Friday, 31 August 2018

संदिग्ध नक्सलियों के सक्रिय समर्थक
अवधेश कुमार
पुणो पुलिस की ओर से माओवादियों यानी नक्सलियों के साथ मिलीभगत के आरोप में गिरफ्तार किए गए पांच लोगों के पक्ष में जिस तरह कुछ विख्यात लोग आनन-फानन उच्चतम न्यायालय गए और उनके पक्ष में जितने नामी-गिरामी वकील खड़े हो गए उससे आम आदमी का चकित होना स्वाभाविक है। उच्चतम न्यायालय ने उन पांचों को पूरी तरह मुक्त करने के बजाय उन्हें नजरबंद रखने का आदेश दिया। देखना है कि 6 सितंबर को होने वाली अगली सुनवाई पर वह क्या आदेश देता है। वह चाहे जो आदेश दे, यह सोचने की बात है कि आखिर इन पांचों की कितनी बड़ी हैसियत है कि इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक, माजा दारूवाला, देवकी जैन और सतीश देशपांडे जैसे लोग उनके पक्ष में याचिका लेकर उच्चतम न्यायालय पहुंच गए और उसकी तत्काल सुनवाई भी हो गई। इन पांचों के लिए उच्चतम न्यायालय में जो बड़े वकील जिरह करने गए उनमें राजू रामचंद्रन, राजीव धवन, इंदिरा जयसिंह, अभिषेक मनु सिंघवी, प्रशांत भूषण भी थे। वकीलों की इस टोली के सामने केवल अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता थे। इससे पता चलता है कि महाराष्ट्र सरकार और साथ ही केंद्रीय सत्ता इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थी। पता नहीं उनकी ओर से इसका पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सका कि
पुणे पुलिस जिन्हें गिरफ्त में लेने जा रही है उनके समर्थक उन्हें बचाने के लिए कानून के हर पहलू को आजमाने के साथ यह माहौल भी बनाएंगे कि देश में आपातकाल जैसी स्थिति आ गई है। जिन्हें पुणे पुलिस ने गिरफ्तार किया उनमें सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरवर राव, प्रोफेसर वेरनॉन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा मानवाधिकारवादी और समाजसेवी माने जाते हैं। ये सब किसी न किसी संगठन से जुड़े हैं। आज जब मोदी सरकार के विरुद्ध लिखने-बोलने, सड़कों पर उतरने, समाचार पोर्टल चलाने और जनहित याचिकाओं के माध्यम से सरकारी फैसलों पर सवाल खड़े करने वाले बड़ी संख्या में सक्रिय हैं तब यह नहीं माना जा सकता कि सरकार इन पांचों को अंदर करके असहमति की आवाज दबाना चाह रही है। कुछ लोग ऐसा ही प्रचारित कर रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि इनमें कांग्रेसी नेता भी हैं। इन पांचों को भी इस वर्ष के आरंभ में भीमा-कोरेगांव से फैली हिंसा को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इसी आरोप में इसके पहले जून में भी रोना जैकब विल्सन, सुरेंद्र गडलिंग, शोमा सेन, महेश राउत और सुधीर धवले को गिरफ्तार किया गया था। दरअसल 1 जनवरी, 2018 को भीमा-कोरेगांव युद्ध की 200 वीं सालगिरह के ठीक पहले पुणे में यलगार परिषद के बैनर तले एक कार्यक्रम में जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद आदि ने उत्तेजक भाषण दिए थे। माना गया कि इससे जो उत्तेजना पैदा हुई वही भीमा-कोरेगांव में हिंसा का कारण बनी। उसी दौरान एक आरोप यह भी उछला कि इस हिंसा में स्थानीय हिन्दू नेताओं का हाथ है। पुलिस ने संभाजी भिड़े के शिव प्रतिष्ठान और मिलिंद एकबोटे के समस्त हिंदू एकता अघाड़ी के खिलाफ मामला दर्ज किया। मिलिंद को गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन जब जांच आगे बढ़ी तो भीमा-कोरेगांव में फैली ¨हसा के तार उन लोगों से जुड़ने लगे जो थे तो माओवादी, लेकिन छद्म तरीके से शहरों में दूसरी गतिविधियां करते थे। माना जाता है कि ऐसे शहरी नक्सलियों की संख्या अच्छी-खासी है। ये नक्सलियों