Saturday 13 January 2018

sanskar


लौकी तुम्बा बोरका या तूम्बडी ...
लौकी तुम्बा बोरका या तूम्बडी की सब्जी आप सभी ने खाई होगी और उसके गुणों से भी आप परिचित है,,पर क्या आपने इस प्रकार की लौकी कभी देखी है.... जी हाँ आज भी यह लौकी बस्तर के सुदूर जंगलों में मिल जाती है... एक समय था जब इसका उपयोग आम से लेकर खास तक करता था पर अब स्थिति काफी बदल चुकी है...।
हमारे देश में लौकी की बहुत सारी प्रजातियां है.. लौकी का सेवन हम 10000 से भी अधिक वर्षो से कर रहे हैं....।
यह जो लौकी हैं गरबन्धी प्रजाति की है जिसे हम तुम्बा बोरका या तूम्बडी भी कहते हैं...पहले यह प्रजाति हर गाँव में थी ... क्योंकि प्लास्टिक बोतल डिब्बे के आने के पहले जंगल पहाड़ हर खेत पानी ले जाने के लिए इसी का उपयोग होता था,पर अब दिखने को भी नही मिलती ।
#बनाने_की_विधि
इसे बनाते समय ऊपर एक छिद्र कर बीज और गूदा निकाल बाहर कर देते फिर बाद में सूखने पर उसके गले में रस्सी बाध पानी के बर्तन के रूप में उपयोग करते रहते....लोहे गर्म कील से इसकी डिजाइनिंग भी की जाती है।
इतना ही नही इसके उपयोग से कई प्रकार के वाद्य यंत्र भी बनते थे,जिनका उपयोग आज भी किया जा रहा है...नानी बाई का मायरा कथा में नरसिंह जी इन्ही तुम्बी, तुम्बडों का मामेरा ले जाते हैं..जो प्रभु कृपा से वस्त्र आभूषण बन जाते हैं।

