भारत, मध्यपूर्व और जेरुसलम मतदान की कूटनीति
कहानी शुरू होती है 1947 से जब सयुंक्त राष्ट्र ने निर्णय किया कि एक कमेटी बनाई जाए जो फलीस्तीन में व्याप्त विस्फोटक स्थिति का सर्वमान्य हल निकाल सके जहाँ यहूदी और मुस्लिम आपस मे सौहार्द से नही रह पा रहे थे। भारत, ईरान और तुर्की सहित 13 देश, दो अलग- अलग राष्ट्रों फलीस्तीन एवं इजराइल के पक्ष में नही थे और उनका मानना था कि इससे विवाद और हालात दोनो और बिगड़ जाएंगे। अलबत्ता बहुमत की चली और दो हिस्से बने जिससे इजराइल का जन्म हुआ।
टर्की के बाद ईरान दूसरा मुस्लिम बहुल राष्ट्र बना जिसने द्विराष्ट्रवाद के प्रचंड विरोध के बावजूद इजराइल को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप मान्यता दे दी, कारण हजारों वर्ष का बाइबलकालीन यहूदी-फ़ारसी सद्भाव रहा और वर्तमान में सऊदी अरब की एकल वर्चस्व का प्रतिरोध भी।
इजराइल के पहले प्रधानमंत्री ने एक नीति बनाई "पेरीफेरल डॉक्ट्रिन" जिसके अंतर्गत इजराइल ने अरब प्रभुत्व के विरुद्ध खड़े शिया बहुल ईरान और अपेक्षाकृत सॉफ्ट मुस्लिम टर्की और इथियोपिया से संबंध घनिष्ठ करने शुरू कर दिए। ईरान के साथ इजराइल की दोस्ती घनिष्ठता के चरम पर पहुंची क्योंकि दोनों के शत्रु समान थे, पड़ोसी के रूप में सुन्नी और खुराफाती इराक और निसंदेह सुन्नी वहाबी सऊदी अरब।
ईरान पर उस समय पहलवी राजवंश का 2500 साल पुराना दौर चल रहा था जिसे अपने मुस्लिम होने से फ़ारसी होने का ज्यादा गर्व था, तभी उनके मुस्लिमपरस्त प्रधानमंत्री के पर निकलने लगे और वह अरब शेखों के प्रभाव में ईरान की नीतियों की दिशा बदलने लगा,अंततः 1953 मे मोहम्मद रेजा पहलवी सत्ता में आये जो कि टर्की के नेतृत्व की ही तरह प्रबल पश्चिम प्रभावित/समर्थक थे क्योंकि उनकी सत्तपोशी मे इंग्लैंड और अमरीका का पूर्ण सहयोग था। तब ईरान मित्र राष्ट्रों, अमरीका और इजराइल का अच्छा मित्र था, हालात ये थे कि इजराइल और ईरान मिलकर एक नए प्रक्षेपास्त्र पर भी काम कर रहे थे। तब आया 1967 का छः दिवसीय युद्ध इजराइल और अरब राष्ट्रों के बीच और आश्चर्यजनक रुप से ईरान ने इजराइल को तेल एवं पेट्रोलियम से पूर्ण सहयोग किया। इजराइल ने अरब देशों को धोकर रख दिया।
युद्ध के बाद हुए समझौतों से अपने अपने स्वार्थ के चलते अरब राष्ट्रों की एकता में भी दरार आ गई। ईरान ने तब इजराइल के साथ जो कि भूमध्य सागर के इस ओर था और दूसरी तरफ था सीधे यूरोप, अपना तेल और गैस संसाधन सीधे बेचने का एक विश्वासपात्र मित्र और जरिया मिल गया, दोनों ने एक इजराइली कंपनी के साथ तेल-गैस का जमकर व्यापार किया यूरोप से और अरब राष्ट्रों के वर्चस्व को कमजोर किया।
सऊदी अरब कहाँ चुप बैठने वाला था उसने फिलिस्तीन के पिटे हुए भावुक मुस्लिम नेताओं को उम्मत के नाम पर ईरान के विपक्षी ध्रुवों से सहायता एवं संबंध के बनाने के लिए बहलाया। ईरान क्षेत्र में अपनी चौधराहट को देख चौड़ा हो गया और पर्दे के पीछे से अपने दोस्त इजराइल से दगा करके गुप्त रुप से फलीस्तीन की मदद को तैयार हो गया। तेजतर्रार इजराइली खुफिया एजेंसी मोसाद से यह छुपा नही रह सका। अमरीका के इशारे पर ईरान को सबक सिखाने के लिए इजराइली तेल कंपनी ने ईरान का कई बिलियन डॉलर का पेमेंट रोक दिया और दोनो देशों के रिश्तों में खटास आ गई, तब तक ईरान में इस्लाम की कट्टरता की मृग मरीचिका भी यौवन को प्राप्त हो गई और 1979 मे ईरानी क्रांति हुई जिसने 2500 वर्ष पुराने पहलवी राजवंश को ध्वस्त कर कट्टर मुस्लिम धार्मिक शासन के चेहरे खुमैनी राज का आगाज कर दिया।
