धर्म की गलत व्याख्याओं से
ऋषि वेद व्यास ब्राह्मण नहीं थे।
जिन्होंने पुराणों की रचना की।
जबसे हम वेद से दूर जाने लगे, समाज में जातियों की शुरुआत होने लगी।
क्या हम शिव को ब्राह्मण कहें?
विष्णु कौन से समाज से थे और ब्रह्मा की कौन सी 'जाति' थी?
क्या हम कालीका माता और भैरव को 'दलित' समाज का मानकर पूजना छोड़ दें?
आज के शब्दों का इस्तेमाल करें तो ये भी 'दलित' ही थे; ऋषि कवास इलूसू, ऋषि वत्स, ऋषि काकसिवत, महर्षि वेद व्यास, महर्षि महिदास अत्रैय, महर्षि वाल्मीकि हनुमानजी के गुरु मातंग ऋषि आदि ऐसे महान वेदज्ञ हुए हैं।
जिन्हें आज की जातिवादी व्यवस्था "दलित वर्ग" का मान सकते है।
ऐसे हजारों नाम गिनाएं जा सकते हैं जो सभी आज के दृष्टिकोण से दलित थे।
वेद को रचने वाले, स्मृतियों को लिखने वाले और पुराणों को गढ़ने वाले ब्राह्मण नहीं थे!
अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है!
लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है।
इस मुद्दे पर धर्म शस्त्रों में क्या लिखा है यह जानना बहुत जरूरी है!
क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया गया है और किया जा रहा है!
पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है!
दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया! इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया!
इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए।
आज जो नाम दिए गए हैं वह पिछले 70 वर्ष की राजनीति की उपज है।
इससे पहले जो नाम दिए गए थे, वह पिछले 900 साल की 'गुलामी' की उपज है!
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज 'दलित' हैं!
बहुत से ऐसे 'दलित' हैं, जो आज 'ब्राह्मण समाज' का हिस्सा हैं।
यहां ऊंची जाति के लोगों को 'सवर्ण' कहा जाने लगा हैं।
यह सवर्ण नाम भी "हिन्दू धर्म" ने नहीं दिया! भारत ने 900 साल मुगल और अंग्रेजों की गुलामी में बहुत कुछ खोया है।
विशेषतः उसने अपना मूल धर्म और संस्कृति खो दी है!
जिन्होंने पुराणों की रचना की।
जबसे हम वेद से दूर जाने लगे, समाज में जातियों की शुरुआत होने लगी।
क्या हम शिव को ब्राह्मण कहें?
विष्णु कौन से समाज से थे और ब्रह्मा की कौन सी 'जाति' थी?
क्या हम कालीका माता और भैरव को 'दलित' समाज का मानकर पूजना छोड़ दें?
आज के शब्दों का इस्तेमाल करें तो ये भी 'दलित' ही थे; ऋषि कवास इलूसू, ऋषि वत्स, ऋषि काकसिवत, महर्षि वेद व्यास, महर्षि महिदास अत्रैय, महर्षि वाल्मीकि हनुमानजी के गुरु मातंग ऋषि आदि ऐसे महान वेदज्ञ हुए हैं।
जिन्हें आज की जातिवादी व्यवस्था "दलित वर्ग" का मान सकते है।
ऐसे हजारों नाम गिनाएं जा सकते हैं जो सभी आज के दृष्टिकोण से दलित थे।
वेद को रचने वाले, स्मृतियों को लिखने वाले और पुराणों को गढ़ने वाले ब्राह्मण नहीं थे!
अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है!
लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है।
इस मुद्दे पर धर्म शस्त्रों में क्या लिखा है यह जानना बहुत जरूरी है!
क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया गया है और किया जा रहा है!
पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है!
दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया! इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया!
इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए।
आज जो नाम दिए गए हैं वह पिछले 70 वर्ष की राजनीति की उपज है।
इससे पहले जो नाम दिए गए थे, वह पिछले 900 साल की 'गुलामी' की उपज है!
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज 'दलित' हैं!
