दान की उम्मीद पर टिका भविष्य, मदरसों के हाल-चाल, मदरसों की राजनीति
मुगल सम्राट शाहजहां के चार बेटों दारा, शुजा, मुराद तथा औरंगजेब की विधिवत शिक्षा के लिए, दिल्ली की जामा मस्जिद के प्रांगण में विशेष रूप से मजहबी शिक्षा की व्यवस्था खुद शाहजहां के आदेश से शुरू हुई। बाद के दिनों में लाल किला के अंदर स्थित "मोती मस्जिद' शाही घरानों की तालीमगाह बनी। इस अवधि में "कुरआन-ए-मजीद', अरबी व फारसी भाषाएं, मंतक (तर्क शास्त्र) और इस्लामी इतिहास- कुल चार विषय पढ़ाने की परंपरा क्षेत्रीय मस्जिदों में कायम हुई। इस समय तक सार्वजनिक मदरसों या स्कूल की व्यवस्था नहीं थी।
1836 में अंग्रेजी सरकार द्वारा मैकाले शिक्षा पद्धति लागू किए जाने के बाद हिन्दू और मुसलमान दोनों वर्गों को अपनी-अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के लिए संघर्ष करना पड़ा।
मुसलमानों की चिंता यह थी कि उनका मजहब और संस्कृति पूरी तरह नष्ट हो सकती है। लिहाजा 1866 ई. में उत्तर प्रदेश के नानौता निवासी हजरत मौलाना मुहम्मद याकूब नानौतवी ने सहारनपुर और मुजफ्फरनगर शहरों के बीच स्थित देवबंद कस्बे में छत्ता मस्जिद द्वार से सटे एक अनार के पेड़ के नीचे अपने एकमात्र शिष्य महमूद हसन को पढ़ाना शुरू किया। वेतन था सिर्फ पन्द्रह आना। एक शिक्षक और एक छात्र से जिस मदरसे की नींव पड़ी थी, आज वह वि·श्व में इस्लामी शिक्षा के लिए प्रसिद्ध अजहर वि·श्वविद्यालय, काहिरा (मिस्र) के बाद दूसरे नंबर के वि·श्वविद्यालय दारुल-उलूम, देवबंद के नाम से प्रसिद्ध है। आज वहां तीन हजार से ज्यादा छात्र हैं और सौ से ज्यादा अध्यापक। शहंशाह औरंगजेब के जमाने में यह शिक्षा पद्धति तेजी से लोकप्रिय हुई। गुलावठी, मुरादाबाद, मऊनाथभंजन, दरभंगा, सहानपुर, हैदराबाद में मदरसे खुले जो दारुल उलूम देवबंद से जुड़े हुए हैं। अफगानिस्तान के "तालिबान' इसी शिक्षा पद्धति की उपज हैं। कहा जाता है कि मुल्ला मुहम्मद उमर भी इसी मदरसे का छात्र था।
#मदरसा शिक्षा पद्धति
मदरसा शिक्षा पद्धति, मूलत: इस्लामी शिक्षा पर आधारित है। आम स्कूलों का पांचवां वर्ग यहां तन्तानिया और आठवां वर्ग वस्तानिया क्रमश: पहला और दूसरा वर्ग है। तीसरा वर्ग फौकानिया हाई स्कूल, चौथा वर्ग मौलवी इंटरमीडिएट के समकक्ष है। इसी प्रकार आलिम स्नातक के बराबर और फाजिल स्नातकोत्तर एम.ए. के समकक्ष है। कुल मिलाकर आठ वर्षों में एम.ए. की शिक्षा पूरी होती है। बी.ए., एम.ए. की शिक्षा अवधि दो-दो वर्षों की है। उपाधियां (डिग्रियां) देते समय दस्तार (पगड़ी) बांधने की परंपरा है।
इस शिक्षा पद्धति की समर्थक और संचालक शक्तियों का तर्क है कि छात्रों को उपाधियां देकर, उन्हें इस्लाम के प्रसार और मुसलमानों के नेतृत्व के लिए उम्मत (मुसलमानों) के हवाले कर दिया जाता है।
यहां एक बुनियादी सवाल यह खड़ा होता है कि क्या मदरसा शिक्षित डिग्रीधारी अपनी कौम को विकासशील नेतृत्व उपलब्ध करा रहे हैं? और क्या इस्लामी प्रचार-प्रसार का काम प्रतिरक्षा और विकास दोनों मोर्चों पर मुसलमानों के जीविकोपार्जन या रोजगार की समस्या को हल कर पा रहा है?