उसी साल तेहरान (ईरान की राजधानी) ने फलीस्तीनी नेताओं का सार्वजनिक स्वागत किया और जहाँ इजराइल का दूतावास हुआ करता था वहाँ फलीस्तीन का दूतावास बना दिया गया। दुश्मनी का खुला अध्याय शुरू हो गया, खुमैनी ने अमरीका को इस्लाम का दुश्मन और शैतान की उपाधि दे दी और इजराइल को छोटे शैतान की, दोनो आज की तारीख में एक दूसरे के दुश्मन नम्बर एक हैं। ईरान न हो तो इजराइल कल ही फलीस्तीन को जमा कर ले और ईरान को सबसे बड़ा खतरा आज इजराइली वायुसेना से है।
अब असली कहानी समझिये कि भारत के लिए विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती है इजराइल और ईरान जैसे जानी दुश्मनों के साथ समान मित्रतापूर्ण व्यवहार करना और दोनो को सक्रिय रूप से अपने पक्ष में बनाये रखना। आप सोचेंगे कि इजराइल के सामने ईरान का क्या महत्व, तो मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि भारत के लिए सामरिक दृष्टि से ईरान इजराइल से ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्यों यह भी समझिये ...
ईरान पाकिस्तान का भी स्वाभाविक शत्रु है क्योंकि दोनों का सीमा विवाद भी है और शिया-सुन्नी भी, साथ ही अरब के चमचे पाक की ईरान से वर्चस्व को लेकर भी तनातनी है। आज के हालात में जब अफगानिस्तान लगातार महत्वपूर्ण सामरिक बिंदु बना हुआ है जो भारत के लिए पाक को घेरने एवं चीन की " मोतियों की माला " कूटनीति का व्यापक जवाब देने का जरिया है, वहाँ भी भारत को अफगानिस्तान के भी पड़ोसी ईरान के सक्रिय सहयोग की स्थायी आवश्यकता है।
भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ को भी ईरान से पूर्ण सहयोग प्राप्त होता है और चाबहार वाले धमाकेदार कदम के विषय में भी आप सभी परिचित हैं ही, साथ ही तेल, गैस एवं पेट्रोलियम का विश्वसनीय एवं व्यवहारिक स्त्रोत भी है ईरान। ऐसे में क्या ईरान को नाराज किया जा सकता है ??
मैं अक्सर सोचता था कि आखिर पाक क्या करता है कि अमेरिका और चीन जैसे दोनो धुर विरोधी देश उसके हितों के लिए सदैव भारत के विरुद्ध कूटनीतिक रूप से सन्नद्ध खड़े रहते हैं और हम दोनों मे से किसी को भी अपने पक्ष में नही ला पाते ?? लेकिन 2014 से मोदी जी के इस क्षेत्र में किये गए भगीरथ प्रयासों का प्रतिफल हैं कि आज पाक मीडिया में विदेशनीति के विशेषज्ञ यह कहते पॉये जाते हैं कि ," मोदी ने पाक के भाई जैसे मुल्कों को अपना दोस्त और पाक का दुश्मन बना के रख दिया है और अमरीका रूस को यार। सऊदी अरब में मुस्लिम राष्ट्रों की सभा में नवाज शरीफ को बोलने तक नही दिया जाता।"
मैं अक्सर सोचता था कि आखिर पाक क्या करता है कि अमेरिका और चीन जैसे दोनो धुर विरोधी देश उसके हितों के लिए सदैव भारत के विरुद्ध कूटनीतिक रूप से सन्नद्ध खड़े रहते हैं और हम दोनों मे से किसी को भी अपने पक्ष में नही ला पाते ?? लेकिन 2014 से मोदी जी के इस क्षेत्र में किये गए भगीरथ प्रयासों का प्रतिफल हैं कि आज पाक मीडिया में विदेशनीति के विशेषज्ञ यह कहते पॉये जाते हैं कि ," मोदी ने पाक के भाई जैसे मुल्कों को अपना दोस्त और पाक का दुश्मन बना के रख दिया है और अमरीका रूस को यार। सऊदी अरब में मुस्लिम राष्ट्रों की सभा में नवाज शरीफ को बोलने तक नही दिया जाता।"