को वैचारिक कवच देने के साथ ही उनकी हर तरह से मदद भी करते हैं। पुणे पुलिस ने कबीर कला मंच के कार्यकर्ताओं के घर पर छापेमारी की तो उसे वहां से ऐसे दस्तावेज मिले जिनसे वह उन पांच लोगों तक पहुंची जिन्हें जून में गिरफ्तार किया गया था। पुणे पुलिस की मानें तो यलगार परिषद और कबीर कला मंच नामक संगठन वस्तुत: माओवादियों का शहरी मुखौटा हैं और रोना विल्सन तो दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा के जेल जाने के बाद शहरी माओवादियों को निर्देशित कर रहा था। अन्य चार रोना के ही सहयोगी थे और दलित आंदोलन के नाम से समाज में तनाव और हिंसा पैदा करने में लगे हुए थे।
पुलिस को इनके पास से कई पत्र मिले। इनमें एक प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश की ओर भी इशारा कर रहा था। एक अन्य में गढ़चिरौली में सुरक्षा बलों की कार्रवाई का बदला लेने की बात की गई थी। सुरक्षा बलों की इस कार्रवाई में 39 माओवादी मारे गए थे। रोना विल्सन के घर से बरामद एक पत्र नक्सली संगठन सीपीएम-माओवादी के मिलिंद तेलतुंबडे ने भेजा था। उस पर 50 लाख रुपये का इनाम है। इस पत्र में लिखा था कि भीमा-कोरेगांव आंदोलन बेहद प्रभावी रहा। एक पत्र में भाजपा की विजय की चर्चा करते हुए कहा गया था कि यदि ऐसा ही रहा तो सभी मोर्चों पर पार्टी के लिए दिक्कत खड़ी हो जाएगी। कॉमरेड किसन और कुछ अन्य सीनियर कॉमरेड्स ने मोदी राज को खत्म करने के लिए कुछ मजबूत कदम सुझाए हैं। हम सभी राजीव गांधी जैसे हत्याकांड पर विचार कर रहे हैं। हो सकता है हम असफल हो जाएं, लेकिन हमें लगता है कि हमारे प्रस्ताव पर विचार हो। उन्हें रोड शो में टारगेट करना एक असरदार रणनीति हो सकती है। हमें लगता है कि पार्टी का अस्तित्व किसी भी त्याग से ऊपर है। सरकारी वकील ने न्यायालय में तीन पत्रों का खास तौर पर हवाला दिया। एक में राउत और सेन का नाम लेते हुए लिखा था कि हथियार खरीदने के लिए आठ करोड़ रुपये की जरूरत है। दूसरे में एक इंस्टीट्यूट के दो लड़कों को प्रशिक्षण देने की बात है। तीसरे में माओवादियों की योजना का विवरण है। इसके आधार पर ही जांच आगे बढ़ी और फिर लिस इन पांचों तक पहुंची। आज जो कांग्रेस इस मामले में सरकार के खिलाफ आग उगल रही है उसी के शासन में दिसंबर 2012 में माओवादियों से संबंध रखने वाले 128 संगठनों के नामों का उल्लेख करते हुए राज्य सरकारों को इनके सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा गया था। गिरफ्तार सुरेंद्र गाडलिंग और रोना विल्सन ऐसे ही संगठनों से जुड़े थे। फरेरा और गोंजाल्विस को 2007 में भी पकड़ा गया था। वरवर राव को तेलंगाना और आंध्र लिस कई बार गिरफ्तार कर चुकी है, लेकिन राहुल गांधी मोदी सरकार पर हमला करते समय ये सारे तथ्य भूल गए। हम किसी को अपनी ओर से दोषी करार नहीं दे सकते, किंतु पुलिस अपनी छानबीन से उन तक पहुंची है तो उसे काम करने दिया जाना चाहिए। ध्यान रहे कि माओवादी जीएन साईंबाबा को भी इसी तरह निदरेष बताया गया था, लेकिन उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई। माओवादी चाहे हथियार लेकर संघर्ष कर रहे हों या फिर सामाजिक, सांस्कृतक, मानवाधिकार संगठन या अन्य रूप में वे देश के लिए कितने खतरनाक हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं। मोदी सरकार ने हथियारबंद माओवादियों को 150 से 50 जिलों तक समेट दिया है और मुखौटे एनजीओ पर लगाम कसी है, लेकिन छद्म वेश में काम कर रहे नक्सलियों के समर्थकों के खिलाफ नियोजित कार्रवाई नहीं हुई है।
साभार-दैनिक जागरण

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