इरशाद आलम रहमानी के शब्दों में एक अध्ययन के अनुसार औसतन 3000 छात्र मैट्रिक से बी.ए. तक की मदरसा डिग्रियां लेकर प्रतिवर्ष, जब रोजगार की तलाश में सड़क पर निकलते हैं तो उन्हें कहीं किसी मुल्क में उम्मीद की कोई किरण नहीं दिखाई देती। 1970-71 से यह सिलसिला ऐसे ही चल रहा है।
मदरसा शिक्षा पद्धति, मुसलमानों की इस गिरती हुई स्थिति में सुधार नहीं कर पा रही है। आखिर क्यों? इसके लिए निम्न मुद्दों का अध्ययन करना होगा।
#मदरसों का उद्देश्य
यह एक ऐतिहासिक सवाल है, जिसका सिरा पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मुहम्मद सलअम के जमाने से जुड़ा है। "नबी' साहब की मस्जिद में चला करता था, दुनिया का पहला मदरसा, जहां पैगम्बर की तकदीर, कुरआन के अवतरण, मानवता की हद, मानवाधिकार, मानवीय मूल्य, युद्ध, दण्ड, क्षमा, प्रायश्चित, ज्ञानार्जन और शिक्षा का महत्व, आदि कई विषयों पर विशेष चर्चा होती थी। पैगम्बर के निधन के बाद खिलाफत और बाद में मलूकियत (राजतंत्र) काल में भिन्न परिवर्तनों के साथ मदरसों ने एक स्वतंत्र संस्था का रूप ले लिया। और एक ही उद्देश्य बाकी रहा कि इस्लाम की रोशनी में जीवन के सभी क्षेत्र-प्रक्षेत्रों की शिक्षा का काम जारी रहे। आजादी के बाद भारत में हजारों मदरसे स्थापित हुए और कुरआन व सुन्नत की शिक्षा दी जाने लगी, लेकिन 1958 के प्रारंभ से ही संपूर्ण मुस्लिम आबादी इस्लाम के भिन्न-भिन्न फिका (मतों) में बंटने लगी। नमाज पढ़ने के तरीके, रोजा रखने और खोलने की मान्यता तथा अन्य इस्लामी कर्मकाण्डों में सुधार के नाम पर परिवर्तन की एक परंपरा चल पड़ी। भिन्न मदरसे भिन्न मतों के झंडाबरदार बन गए। आज एक मतावलंबी दूसरे मत के मदरसे में अपना नामांकन करा ले, तो उसे विरोध की आग में झुलस कर अंतत: अपना बोरिया-बिस्तर लपेट कर वापस जाना पड़ता है। जबकि शिक्षा संस्थानों में सभी मतों के बारे में तर्कसंगत जानकारी दी जानी चाहिए। देवबंदी, बरेलवी, अहले हदीस, हन्फी सुन्नी आदि अनेक मत हैं। सभी मतों के अपने-अपने मदरसे हैं और वहां दूसरे मतों पर चर्चा करना भी गुनाह माना जाता है। किसी छात्र ने अगर मत-विभाजन का अध्ययन करना चाहा, तो उसे मदरसे से निकाल दिया जाता है। सच्चाई यह है कि तमाम मदरसे अब मदरसा इस्लामिया न होकर मदरसा कासिमिया, मदरसा सल्फिया और मदरसा रहमानिया हो गए हैं, जो अपने छात्रों को अध्ययन की स्वतंत्रता भी नहीं देते। इस्लाम के बारे में एक मत विशेष की मान्यता दूसरे मतावलंबी नहीं मानते, एक-दूसरे को गुमराह करार देते हैं और यहीं से मदरसों की पवित्रता खंडित होने लगती है। वहां किसी एक मत को ही स्वीकार करना होता है, और दूसरे का अध्ययन भी वर्जित है। ऐसी स्थिति में छात्र जब उपाधियां लेकर बाहर निकलते हैं तो दूसरे वैचारिक मत के समर्थकों के लिए अनुपयोगी सिद्ध होते हैं।
#मदरसों के छात्र
