Monday, 2 November 2015

sanskar


अठारहवीं शती के पंजाब में सिखों की शुकरचकिया मिसल (छोटी रियासत) के उत्तराधिकारी के रूप में दो नवम्बर 1780 को गुजराँवाला मे जन्मे रणजीत सिंह ने अपने शौर्य, पराक्रम, सूझबूझ और कूटनीति से सिख राज्य की सीमाएँ अटक, पेशावर, काबुल और जमरूद तक पहुँचा दी थीं।
रणजीत सिंह के पिता का नाम सरदार महासिंह था। जब रणजीत सिंह केवल 12 वर्ष के थे, तब महासिंह के देहान्त से मिसल की देखभाल की जिम्मेदारी उनकी माता और रियासत की रेजीडेण्ट महोतर कौर पर आ पड़ी; पर असली सत्ता एक अन्य महत्वाकांक्षी महिला रानी सुधा कौर के हाथ में थी। उसमें प्रशासनिक क्षमता न होने से सर्वत्र अव्यवस्था व्याप्त थी।
रणजीत सिंह ने होश सँभालते ही 1799 में लाहौर और 1805 में अमृतसर पर कठोर नियन्त्रण स्थापित किया। फिर कसूर, जम्मू, मुल्तान, काँगड़ा, शिमला और कश्मीर को क्रमशः अपने राज्य में मिलाया। जम्मू के डोगरा राजा गुलाब सिंह के पराक्रमी सेनानायक जोरावर सिंह के शौर्य से उन्होंने लद्दाख पर भी अधिकार कर लिया। अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार कर रणजीत सिंह ने सब जगह प्रशासनिक सुव्यवस्था और शान्ति स्थापित की।
रणजीत सिंह ने जो विशाल शक्ति खड़ी की, वह 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सैन्य शक्ति के बराबर थी। इसमें 92,000 पैदल, 31,000 घुड़सवार, 384 भारी और 400 हल्की तोपें थीं। उनकी दूरदर्शी नीति के कारण भारत की पश्चिमी सीमा पर सैकड़ों वर्ष से हो रहे मुस्लिम आक्रमणों पर रोक लग गयी।
यद्यपि अंग्रेज उस समय भारत पर धीरे-धीरे अधिकार कर रहे थे। रणजीत सिंह ने समयानुकूल कूटनीति अपनाते हुए अंग्रेजों से 1809 में एक सन्धि की, जिससे यह तय हुआ कि ब्रिटिश सेना सतलुज नदी के पश्चिम से आगे भारत में नहीं घुसेगी।
रणजीत सिंह अंग्रेजों के समर्थक नहीं थे; पर वे जानते थे कि उन पर आधुनिक शस्त्रों से सज्जित सेना है। वे अपनी सेना को ऐसा ही बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नेपोलियन की सेना के एक अधिकारी बापिस्ते वेंचूरा को पैदल तथा जीन फ्रान्सिस अलार्ड को घुड़सवार सेना के प्रशिक्षण के लिए नियुक्त किया। बन्दूकों के निर्माण के लिए क्लाड आगरस्ट तथा बारूद और अन्य युद्धोपकरणों के लिए हंगरी के होनाइजर की सेवाएँ ली। इस प्रकार अपनी सेना को आधुनिक बनाने वाले वे प्रथम भारतीय शासक थे।
रणजीत सिंह का शासन लोकतान्त्रिक शासन था। वे सब निर्णय अपने प्रमुख सहयोगियों से मिलकर ही लेते थे। महाराजा होते हुए भी उन्होंने सदा स्वयं को खालसा पन्थ का एक विनम्र सैनिक ही माना। यद्यपि उन्होंने औपचारिक शिक्षा नहीं पायी थी; पर उनकी कल्पना शक्ति और योजकता विलक्षण थी। इसके बल पर उन्होंने भारत की यश पताका चहुँ ओर फहराई।
रणजीत सिंह धर्मप्रेमी शासक थे। अफगानिस्तान विजय से जो सोना उन्हें मिला, उसका आधा स्वर्ण मन्दिर अमृतसर और आधा काशी विश्वनाथ मन्दिर को दिया। उन्होंने कोहिनूर हीरा प्राप्त कर उसे पुरी के जगन्नाथ मन्दिर को भेंट किया; पर दुर्भाग्यवश वहाँ पहुँचने से पहले ही उसे अंग्रेजों ने हड़प लिया।
ऐसे वीर पुरुष का देहान्त 27 जून, 1839 को हुआ। यह दुर्भाग्य ही है कि उन्होंने अपने शौर्य से जो विशाल साम्राज्य बनाया, वह उनके देहावसान के कुछ समय बाद ही बिखर गया।

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