लोगो को मध्य पूर्वी एशिया में ईरान में हो रही घटनाओं पर पैनी नज़र रखनी चाहिये क्योंकि ईरान में इस्लामिक गणतंत्र के विरुद्ध लोगो का सड़क पर आना भारत को भविष्य में प्रभावित करेगा। उस वक्त मैंने यह भी लिखा था कि सेंसरशिप व नेट की सेवा बाधित होने के कारण, वास्तविकता में ईरान में क्या हो रहा है और उसके क्या परिणाम होंगे वह अगले 15 दिनों में ही पता चलेगा।
अब पिछले एक हफ्ते में जिस तरह की सूचनाये और वीडियो ईरान से आने लगे है उससे वैसे तो काफी कुछ समझ मे आने लगा है लेकिन ईरान की घटनाओं को लेकर भारतीय मीडिया की जो चुप्पी है वह यह साफ बता रही है कि भारतीय मीडिया कट्टर इस्लामिक गणतंत्र व्यवस्था के विरुद्ध सड़क पर आयी ईरानी जनमानस के समर्थन में कुछ भी नही कहना चाहती है। दरअसल ईरान का जन आन्दोलन, जो महंगाई और उसकी अंदुरुनी कुव्यवस्था को लेकर शुरू हुआ था वह अब अरबी इस्लामीकरण के विरुद्ध ईरानी राष्ट्रवादिता की आवाज़ बन गया जो भारतीय मीडिया की राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति वितृष्णा के कारण अनुकूल नही है।
आज ईरान में हो रहा जनआंदोलन सन 2009 के ग्रीन मूवमेंट बाद सबसे बड़ा विद्रोह है। आज से 15 दिन पूर्व ईरान के मशहद शहर से शुरू हुआ यह आंदोलन शुरू में महंगाई, बेरोजगारी और भृष्टाचार को लेकर था लेकिन जैसे जैसे यह अन्य शहरों में फैला वह वहां के मुल्लाओं और उनके इस्लामिक गणतंत्र के विरुद्ध हो गया है।
ईरान में आखिर ऐसा क्यों हुआ कि आंदोलन अन्य शहरों में फैलता जारहा है और इस्लामिक शासन व्यवस्था के ही विरुद्ध हो गया है?
आज ईरान के निवासी, लगभग चार दशकों से चली आरही कट्टरपंथी इस्लामिक शासन व्यवस्था और उसके अंतर्गत हुई ज्यादतियों से ऊब गये है। आज ईरानी, मुल्लाओं द्वारा प्रतिपादित इस्लामिक विचारधारा द्वारा शोषित होने को तैयार नही है क्योंकि इन चार दशकों में खुमैनी के इस्लामिक गणतंत्र ने अपनी चमक खो दी है। 1979 में अयातुल्लाह खुमैनी ने ईरान को जो थेअक्रटिक (धर्मतन्त्र, जहां धार्मिक नेता अपने भगवान के नाम पर शासन करता है) व्यवस्था दी थी और जो यह विश्वास दिलाया था कि इस धार्मिक शासन व्यवस्था के अंतर्गत ईरान में सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था में सुधार हो सकते है, उससे उनका मोह भंग हो चुका है। आज ईरान का नागरिक, ईरान को पुनः महान बनाना और विश्व में पुनर्स्थापित करना चाहता है।
पिछले कुछ वर्षों से भारत से लेकर अमेरिका, साउथ अफ्रीका से लेकर इंग्लैंड तक मे जो राष्ट्रवादिता का पुनर्जागरण हुआ है उससे ईरान का यह आंदोलन भी अछूता नही रहा है। आज 'नेशन स्टेट' की अवधारणा, धर्म आधारित तन्त्र को प्रतिस्थापित कर रही है और यह ईरान के जन आंदोलन में साफ दिखाई पड़ रहा है। आज ईरानी अपने शासको से उनका इरानीपन वापस मांग रहे है जिसको अयतुल्लाहो ख़ुमैनियों खमिनियों ने शियते रेवोल्यूशनरी मिशन ने दबा दिया था। आज ईरान की जनता अपनी पहचान ईरान एक राष्ट्र से करवाना चाहती है, वह अरब की ज़मीन से उठे इस्लामीकरण से बनी अपनी पहचान को बदल कर सिर्फ ईरानी चाहती है। यह बातें इन आंदोलनकारियों द्वारा लगाय जारहे, "वी विल डाई टू गेट ईरान बैक(हम ईरान को वापिस लाने के लिये मौत को गले लगा लेंगे)", "नॉट गाजा, नॉट लेबनॉन, मायी लाइफ ओनली फ़ॉर ईरान(गाज़ा नही लेबनान नही, मेरी ज़िंदगी सिर्फ ईरान के लिये)", "लैट सीरिया बी, दो समथिंग फ़ॉर मी(सीरिया को छोड़ो, मेरे लिये करो)" नारो से भी समझी जासकती है। लोग ईरान के शासको द्वारा अपने अगले बगल के भूभाग को अपनी शक्ल देने के प्रयासो और अमेरिका को बराबर चुनौतियां देने के परिणामो से थक गये है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आश्चर्यजनक रूप से कुछ जगह पुराने दिनों की याद में ईरान के पूर्व शाह पहलवी की याद में भी नारे लगे है।
ईरान की जनता का यह जो आक्रोश फूटा है उसका कारण यह है कि ईरान के इस्लामिक शासक कभी भी ईरानी राष्ट्रवादिता की विचारधारा से आश्वस्त नही रहे है। इस्लामिक क्रांति के शुरू के ही दिनों से अयातोल्लाह खोमैनी के समर्थको ने ईरान के इस्लामिक राष्ट्र बनने से पहले की पहचान को तोड़ने में लग गये, जिससे ईरानियों को अपनी राष्ट्रीय पहचान मिलती थी। ईरानी नव वर्ष, ईरानी शिल्पकला, उनकी प्री इस्लाम गाथाओं को नई इस्लामिक क्रांति से बने इस्लामिक गणतंत्र ने उपेक्षा की, जो ईरानियों को अन्य अरबी राष्ट्रों से अलग करती थी। इसी का परिणाम यह है कि आज ईरान की जनता गाज़ा, लेबनान, सीरिया, यमन आदि को लेकर उसके इस्लामिक शासको के उद्देश्यों से विमुख हो गयी है और उनके द्वारा इस पर ईरान के संसाधनों के उपयोग किये जाने का विरोध कर रही है।
यह आज का जो जनआन्दोलन है वह मुल्लाओं के प्राधिकारों के विरुद्ध अब तक कि सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रही है क्योंकि राष्ट्रवादिता की विचारधारा किसी भी अदारवादी लोकतांत्रिक अभिलाषा से ज्यादा प्रबल शक्तिधारी होती है। यह तो भविष्य ही तय करेगा कि यह आंदोलन ईरान से शिया इस्लामिक राज्यव्यवस्था को खत्म करने में सफल होगी की नही लेकिन एक बात तय है कि ईरान से मुल्लाओं की शक्ति कमजोर होगी और उसका प्रभाव मध्यपूर्व एशिया से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप में स्पष्ट देखने को मिलेगा। विश्व ने 20वीं शताब्दी से जो कट्टर इस्लामीकरण देखा है उसकी सबसे पहले पहल ईरान की इस्लामिक क्रांति से हुई थी और वहीं से मुल्लाओं की फतवेबाजी व धर्म के नाम पर हत्या किये जाने को राजनैतिक प्रश्रय मिला था।
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