मदरसा छात्रों में सभ्य, सुसंस्कृत, ऊंची जाति और ऊंचे मुस्लिम घरानों के छात्र नहीं होते। यही कारण है कि सुदृढ़ अध्ययन पर आधारित आलिम (बी.ए.) और फाजिल (एम.ए.) उत्तीर्ण शिक्षकों का अभाव, शिक्षण कार्य को संपूर्ण करने में एक बड़ी बाधा बन गया है। पैंट-कमीज पहनना, दाढ़ी मुंडवाना, रेडियो सुनना, टेलीविजन देखना और अखबार पढ़ना तकरीबन सभी मदरसों में वर्जित है। इसे हलाल और हराम की कसौटी पर परखे बिना, वर्जना का फतवा जारी है। छात्र इससे कुंठित होते हैं। नाटक पढ़ना, खेलना और देखना भी वर्जित है। इन तमाम चीजों को यहां तक कि अखबारों को भी "गुनाह' का रास्ता कहा जाता है, जिसके कारण छात्र सामाजिक सरोकार से बिल्कुल कट जाता है।
#मदरसा पाठ्यक्रम
किसी भी शिक्षण संस्था या शिक्षा पद्धति की मूलभूत पूंजी है-पाठ्यक्रम। उर्दू में इसे निसाब-ए-तालीम कहते हैं। तमाम शिक्षक इसी के आधार पर काम करते हैं। हालांकि मदरसा शिक्षकों द्वारा मेहनत और लगन से शिक्षा देने में कोई कोताही नहीं की जाती लेकिन शिक्षा व्यवस्था सामयिक, प्रासंगिक, और जमाने की तब्दीलियों के लिहाज से तर्कसंगत न होने के कारण वांछित फल नहीं मिल पाता। आम तौर पर मदरसों में तीन प्रचलित पद्धतियां लागू हैं:-
(क) दरस-ए-निजामिया : यह सैंकड़ों वर्ष पुरानी शिक्षा पद्धति है जो शहंशाह औरंगजेब के जमाने से चली आ रही है। औरंगजेब के बाद शिक्षा और शिक्षण के मुद्दे पर कई क्रांतियां हुईं, लेकिन इस शिक्षा पद्धति में तर्कशास्त्र और दर्शनशास्त्र के वही 400 वर्ष पुराने सूत्र पढ़ाए जाते हैं, जो अब अनुपयोगी सिद्ध हो चुके हैं
(ख) जामिया इस्लामिया मदीना का पाठ्यक्रम : इस्लामिया वि·श्वविद्यालय, मदीना, अरब अमीरात का यह पाठ्यक्रम भारत में "सल्फी' मत ने कुछ अनिवार्य संशोधन के बाद लागू किया। लेकिन इस पाठ्यक्रम से शिक्षित छात्रों को भी जीवनयापन के मैदान में, शिक्षा का कोई लाभ नहीं मिल पाता।
(ग) नदवत-उल-उलेमा का पाठ्यक्रम : यह पाठ्यक्रम दइस-ए-निजामिया से बेहतर और भिन्न है। लेकिन भारतीय समाज में मुसलमानों की यह मजबूरी है कि वह एक मदरसे से शिक्षा लेकर निकले तो दूसरे किसी समान मत के मदरसे में ही जिंदा रह सकते हैं, यह चिंता उन्हें घेरे रहती है। उनमें किसी अन्य कारोबार की योग्यता का अभाव रहता है।
#मदरसा शिक्षा व्यवस्था
मदरसों की संख्या हजारों में है। रोजगार के अभाव में मदरसों से शिक्षित लोग जब दस-बारह वर्ष की बेरोजगारी से ऊब जाते हैं तो उनके पास एक ही विकल्प बचता है कि वे भी मदरसा खोल लें, यही कारण है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में और आजकल पश्चिम बंगाल, केरल, असम में मदरसों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। मदरसों को नियंत्रित करने के लिए जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय या देश के स्तर पर कोई समिति या परिषद् नहीं है, जिसके कारण तमाम मदरसे निजी व्यवस्था के तहत चलते हैं।