बहुत से ऐसे 'दलित' हैं, जो आज 'ब्राह्मण समाज' का हिस्सा हैं।
यहां ऊंची जाति के लोगों को 'सवर्ण' कहा जाने लगा हैं।
यह सवर्ण नाम भी "हिन्दू धर्म" ने नहीं दिया! भारत ने 900 साल मुगल और अंग्रेजों की गुलामी में बहुत कुछ खोया है।
विशेषतः उसने अपना मूल धर्म और संस्कृति खो दी है!
यह जो भ्रांतियां फैली है और यह जो समाज में कुरीतियों का जन्म हो चला है इसमें परतंत्रता का योगदान है!
जिन लोगों के अधीन भारतीय थे, उन लोगों ने भारतीयों में फूट डालने के हर संभव प्रयास किए और इसमें वह सफल भी हुए!
जिन लोगों के अधीन भारतीय थे, उन लोगों ने भारतीयों में फूट डालने के हर संभव प्रयास किए और इसमें वह सफल भी हुए!
अब यह भी जानना जरूरी है कि 'हिन्दू धर्म' के 'शास्त्र' कौन से हैं?
क्योंकि कुछ लोग उन 'शास्त्रों' का हवाला देते हैं जो असल में "हिन्दू शास्त्र" नहीं है!
हिन्दुओं का धर्मग्रंथ मात्र 'वेद' है!
वेदों का सार 'उपनिषद' है!
जिसे "वेदांत" कहते हैं!
'उपनिषदों' का सार गीता है।
क्योंकि कुछ लोग उन 'शास्त्रों' का हवाला देते हैं जो असल में "हिन्दू शास्त्र" नहीं है!
हिन्दुओं का धर्मग्रंथ मात्र 'वेद' है!
वेदों का सार 'उपनिषद' है!
जिसे "वेदांत" कहते हैं!
'उपनिषदों' का सार गीता है।
इसके अलावा जिस भी ग्रंथ का नाम लिया जाता है वह हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं है!
(जैसे, साई सतचरित, कबीर पंथ) मनुस्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत यह हिन्दुओं के धर्म ग्रंथ नहीं ऐतिहासिक ग्रंथ हैं!
इन ग्रंथों में हिन्दुओं का धर्म इतिहास दर्ज है!
लेकिन कुछ लोग इन ग्रंथों में से 'संस्कृत के कुछ श्लोक' निकालकर यह बताने का प्रयास करते हैं कि ऊंच-नीच की बातें तो इन "धर्मग्रंथों" में ही लिखी है!
असल में यह काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते समाज का चित्रण है।
दूसरी बात कि इस बात की क्या गारंटी की उक्त ग्रंथों में जानबूझकर संशोधन नहीं किया गया होगा?
सत्ता हमारे अंग्रेज भाई और बाद के कम्यूनिस्ट भाइयों के हाथ में ही तो था!
(जैसे, साई सतचरित, कबीर पंथ) मनुस्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत यह हिन्दुओं के धर्म ग्रंथ नहीं ऐतिहासिक ग्रंथ हैं!
इन ग्रंथों में हिन्दुओं का धर्म इतिहास दर्ज है!
लेकिन कुछ लोग इन ग्रंथों में से 'संस्कृत के कुछ श्लोक' निकालकर यह बताने का प्रयास करते हैं कि ऊंच-नीच की बातें तो इन "धर्मग्रंथों" में ही लिखी है!
असल में यह काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते समाज का चित्रण है।
दूसरी बात कि इस बात की क्या गारंटी की उक्त ग्रंथों में जानबूझकर संशोधन नहीं किया गया होगा?
सत्ता हमारे अंग्रेज भाई और बाद के कम्यूनिस्ट भाइयों के हाथ में ही तो था!
✴️कर्म का विभाजन
वेद या स्मृति में श्रमिकों को चार वर्गों,
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र में विभक्त किया गया है!
जो मनुष्यों की 'स्वाभाविक प्रकृति' पर आधारित है।
यह विभक्तिकरण कतई जन्म पर आधारित नहीं है।
आज बहुत से ब्राह्मण "व्यापार" कर रहे हैं उन्हें ब्राह्मण कहना गलत हैं।
ऐसे कई क्षत्रिय और "दलित" हैं जो आज धर्म-कर्म का कार्य करते हैं!