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ठाकुर खेतसिंह ओर चुटकी भर नमक का कर्ज.............
संवत 1876 के आस पास की घटना है, उस समय मारवाड़ रियासत में भयंकर सूखा पड़ा था। खेतों में पुरे वर्ष खाने लायक बाजरा तक पैदा नहीं हुआ ऐसे में जोधपुर से कुछ कोस दूर ढाणी बना कर रहने वाले गरीब किसान राजपूत खेतसिंह ने अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए जंगल से सुखी लकड़ियां इक्क्ठा कर जोधपुर शहर में बेचना शुरू कर दिया।
खेतसिंह अपनी ढाणी में बूढी मां और नवविवाहिता पत्नी के साथ रहते थे। उसकी शादी हुए अभी तीन चार महीने ही हुए थे।
एक दिन खेतसिंह ने लकड़ियां चुनने में देर कर दी और जब तक वह अपने ऊंट पर लकड़ियां लाद कर जोधपुर पहुचे तब तक रात हो चुकी थी इसलिए उन्हें लकड़ियां बेचने के लिए अगले दिन का इंतजार करना था सो वह रात गुजरने हेतु निमाज के ठाकुर सुल्तान सिंह जी की हवेली जा पहुंचे। उन दिनों ठाकुर सुल्तान सिंह हवेली में ही रुके हुए थे इसलिए उनका रसोड़ा उनसे मिलने आने वालों के लिए चौबीसों घंटे खुला रहता था। खेतसिंह ने हवेली पहुँच कर ऊंट को चारदीवारी से बांध उसे चारा डाल दिया और बे खुद बाजरे की रोटियां साथ लाये थे इसलिए रसोड़े से दाल लेकर भोजन किया और वहीँ ऊंट के पास सो गए।
सुबह उठ कर खेतसिंह जैसे ही दैनिक कार्यों से निवृत हुए तभी उन्हें एक ऊँचा स्वर सुनाई दिया " यहाँ उपस्थित सभी लोगो को ठाकुर साहब ने बुलाया है अतः सभी अतिशीघ्र उनके पास पहुंचे। " सभी लोग सुगबुगाहट करते ठाकुर साहब की और चल पड़े। खेतसिंह भी अपने ऊंट को वहीँ छोड़कर अपनी तलवार ले सभी लोगों के साथ ठाकुर साहब के सम्मुख उपस्थित हुए।
ठाकुर साहब ने सभी लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा "कुछ लोगों ने दरबार (महाराजा मानसिंह) के कान मेरे विरुद्ध भर दिए है इसलिए दरबार मुझे मरवाने या बंदी बनाने की ताक में है, आज उन्होंने सैनिकों को भेज हवेली को चारोँ ओर घिरवा दिया है और जोधपुर किले की तोपें हवेली की तरफ घुमा दी है। लेकिन मैं भी एक राजपूत हूँ इसलिए कुत्ते की तरह पकडे जाने से अच्छा लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करना चाहता हूँ। आज मैं उन्हें बताऊंगा की मेरी तलवार में कितना दम है अतः आपमें से जो भी मेरे साथ युद्ध मे रुकना चाहे रुक सकता है और जो घर जाना चाहे वह सहर्ष जा सकता है।
ठाकुर साहब के सम्बोधन के बाद वहां उपस्थित लोग धीरे - धीरे खिसकना शुरू हो गए तभी खेतसिंह ने आगे बढ़कर कहा " मैं दूंगा आपका साथ। " ठाकुर साहब के साथ सभी लोगों की नजरे उस फटे पुराने कपडे पहने राजपूत नवयुवक पर ठहर गयी। ठाकुर साहब ने पूछा " कौन हो तुम ?तब खेतसिंह जी ने अपना परिचय उन्हें दिया । पर ठाकुर साहब ने कहा जाओ यहाँ से और अपने परिवार की देखभाल करो। "
ठाकुर साहब ने उन्हें हर प्रकार से समझाया लेकिन उन्होंने कहा की कल मैंने आपके रसोड़े से दाल लेकर खायी थी मुजे नमक का कर्ज चुकाने दे अतः आप मुझे धर्म संकट में न डाले और यहाँ रुकने की आज्ञा दे। ठाकुर साहब ने उससेे कहा की तुम अपनी बूढी मां के पास लोट जाओ लेकिन उस राजपूत नवयुवक ने कहा की उनकी चिंता अब ईश्वर करेगा और मैं अपना राजपूती धर्म निभाउंगा।
थोड़ी ही देर में संवत 1876, आषाढ़ बदी 1 को जोधपुर किले की तोपें हवेली पर गरज उठी बंदूकों और तलवारों की गूंज पुरे शहर में सुनाई देने लगी तभी वहां उपस्थित लोगों और सैनिकों ने देखा की एक फटेहाल नवयुवक जोधपुर की सेना पर टूट पड़ा और अपनी पूरानी तलवार के जौहर से कोई पचासों सैनिकों को गाजर मूली की तरह काट दिया लेकिन तभी एक बन्दुक से निकली गोली उनके बांये हाथ में लगी तो बे तलवार को दांये हाथ में पकड़ कर लड़ने लगे।
अचंभित और डरे हुए जोधपुर के सैनिकों ने इस बार उनके पुरे शरीर को छलनी कर दिया जिससे बे जमीन पर गिर पड़े लेकिन अब भी उनमें जान बाकी थी और उनकी तलवार अब भी नमक का कर्ज उतारने के लिए तत्पर थी।
वहां उपस्थित सभी लोग उस वीर की जीवटता देखकर रोंगटे खड़े हो गए तभी एक गोली उनके सिर में लगी और बे वहीँ ढेर हो गए शायद अब जाकर उनने एक चुटकी नमक का कर्ज ठाकुर साहब के लिए चूका दिया था। महाराजा मानसिंह भी उस वीर की वीरता से बेहद प्रभावित हुए और जहाँ उनकी मर्त्यु हुई वहां देवली का निर्माण कर उस वीर को जुंझार घोषित किया एवं उसके परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाई। आज भी उस वीर को लोक देवता मान कर पूरा जोधपुर उस देवली के सम्मुख अपना सिर झुकता है।
धन्य हो खेत सिंह तुम जो एक चुटकी नमक की कीमत भी अपनी जान देकर अदा कर गए ।।
जय भवानी .

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