#हिन्दी अंग्रेजी शिक्षा
कुछ मदरसों में अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। जैसे नदवत-उल-उलेमा (देवबंद) और सल्फी मदरसा (दरभंगा) में। लेकिन बी.ए. के छात्रों को भी अधिक से अधिक सातवें वर्ग की अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। शेष 98 प्रतिशत मदरसों में अंग्रेजी और हिन्दी भाषा पढ़ना वर्जित है।
#उर्दू साहित्य का अध्ययन
मदरसों में भले ही उर्दू भाषा पढ़ाई जाती है, लेकिन वहां उर्दू साहित्य बिल्कुल नहीं पढ़ाया जाता। बीसियों स्नातक और स्नातकोत्तर (आलिम और फाजिल) के छात्रों से बातचीत करने पर यह तथ्य सामने आया कि वे भारत के फारसी शायर अमीर खुसरो को उनकी रचनाओं के माध्यम से नहीं जानते। गालिब, मीर तकी मीर, इकबाल, फैज से परिचित ही नहीं है। उन्होंने सआदत हसन मंटो को नहीं पढ़ा और न समझना चाहते हैं। भारत में मुसलमानों के इतिहास से वे परिचित नहीं है।
मदरसा शिक्षितों का दावा है कि वे "आलिम' (विद्वान) हैं, उनका मान-सम्मान अनिवार्य है। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत के मदरसा शिक्षित आलिमों में से 90 प्रतिशत उलेमा इल्मे समाजियात (समाजशास्त्र) इल्मे सियासियात (राजनीति शास्त्र), इल्मुवारीख (इतिहास), इल्मे लसानियात (भाषा विज्ञान), इल्मुल अख्लाक (नीति शास्त्र), इल्मुल अग्जिया (आहार विज्ञान), इल्मुल अफलाक (अंतरिक्ष विज्ञान), इल्मुल हयात (दर्शन शास्त्र) आदि से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, जबकि इन विषयों पर उर्दू भाषा में किताबें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।
#मदरसों में उद्यम (रोजगार) शिक्षा
प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चे को आम शिक्षा के साथ-साथ रोजगार दिलाने वाली शिक्षा भी देना चाहता है। हाल के वर्षों में कई मदरसों ने पोस्टर से विज्ञापित किया कि उनके यहां इस्लामी शिक्षा के साथ-साथ छात्रों को कटिंग, सिलाई, कशीदाकारी, जरदोजी और कैलिग्राफी का रोजगारोन्मुख काम भी सिखाया जाएगा। इससे मदरसों की मानसिकता और उनके लक्ष्य का पता भी चलता है।
किसी भी शिक्षण संस्थान के लिए पुस्तकालय या कुतुबखाना की अहमियत सबसे ऊपर है। लेकिन एक हजार में से 995 मदरसों में अच्छी किताबों का सर्वथा अभाव है। मदरसों में आज भी पुस्तकालय एक ख्वाब है।
#अखबारों से सम्बंध
आमतौर पर 99 प्रतिशत मदरसों, मदरसा शिक्षकों, छात्रों व कर्मचारियों का सम्बंध पत्र-पत्रिकाओं से नहीं होता। राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले कुछेक शिक्षक किसी-किसी शहर में उर्दू अखबारों तक सीमित हैं। छात्रों के लिए उर्दू-हिन्दी कोई भी अखबार पढ़ना वर्जित है। यदि किसी ने अखबार पढ़ लिया, तो उसका खाना बंद कर दिया जाता है। या खूब पिटाई होती है- "कम्बख्त काफिर और दहरिया (सांसारिक) ही बनना था, तो मदरसे में क्यों आया?'