आज भारत ना केवल अमरीका और रूस जैसे प्रबल विपरीत ध्रुवों को एकसाथ साध रहा है बल्कि उनसे अपने पक्ष में नीतियां बनवा रहा है। यही सफल कूटनीति के लक्षण हैं। नेहरू ने जो गुट निरपेक्षता की नीति बनाई थी उसके चलते सभी शक्तिशाली राष्ट्र हमसे दूर थे जिसका फायदा चीन ने उठाया, वहीं मोदी की इस सर्वसमन्वयी गुट निरपेक्षता में भारत सभी का चहेता भी है और सशक्त भी जिसका प्रमाण है डोकलाम विवाद में भारत की ऐतिहासिक दृढ़ता।
भारत ने इजराइल को 1949 में मान्यता दी और 1992 में राजनयिक संबंध स्थापित किये, अटल जी ने उनके प्रधानमंत्री को भारत बुलाकर इस रिश्ते को नई दिशा और गति दी बिना अरब /ईरान को भड़काए, इसी नीति पर चलकर आज मोदी जी ने पहले विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र के मुखिया राष्ट्रपति को इजराइल की यात्रा पर भेजकर उसका सम्मान बढ़ाया विश्व में, फिर मोदीजी स्वयं गए और आज प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू सपत्नीक छः दिवसीय महत्वाकांक्षी एवं प्रेमपूर्ण दौरे पर भारत आये हुए हैं।
आप अब आसानी से समझ सकते हैं कि भारत ने सयुंक्त राष्ट्र में इस्राइल के जेरुसलम वाले प्रस्ताव के विपक्ष में वोट क्यों किया। भारत ने ईरान और इजराइल को संतुलित रुप से साधा है, मोदी और नेतान्याहू के बीच की गर्मजोशी ये बयाँ कर रही है कि औपचारिक प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले कूट संबंधों के नीचे दोनो राष्ट्रों की मित्रता की गहराई कितनी गहन है।
आज जनवरी में आये इजराइली प्रधानमंत्री शीघ्र ही किसी 26 जनवरी को भारत के मुख्य अतिथि बनेंगे क्योंकि यह भी एक विशिष्ट कूटनीतिक संदेश होता है विश्व को। यही कूटनीतिक तरीका है जिसमे गति, दिशा और मारक क्षमता का तालमेल स्नूकर खेल की तरह किया जाता है। कोई भी नीति रातोरात नही बदली जाती बल्कि पहले उस दिशा में गति कम की जाती है फिर उचित दिशा दी जाती है और फिर उसी दिशा में गति बढ़ाई जाती है। किसी को रातोरात जिगरी और जानी दुश्मन नही बनाया जाता।
भारत को फलीस्तीन से कोई लेना देना नही है, और ना ही मोदी के लिए पूर्ववर्ती सरकारों की तरह फलीस्तीन समर्थक अल्पसंख्यकों के मत हासिल करने का भावनात्मक मसला। वस्तुतः ईरान के साथ फलीस्तीन भारत के लिए उसी तरह है जिस तरह कुल्फी के साथ उसकी डंडी ! कुल्फी खत्म, डंडी फेंको।
आज ईरान एक बार फिर करवट ले रहा है ऐसे में यदि एक बार फिर कट्टर इस्लाम से फ़ारसी अस्मिता की ओर आगे बढ़ता है तो भारत के लिए यह न केवल स्वर्णिम अवसर होगा इन दोनों पुराने दोस्तों को फिर से मिलवाने का और साथ ही जिम्मेदारी भी होगी कि ये दोनों देश पाक और चीन के विरुद्ध हमारे स्थाई सामरिक साझीदार बन सकें।
आशा है आप समझ पाये होंगे कि भारत ने अपने मित्र इजराइल को विश्वास मे लेकर ही संयुक्त राष्ट्र में जेरुसलम वाले अतिविवादित विषय पर विरोध में मतदान किया जिसका प्रमाण नेतन्याहू की यह उत्साहपूर्ण सुदीर्घ यात्रा है।
पुरुषार्थ, बौद्धिक उत्कृष्टता एवं पराक्रम की मैत्रीपूर्ण भूमि इजराइल के सम्मानीय एवं प्रिय प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का इस आभासी जग की दुनिया के भारतीय हृदयों में सपरिवार हार्दिक स्वागत है।
गोविन्द पुरोहित
#पुरोहितजी_कहिन
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