तब उन्हें कैसे क्षत्रिय या दलित मान लें?
लेकिन पूर्व में हमारे देश में 'परंपरागत कार्य' करने वालों का एक समाज विकसित होता गया!
जिसने स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट मानने की भूल की है तो उसमें "हिन्दू धर्म" का कोई दोष नहीं है!
यदि आप 'धर्म' की गलत व्याख्या कर, लोगों को मू्र्ख बनाते हैं तो उसमें धर्म का दोष नहीं है! प्राचीन काल में ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व को वैसे ही अपने प्रयास से प्राप्त किया जाता था!
जैसे कि आज वर्तमान में एमए, एमबीबीएस आदि की डिग्री प्राप्त करते हैं।
जन्म के आधार पर, एक पत्रकार के पुत्र को पत्रकार, इंजीनियर के पुत्र को इंजीनियर, डॉक्टर के पुत्र को डॉक्टर या एक आईएएस, आईपीएस अधिकारी के पुत्र को आईएएस अधिकारी नहीं कहा जा सकता है!
जब तक की वह "आईएएस" की परीक्षा नहीं दे देता!
ऐसा ही उस काल में गुरुकुल से जो जैसी भी शिक्षा लेकर निकलता था; उसे उस तरह की 'पदवी' दी जाती थी!
वेद या स्मृति में श्रमिकों को चार वर्गों,
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र में विभक्त किया गया है!
जो मनुष्यों की 'स्वाभाविक प्रकृति' पर आधारित है।
यह विभक्तिकरण कतई जन्म पर आधारित नहीं है।
आज बहुत से ब्राह्मण "व्यापार" कर रहे हैं उन्हें ब्राह्मण कहना गलत हैं।
ऐसे कई क्षत्रिय और "दलित" हैं जो आज धर्म-कर्म का कार्य करते हैं!
तब उन्हें कैसे क्षत्रिय या दलित मान लें?
लेकिन पूर्व में हमारे देश में 'परंपरागत कार्य' करने वालों का एक समाज विकसित होता गया!
जिसने स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट मानने की भूल की है तो उसमें "हिन्दू धर्म" का कोई दोष नहीं है!
यदि आप 'धर्म' की गलत व्याख्या कर, लोगों को मू्र्ख बनाते हैं तो उसमें धर्म का दोष नहीं है! प्राचीन काल में ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व को वैसे ही अपने प्रयास से प्राप्त किया जाता था!
जैसे कि आज वर्तमान में एमए, एमबीबीएस आदि की डिग्री प्राप्त करते हैं।
जन्म के आधार पर, एक पत्रकार के पुत्र को पत्रकार, इंजीनियर के पुत्र को इंजीनियर, डॉक्टर के पुत्र को डॉक्टर या एक आईएएस, आईपीएस अधिकारी के पुत्र को आईएएस अधिकारी नहीं कहा जा सकता है!
जब तक की वह "आईएएस" की परीक्षा नहीं दे देता!
ऐसा ही उस काल में गुरुकुल से जो जैसी भी शिक्षा लेकर निकलता था; उसे उस तरह की 'पदवी' दी जाती थी!
✴️इस तरह मिला जाति को बढ़ावा
समाज में दो तरह के लोग होते हैं- अगड़े और पिछड़े।
यह मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित!
पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति!
'पिछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए, संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई!
यह मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित!
पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति!
'पिछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए, संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई!
सेवा, पर आधारित राजनीति; पूर्णत: "वोट" पर आधारित राजनीति बन गई!
आज इसी दुष्टनीति का दुष्परिणाम भोग रहे हैं हम।
आज इसी दुष्टनीति का दुष्परिणाम भोग रहे हैं हम।
और हाँ!! "अंग्रेजी गुलामी भाषा" पढ़कर उसकी डिग्रियां प्राप्त करके, वैदिक संस्कृत का विकृत अनुवाद करने वालों का तो जवाब ही नही!
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