#दस्तारबंदी (दीक्षान्त)
एम.ए. यानि फाजिल की उपाधि वालों और हाफिजों को "दस्तार' (पगड़ी) बांधने की रस्म बहुत पुरानी है। नदवत-उल-उलेमा साहित सभी मदरसों का वार्षिक और अनिवार्य समारोह "दस्तारबंदी' ही है। दस्तारबंदी छात्रों को समाज से ऊपर, अलग और ऊंचा स्थान प्राप्त कर लेने का एक मजबूत एहसास प्रदान करती है। इसके बाद जब वह रोजगार के लिए व्यावहारिक मैदान में निकलता है तो कर्मभूमि में वह खुद को सबसे अलग पाता है। स्वयं को ऊंचा समझने का एहसास उसे समाज से मिलने जुलने नहीं देता।
लगभग सभी मदरसों में छात्रों के लिए छात्रावास की व्यवस्था है। दूर-दराज के गांवों और कस्बों से छात्र यहां आते हैं। अत्यधिक नामांकन मदरसों की व्यावसायिक मजबूरी है। छात्रों की संख्या ज्यादा होगी तो चंदा उगाहने में आसानी होगी, क्योंकि मदरसों में छात्रों के रहने और भोजन की नि:शुल्क व्यवस्था आज भी चल रही है। लेकिन, अधिक नामांकन का नतीजा यह निकलता है कि छ: लड़कों के रहने वाले कमरे में दस छात्रों को रखना आम बात है। नामांकन समाप्ति के समय वही कमरा बीस छात्रों का शयनकक्ष बन जाता है। 15 न् 15 के कमरे में एक दरी बिछी होती है, जिस पर एक दूसरे के साथ तकरीबन सटकर सोना सभी की मजबूरी है। यही कारण है कि ज्यादातर मदरसों में समलैंगिक सम्बंध जैसी बुराइयों ने जन्म ले लिया है, जो सरासर इस्लाम के खिलाफ है।
#मदरसा शिक्षितों की उपयोगिता
मदरसा शिक्षितों के प्रमाणपत्रों और उपाधियों में शिक्षण की उपयोगिता साबित कर दी जाए, तो मदरसा शिक्षा की उपयोगिता का मसला हल हो सकता है। केवल पांच वक्त नमाज पढ़ लेने या इसके लिए अवाम को नियंत्रित कर लेने भर से इस्लाम का हक अदा नहीं होता।
#मदरसों का अर्थ प्रबंधन
मदरसों को अपने खर्च के लिए जकात, खैरात, फितरा, खुम्स यानी मजहब के लिए अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रतिवर्ष रमजान शरीफ में, ईद और बकरीद के मौके पर मजहब के लिए अनुदान मांगने वाले पोस्टर नियमित रूप से सभी मदरसे प्रकाशित करते हैं।
उक्त पोस्टरों में छात्रों की संख्या होती है, जिन्हें गरीब, नादार, मातृहीन, पितृहीन घोषित किया जाता है। ये मदरसे वे संपूर्ण रूप से "चंदे' (अनुदान) की राशि पर निर्भर हैं।
#मदरसों की राजनीति
आम तौर पर यह कहा-माना जाता है कि मदरसे राजनीति से अलग हैं। लेकिन मदरसों की राजनीति अपनी कौम पर बदस्तूर जारी है। मदरसा संचालकों में ज्यादातर आधे-अधूरे उलेमा हैं। अगर किसी मौलवी की आलोचना की जाए, तो वह फौरन फतवा जारी करेंगे कि "इस्लाम' पर हमला हो रहा है। बात गले नहीं उतरती कि कोई "व्यक्ति विशेष' अकेले "सम्पूर्ण इस्लाम' कैसे हो सकता है? ऐसे लोगों को वोट की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त होता है, जिनकी वजह से कौम पर उनका दबाव डंडे के जोर पर कायम है।
मदरसा आलिमों की सबसे बड़ी और अपनी ही कौम को गुलाम बनाए रखने की राजनीति यह है कि वे छात्रों को अरबी पढ़ना भर सिखा देते हैं, परन्तु अरबी का अर्थ पढ़ना आमतौर पर वर्जित है। जो कोई कुरआन की आयतों को समझने का प्रयास करता है, उसे फौरन कहा जाता है कि इस्लाम में हस्तक्षेप गुनाह है।
उलेमा की राजनीति उनके इस अमल से ज्यादा स्पष्ट होती है कि "शराब' इस्लामी मान्यताओं के अनुसार हराम है, शराब की हालत में मरने वाले मुसलमानों के जनाजे की नमाज भी नहीं पढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन यह हकीकत इसलिए छिपा कर रखी गई है क्योंकि शराब पीने-पिलाने वाले मुसलमान धनाढ्य हैं और मदरसों को मोटी रकम "चंदे' के तौर पर देते हैं। अगर "शराबी' की आलोचना खुलेआम करें या फतवा जारी करें, तो चंदा नहीं मिलेगा, अर्थतंत्र ध्वस्त होने लगेगा। लिहाजा ऐसे कई मामलों में खामोशी उनकी राजनीति का कुत्सित हिस्सा है।
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