्णव की सारी पैतृक सम्पत्ति हड़प ली। इसके अलावा 22 सितम्बर 1938 को हर मोहन पट्टनायक के घर पर रेड की गयी, जहां अन्य आंदोलनकारी भी थे। सभी को गिरफ्तार किया गया। लेकिन पट्टनायक वहां से भी बच निकले।
हालांकि, गुस्से से भरे अधिकारी पट्टनायक की खोज में लगे रहे और उनको खबर मिली कि पट्टनायक भुबन गांव में है। 10 अक्टूबर, 1938 को इस गांव पर अंग्रेजों व राजा ने हमला कर दिया। लोगों के घरों को तहस-नहस कर उन पर पट्टनायक का पता बताने के लिए अत्याचार किये गए। लेकिन किसी ने भी जुबान नहीं खोली।
पर रेड के बाद से ही अफवाहें जारी थी कि पट्टनायक ब्राह्मणी नदी में कूदकर गांव के उस पार चला गया है। सेना तुरंत गांव के दूसरी तरफ पहुंची जहां उन्हें केवल कुछ स्थानीय लोग मिले और वो भी ऐसे लोग जो किसी भी कीमत पर अपने नेता को कुछ नहीं होने देना चाहते थे।
गुस्साई सेना ने गोली-बारी शुरू कर दी और मौके पर ही दो व्यक्ति, रघु नाइक और कुरी नाइक की मौत हो गयी। भीड़ आक्रामक होने लगी और सेना भागकर ब्राह्मणी के पास नीलकंठपुर पहुंची।
उस समय घाट पर बाजी की ड्यूटी थी और वह सो रहा था। सेना ने बाजी को उन्हें नाव से नदी पार कराने के लिए कहा। यह 11 अक्टूबर 1938 की दुर्भाग्यपूर्ण रात थी। बाजी को उस दिन नाव की रखवाली का काम मिला था।
मात्र 12 वर्ष की आयु में भी बाजी राउत का हौंसला व साहस अदम्य था। उसने अंग्रेजों को नदी पार कराने के लिए साफ़ इंकार कर दिया।
संयोग से, उस दिन बाजी को संगठन के लोगों द्वारा अंग्रेजों की नदी के आस-पास की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए भी कहा गया था। गुस्साए अंग्रेजों ने बाजी को डरा-धमका कर नदी पार कराने के लिए कहा, पर बाजी अडिग था। एक अंग्रेज ने बंदूक के निचले हिस्से से उसके सर पर वार किया। जिसकी वजह से बाजी चोटिल होकर नीचे गिर गया। लेकिन फिर भी वह जिद पर बना रहा।
इसके बाद दूसरे अंग्रेज ने भी उस पर वार किया। लेकिन फिर भी बाजी तेज आवाज में उनका मना करता रहा ताकि वह बाकी गांववालों को अंग्रेजी सेना की खबर दे सके।
इसके बाद एक अंग्रेज ने बाजी को गोली मार दी। एक बच्चे के साथ इस बर्बरता को देख, एक गांववाला तुरंत गांव पहुंचा और लोगों को इसकी खबर दी। गांववालें गुस्से में पागल होकर नदी के पास पहुंचे।
इतनी भीड़ को साथ देख कर अंग्रेज घबरा गए और तुरंत नाव में सवार होकर पट्टनायक को भूलकर गांव से दूर भागने लगे। लेकिन भागते-भागते भी उन्होंने गोलीबारी की और बाजी के अलावा और चार लोगों को मार गिराया।
बैष्णव पट्टनायक इनके मृत शरीरों को ट्रेन से कटक लेकर आये। इन शहीदों के लिए लोग भारी मात्रा में लाल सलाम के नारों के साथ आगे आये। इन सभी का कटक में पोस्टमार्टम किया गया। बाकी सभी आंदोलनकारियों ने पट्टनायक के साथ मिलकर तय किया कि बाजी और उसके साथी शहीदों को अंतिम-संस्कार के लिए कटक की गलियों से ले जाया जायेगा ताकि सभी उड़ीसा के इन वीरों के दर्शन कर सकें।
राज्य से हज़ारों लोगों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया। सभी तरफ बाजी की बहादुरी के चर्चे होने लगे। बाजी के लिए ज्ञानपीठ पुरुस्कार से सम्मानित सच्चिदानन्द रौत्रे ने उड़िया में एक कविता लिखी, जिसका हिन्दू अनुवाद इस प्रकार है
,बंधु यह चिता नहीं है,यह देश का अंधेरा मिटाने की मुक्ति की मशाल है।”
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